सिगमंड फ्रायड, कार्ल गुस्ताव जुंग ओर महर्षि रमण तीनों लगभग समकालीन थे। फ्रायड वियना के एक बड़े न्यूरोवलोजिस्ट एवं मनोचिकित्सक माने जाते थे। सम्पूर्ण यूरोप व अमेरिका उनकी खोजो के आगे नतमस्तक था। फ्रायड ने (साइको सेक्सुअल एनालिसिक) psychosexual
analysis एवं mind से सम्बन्धित अनेक प्रकार की theories देकर मनोरोगियों का उपचार किया। उनका कथन था कि मानव जीवन में व का अंह रोल है। यदि हम इन्हें पूरा न करे तो दमित इच्छाएँ कुण्ठित होकर भाँति-2 के रोगों को जन्म देती है।
कार्ल जुंग स्विटजरलैण्ड के जुरिक में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिनकी दर्शन, मनोविज्ञान, अतिमानसिक शक्तियों व धर्म शास्त्र में बहुत रूचि थी। जब कार्ल जुंग ने होश सम्भाला उस समय फ्रायड का सिक्का सब जगह चलता था। जुंग फ्रायड के पास वर्षो रहे ओर उनकी खोजों का अध्ययन किया। फ्रायड भी जुंग के अपना बड़ा पुत्र एवं उत्तराधिकारी मानकर उनकी प्रतिभा सम्मान करते थे। परन्तु जुंग की चेतना इस बात के स्वीकार नहीं कर पाती थी कि मानव वासना एवं अन्य इच्छाओं का दास है। जुंग ने अपनी शोध के एक नर्इ दिशा देना प्रारम्भ किया कि मानव वासना एवं इच्छाओं से ऊपर उठकर र्इसा व बुद्ध की तरह एक महामानव भी बन सकता है। इस पर फ्रायड जुंग से नाराज हो गए ओर दोनों में वैचारिक मतभेद बहुत बढ़ गए। अब जुंग का ध्यान भारतीय दर्शन शास्त्रों की ओर मुडा व उनका अध्ययन करने लगे। इधर फ्रायड के जबड़े का कैंसर बढ़ता चला गया। फ्रायड तम्बाकू व अन्य दुव्र्यसनों से ग्रस्त थे व उनके आदी हो चुके थे। अन्त में उनका कैंसर भयानक रूप ले गया ओर 1939 में उनकी दर्दनाक मौत हो गयी।
सन् 1936 के आसपास जुंग के पालब्रंटन की लिखी एक प्रसिद्ध पुस्तक हाथ लगी जिसमें श्री रमण की अति मानसिक शक्तियों एवं अश्मधारण व्यक्तित्व की बात कही गयी थी। श्री रमण अधिकतर मौन रहते थे एवं मात्र अपनी चेतना से दूसरे की समस्याओं व उलझनों के सुलझा दिया करते थे। सन् 1937 में जुंग भारत आए। उस समय तक जुंग विश्व के बड़े दार्शनिक में से एक माने जाते थे। भारतीय विश्वद्यितृायों में उनका बड़ा स्वागत हुआ। जुंग व फ्रायड प्रारम्भ में बहुत अच्छे मित्र रहे। कुछ वर्षो बाद वो एक दूसरे के घेर विरोधी हो गए। परन्तु कहते है कि जुंग की अति मानसिक शक्तियों के आगे फ्रायड ने घुटने टेक दिए थे ओर अन्त समय में उनका अंह टूट गया था।
अपने कैंसर के रोग से पीड़ित होने से उनकी अपने सिद्धान्तों पर पश्चाताप होने लगा था। दूसरी और अनका शिष्य जुंग भारतीय दर्शन के सम्पर्क में आकर एक स्वस्थ्य एवं सफल जीवन जी रहा था। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि उनकी खोजे अधूरी थी और उनको पूरी तरह अपनाना मानव जीवन के विनाश की ओर भी ले जा सकता है। फ्रायड जो जीवन भर वासनाओं व गलत आदतों के शिकार रहें अन्त समय में बहुत निराशा व पीड़ा भरा जीवन जिया परन्तु उन्ही के शिष्य जुंग ने विश्व का ध्यान भारतीय दर्शन शास्त्रों की ओर मोड़ा। जुंग एक शक्तिशाली, स्वस्थ एवं सफल जीवन जी पाए। उनकी प्रतिभा व जीवन को सम्पूर्णता प्रदान की थी भारत से एक तपस्वी श्री रमण जी ने। महर्षि रमण के चरणों में बैठकर उन्होंने उच्च आध्यात्मिक जीवन का रहस्य सीखा। जुंग एक सिद्ध साधक के रूप में उभरें व विश्व के यह ज्ञान दिया कि मानव के भीतर असीमित शक्तियाँ छिपी पड़ी है यदि वासनाओं एवं इच्छाओं को रूपान्तरित (Sublimation) कर दिया जाए तो मानव जीवन एक अनमोल वरदान बन सकता है ओर मनुष्य निहाल हो सकता है।
परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि फ्रायड के रूचि के साथ पढ़ते है जानते ओर मानते है परन्तु जुंग के बहुत ही कम लोग जानते है। जानबूझकर ऐसे व्यक्तित्वों के समाज में प्रसिद्ध नहीं किया जाता जो भारतीय दर्शन के प्रशंसक रहे हो। आइए अगले अंक में देखते है श्री जुंग व महर्षि रमण की एक मुलाकात का संक्षिप्त विवरण है।
शाम का समय था। अरुणाचल की तलहटी में खुले स्थान पर रमण महर्षि बैठ हुए थे। महर्षि उस समय शरीर पर कवेल कौपीन धारण किए हुए थे। उनके चेहरे पर हलकी दाढ़ी थी। दाढ़ी एकदम श्वेत थी और उनके मुखमंडल की दिव्यता एवं भव्यता को बहुगुणित कर रही थी। उनके ओंठों पर बालसुलभ हँसी अत्यंत मनमोहक लग रही थी। आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन था, जो किसी को भी अनायास अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। यह ऐसा आकर्षण था, जिसकी व्याख्या संभव नहीं थी, उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता था।
प्रख्यात मनोविज्ञानी कार्ल जुंग को भी महर्षि अपनो से भी अधिक अपने लगे। उनके मन का ऊहापोह एवं शंका बरफ के समान पिघलने लगी। मन में शंका थी कि ग्रामीण जनों की तरह दीखने वाले महर्षि क्या उनकी गूढ़ मनोवैज्ञानिक जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएँगे। जुंग फ्रायड से इसलिए जुडे़ थे कि वह यह जान सकें कि कैसे चेतन व्यवहार अदृश्य अचेतन हाथों की कठपुतली होता है, परंतु फ्रायड द्वारा कामवासना और उसके दमन को ही सब कुछ मान लेना, उन्हें कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया; क्योंकि उनकी यह अनुभूतिपरक मान्यता थी कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार कुछ उच्चस्तरीय आध्यात्मिक आयाम भी होते हैं एवं कामवासना मात्र ही मानवीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है। इस बिंदु पर फ्रायड से उनका मतांतर एवं मतभेद हो गया और यह खार्इ इतनी चौड़ी हुर्इ कि उनका साथ छूट गया। इन्हीं सबके बीच उन्होंने भारतीय दर्शन एवं भारतीय मनोविज्ञान को काफी कुछ पढ़ा और उनकी जिज्ञासा को पॉल बं्रटन की कृति ने मूर्तरूप प्रदान किया।
यही वजह थी कि वे स्विट्जरलैंड से अरुणाचलम् आकर महर्षि का दिव्य एवं दुलर्भ सान्निध्य प्राप्त कर रहे थे। जुंग के मन में प्रश्नों की कतारें थीं। उनके मन में आए इन प्रश्नों के उत्तर में महर्षि ने हलकी सी मीठी मुस्कान के साथ कहा- ‘‘वर्तमान मनोविज्ञान कैसा है, जानते हो? यह मनोविज्ञान बहुत कुछ बच्चों को अक्षर-ज्ञान प्रदान करने जैसा है। इसको पाकर मनोविज्ञानी ऐसे फूले नहीं समाते, जैसे इन्होंने संपूर्ण मानव मन को समझ लिया हो, पर ऐसा है नहीं। मनोविज्ञान के समस्त सिद्धांत व्यवहार पर आधारित हैं; जबकि व्यवहार तो अंदर की एक झलक झाँकी भर है। बाहर जो दीख रहा है, वो अंदर के क्रियाकलापों से नियमित होता है और जब तक उसको न समझा गया, तब तक मानवीय मन को समझना संभव नहीं होगा।’’
महर्षि
कह रहे थे और जुंग उसे सुन रहे थे। महर्षि ने मानवीय मन की इतनी स्पष्टता से व्याख्या की, जिसे पहले कभी न सुना गया था और न ही पढ़ा गया था। महर्षि रमण अपने कथन को और भी स्पष्ट करते हुए बोले-’’वर्तमान मनोविज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं। यह मानवीय चेतना के अंधकार को ही मानवीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति मानता है; जबकि ऐसा है नहीं। मनुष्य के अंदर कमियाँ हो सकती हैं, परंतु इस आधार पर दिव्य पुरुषों के जीवन की व्याख्या कैसे संभव है?’’
जुंग महर्षि की बातों को बड़े ध्यान से सुन एवं समझ रहे थे। उनके लिए यह प्रथम अवसर था कि वे मनोविज्ञान के इतने सारे आयामों को देख पा रहे थे। जुंग ने कहा- ‘‘महर्षि! मनोविज्ञान को ऐसा क्या करना चाहिए कि वह मानसिक क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ सके।’’ महर्षि के अधरों पर मुस्कराहट और भी गहरी हो गर्इ। उन्होंने कहा-’’ऋग्वेद का ऋषि अपनी अंतदर््रष्टि खोलकर घोषणा करता है- उपरि बुध्न एषाम् (ऋग्वेद-1/24/9) अर्थात जो कुछ भी नीचे है, उसका वास्तविक स्त्रोत एवं आधार ऊपर स्थित है। ऐसे, जैसे पेड़ की जड़़ को ऊपर कर दो और उसकी टहनी एवं पत्तों को नीचे। जड़ ब्रह्मांडीय ऊर्जा को ग्रहण करके ही पेड़ को सींचती है। ऊपर चेतना की सूक्ष्मता है, जो सागर की लहरों के समान तरंगित हो रही है। ऊर्जा एवं प्रकाश की यह अजस्त्र धारा जब हमारे मन में बहने लगती है, तो निम्नतर मानसिक क्रियाएँ परिवर्तित एवं रूपांतरित होने लगती हैं, फिर सब कुछ बदलने लगता है।’’
महर्षि यह बात एक द्रष्टांत के सहारे समझाने लगे- ‘‘हमारे देश में कमल पुष्प पाया जाता है। उसकी खास विशेषता है कि वह सदैव कीचड़ में खिलता है, परंतु कीचड़ के विश्लेषण से कमल की व्याख्या संभव नहीं है। यदि इसके रहस्य से परिचित होना हो तो ऊपर के प्रकाश एवं ऊर्जा को जानना आवश्यक है, जो कि इस पुष्प को खिलने के लिए प्रेरित करता है। इसी प्रकार मन एवं व्यवहार के अध्ययन से ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला है। उपलब्धि एवं प्राप्ति की उम्मीद तभी की जा सकती है, जब मन एवं व्यवहार को संचालित, नियमित एवं नियंत्रित करने वाली चेतना को जाना, समझा एवं अनुभव किया जा सके।’’
महर्षि अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए कह रहे थे- ‘‘व्यवहार एवं मानसिक क्रियाएँ तो मानवीय व्यक्तित्व के एक पहलू भर हैं, अंशमात्र हैं। अंश को जानने के लिए सूंपर्ण का ज्ञान आवश्यक है, निम्नतम की सही समझ के लिए उच्चतम को जानना जरूरी है; क्योंकि पूर्णता में अंश का अस्तित्व समाहित है और उच्चतम में ही निम्नतम का समाधान निहित है। इसे जाने बिना मनोविज्ञान का सूंपर्ण एवं समग्र आधार खड़ा ही नहीं हो सकता और जब तक आधार ही नहीं होगा, मनोविज्ञान का अध्ययन एवं प्रयोग संभव कैसे हो सकता है। यही भारतीय मनोविज्ञान है, जिसके नूतन आगमन की घड़ी प्रतीक्षारत है। उसमें समस्त मानसिक समस्याओं का समाधान ही नहीं, बल्कि मानसिक चेतना का ऊघ्र्वगमन भी समाहित है।’’
महर्षि रमण एक स्नेहिल दृष्टि फेरकर अपने कक्ष की ओर प्रस्थान कर गए। जुंग को पहली बार इतना भावातिरेक हुआ था। जुंग ने वापस यूरोप लौटकर जिस व्यक्तित्व-सिद्धांत की रचना की, उसमें महर्षि के विचार ही परिलक्षित होते हैं।
डॉ जुंग लिखते है : "जिन धारणाओं पर योग आधारित है , उन धारणाओं के ज्ञान के बिना योग साधना विशेष प्रभावकारी नहीं होगी । यह साधना शारीरिक और आध्यात्मिक पहलुओं में असामान्य रीति से सामंजस्य स्थापित कर देती है । पश्चिम में भी वह दिन अब निकट आ रहा है जब आत्म -संयम के आंतरिक विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता महसूस होगी , जितनी की बाह्य प्रकृति पर विजय कि । पत्थरों और धातुओ में निहित शक्तिओ से कहीं अधिक महान शक्तियो को मानवी मन अपने अंदर उन्मुक्त कर सकता है । "
जुंग के ‘कलेक्टिव अनकॉन्शस’ में इन्हीं दिव्य विचारों का सूत्र विरेचित हुआ मिलता है। सत्य यही है कि भारतीय मनोविज्ञान की सही समझ से ही मानवीय मन का संपूर्ण बोध संभव है।
डॉ जुंग लिखते है : "जिन धारणाओं पर योग आधारित है , उन धारणाओं के ज्ञान के बिना योग साधना विशेष प्रभावकारी नहीं होगी । यह साधना शारीरिक और आध्यात्मिक पहलुओं में असामान्य रीति से सामंजस्य स्थापित कर देती है । पश्चिम में भी वह दिन अब निकट आ रहा है जब आत्म -संयम के आंतरिक विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता महसूस होगी , जितनी की बाह्य प्रकृति पर विजय कि । पत्थरों और धातुओ में निहित शक्तिओ से कहीं अधिक महान शक्तियो को मानवी मन अपने अंदर उन्मुक्त कर सकता है । "
जुंग के ‘कलेक्टिव अनकॉन्शस’ में इन्हीं दिव्य विचारों का सूत्र विरेचित हुआ मिलता है। सत्य यही है कि भारतीय मनोविज्ञान की सही समझ से ही मानवीय मन का संपूर्ण बोध संभव है।
ITS WONDER FULL
ReplyDeleteअद्भुत
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