Monday, October 14, 2013

क्या हम नपुसंकता की ओर बढ़ रहे है?

सुनते है नपुसक व्यक्ति श्री सामथ्र्य हीन होता है उसमें जीवनयापन की भी क्षमता नहीं होती। वह लोगो से दर दर माँग कर अपना काम चलाता है। लोगो की चापलूसियाँ करता है नाच गा कर लोगो के खुश करता है। यदि हम भारत के विभिन्न विभागों की देखें तो वहाँ भी नपुंसको की बहुलायता है। सरकारी कर्मचारी स्वाभिमान के साथ अपना काम नही करते।
काम करने के लिए रिश्वत की भीख माँगते है। राजनेता लोग र्इमानदारी से राष्ट्र के विकास के लिए जागरूक नही है बस अन्त में वोटों की भीख माँगने दर-दर घूमते हैं भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर भी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते। बडे मन्त्रियों से उलटे सीधे समझौते करके कुर्सी की भीख माँगते हैं। धर्म तन्त्र में लोग देवी देवताओं से मनोकामनाओं की भीख माँगते नजर आते है। अपना पोरुष आत्मविश्वास खोकर दर-दर गिडगिडाते रहते है। होना तो चाहिए था कि विवेकानन्द जी की तरह माँ काली से सदबुद्धि, साहस, शक्ति उच्च प्ररेणाएँ ली होती। पात्रता सिद्ध करके देव शक्तियाँ का संरक्षण मार्गदर्शन प्राप्त किया होता। यदि व्यक्ति सुपात्र तो देवशक्तियाँ प्रसन्नतापूर्वक उसको अपने अनुदान वरदान देती है। परन्तु हमें तो कुछ करना नहीं आता सिवा भीख माँगने के। धर्म के ठेकेदार कभी-कभी किसी नाम पर कभी किसी नाम पर मोल्लतों में पर्चियाँ करवाते फिरते रहते है। दिनोदिन नए-2 संस्थान उभर रहे है चन्दा मगानों की सँख्या बढ़ रही है। रोज नए-नए भांडे फूटते है धन के बढ़ने पर संस्थान अय्यशी के अडुे बनने लग जाते है। लोगों के द्वारा दी गयी श्रद्धा मेहनत की कमार्इ से वेश्यावृत्ति चलने लगती है। परन्तु सब कुछ पता चलने पर भी लोग चुप रह जाते है। कुछ वर्षो पश्चात् उनको कुछ-कुछ व्याख्या कर लोगों को समझा दिया जाता है।
आइए जरा बड़े कालेजों का माहौल देखें। लड़के सुन्दर लड़कियों के आगे गिड़गिड़ा रहे है। तो लड़कियाँ प्रोफेसरों के आगे मिन्नतें करती नजर रही है जिससे उनको आसानी से डिग्री मिल जाए। हम इस हद तक अपना आत्मविश्वास खोते जा रहे है कि सब कुछ छोटे ओच्छे रास्ते से ही पाना चाहते है। अपना स्वाभिमान, अपना पोरुष, अपनी ताकत क्यों गंवा रहे है। हर जगह पांक्ति तोड़कर आगे बढ़ना चाहते है। उल्टे सीधे रास्तों से ट्रेनों में सीटे हथियाना चाहते है। लोगों के उतरने से पहले चढ़ने के लिए धक्का मुक्की करते है।

हम वो भारतवासी है जो अपनी आन बान शान के आगे अपना सिर काटा देते थे। परन्तु आज चन्द रूपयों की खातिर सुख सुविधा के चक्कर में हम कुछ भी दाँव पर लगा देते है, किसी भी हद तक गिर सकते है। इसी कारण हम अपना आत्म गौरव, ओजस तेजरू वर्चस खोते जा रहे है। काश कोर्इ विवेकानन्द, कोर्इ भगत सिंह, कोर्इ बन्दा वेरागी कोर्इ लक्ष्मी बार्इ भारत के सपूतों का सोया स्वाभिमान जगा सकें जिससे हमारा भारत पुन: जगत गुरू विश्वमित्र बन सके।

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