Thursday, January 16, 2014

प्रज्ञा_सुभाषित-2

101) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठों। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।
102) दो याद रखने योग्य हैं-एक कत्र्तव्य और दूसरा मरण।
103) कर्म ही पूजा है और कत्र्तव्यपालन भक्ति है।
104) र्हमान और भगवान्‌ ही मनुष्य के सच्चे मित्र है।
105) सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।
106) महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।
107) चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है।
108) बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।
109) सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।
110) स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कत्र्तव्य है।
111) स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।
112) अपना आदर्श उपस्थित करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।
113) प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।
114) प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।
115) जैसा खाय अन्न, वैसा बने मन।
116) यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है।
117) कत्र्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।
118) इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।
119) काल(समय) सबसे बड़ा देवता है, उसका निरादर मत करा॥
120) अवकाश का समय व्यर्थ मत जाने दो।
121) परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।
122) व्यसनों के वश मेंं होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।
123) संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।
124) विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।
125) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।
126) जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
127) अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना ही मुक्ति है।
128) किसी को गलत मार्ग पर ले जाने वाली सलाह मत दो।
129) जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे धन्य है।
130) भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे।
131) जिसके पास कुछ भी कर्ज नहीं, वह बड़ा मालदार है।
132) नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान्‌ है।
133) जो तुम दूसरों से चाहते हो, उसे पहले तुम स्वयं करो।
134) वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो कत्र्तव्य पालन के लिए मर मिटते हैं।
135) जो असत्य को अपनाता है, वह सब कुछ खो बैठता है।
136) जिनके भीतर-बाहर एक ही बात है, वही निष्कपट व्यक्ति धन्य है।
137) दूसरों की निन्दा-त्रुटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।
138) आत्मोन्नति से विमुख होकर मृगतृष्णा में भटकने की मूर्खता न करो।
139) आत्म निर्माण ही युग निर्माण है।
140) जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।
141) युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन्‌ अपने मन को समझाने से शुरू होगा।
142) भगवान्‌ की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है।
143) सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।
144) स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।
145) अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है।
146) अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ पा सकता है।
147) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।
148) उनसे दूर रहो जो भविष्य को निराशाजनक बताते है।
149) सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है।
150) जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान्‌ कार्य करने के लिए है।
151) राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।
152) इतराने में नहीं, श्रेष्ठ कार्यों में ऐश्वर्य का उपयोग करो।
153) सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है।
154) जीभ पर काबू रखो, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाओ।
155) श्रम और तितिक्षा से शरीर मजबूत बनता है।
156) दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।
157) पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि करना है।
158) ईष्र्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं।
159) चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है।
160) पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमेंं से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा।
161) आराम की जिन्गदी एक तरह से मौत का निमंत्रण है।
162) आलस्य से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है।
163) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करें।
164) मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है।
165) किसी बेईमानी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता।
166) शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।
167) वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है
168) आत्म निर्माण का अर्थ है-भाग्य निर्माण।
169) ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।
170) बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है।
171) शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।
172) शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।
173) समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कत्र्तव्य है।
174) ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।
175) अब भगवानÔ गंगाजल, गुलाबजल और पंचामृत से स्नान करके संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी माँग श्रम बिन्दुओं की है।भगवान्‌ का सच्चा भक्त वह माना जाएगा जो पसीने की बूँदों से उन्हें स्नान कराये।
176) जो हमारे पास है, वह हमारे उपयोग, उपभोग के लिए है यही असुर भावना है।
177) स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।
178) मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है।
179) दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।
180) जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होत, तब तक कोई तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।
181) सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?
182) दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन्‌ मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।
183) हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।
184) कामना करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान्‌ की इच्छा पूरी करने की बात जुड़ी रहती है।
185) भगवान्‌ आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान्‌ की भक्ति है।
186) आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर विश्वास और ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है।
187) पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।
188) अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।
189) जो मन की शक्ति के बादशाह होते हैं, उनके चरणों पर संसार नतमस्तक होता है।
190) एक बार लक्ष्य निर्धारित करने के बाद बाधाओं और व्यवधानों के भय से उसे छोड़ देना कायरता है। इस कायरता का कलंक किसी भी सत्पुरुष को नहीं लेना चाहिए।
191) आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जो उसे अपने जीवनक्रम में उतार सके, सच्चाई और हिम्मत का धनी वही है।
192) किसी से ईष्र्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।
193) ईष्र्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरे के गुणों और सत्प्रयत्नों को देखें जिसके आधार पर उनने अच्छी स्थिति प्राप्त की है।
194) जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है।
195) किसी महान्‌ उद्द्‌ेश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना।
196) सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है।
197) असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशील की परख होती है। जो इसी कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी है।
198) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।
199) जाग्रत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।
200) जाग्रत्‌ अत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता।

BY: श्रीराम आचार्य 
from:- http://hi.wikiquote.org/wiki/प्रज्ञा_सुभाषित-3

प्रज्ञा_सुभाषित-1

1) इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दु:ख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहींं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।
2) ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक्‌ करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है।
3) अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूति से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्द्‌ेश्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है।
4) आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कत्र्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है।
5) कुचक्र, छद्‌म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा।
6) जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है।
7) समर्पण का अर्थ है-पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना।
8) मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। 9) सबसे महान्‌ धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।
10) सद्‌व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है।
11) जिनका प्रत्येक कर्म भगवान्‌ को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।
12) कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा।
13) सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है।
14) सब ने सही जाग्रत्‌ आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।
15) साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है।
16) आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है।
17) जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंत:करण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है।
18) योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्पूर्ण है।
19) यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।
20) जीवन के प्रकाशवान्‌ क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते।
21) प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन्‌ स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।
22) बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।
23) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।
24) भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।
25) हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है।
26) प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।
27) धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो।
28) अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं।
29) शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है?
30) जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है।
31) आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी ध्र्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं।
32) इन दिनों जाग्रत्‌ आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे। बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें।
33) जौ भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमेंं महान्‌ परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ।
34) दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।
35) आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है।
36) चरित्रवान्‌ व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है।-वाङ्गमय
37) व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों मेंं सामथ्र्यवान्‌ नहीं बन सकता है।-वाङ्गमय
38) युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना।-वाङ्गमय
39) भुजार्ए साक्षात्‌ हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं।
40) विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।- वाङ्गमय
41) मनुष्य दु:खी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है।-वाङ्गमय
42) धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है।-वाङ्गमय
43) जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम ओर साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना।-वाङ्गमय
44) निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है।-वाङ्गमय
45) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।-वाङ्गमय
46) हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।-वाङ्गमय
47) अपनी दुCताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता।
48) किसी महान्‌ उद्देश्य को न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना।
49) महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है।
50) सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहींं जाता।
51) खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा।
52) मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है।
53) साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना।
54) सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।
55) असत्‌ से सत्‌ की ओर, अंधकार से आलोक की और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।
56) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।
57) अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो।
58) उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना।
59) वही जीवति है, जिसका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।
60) चरित्र का अर्थ है- अपने महान्‌ मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।
61) मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।
62) अपने अज्ञान को दूर करके मन-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान्‌ की सच्ची पूजा है।
63) जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह अज्ञात है! लेकिन वर्तमान तो हमारे हाथ मेंं है।
64) हर वक्त, हर स्थिति मेंं मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये।
65) वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।
66) वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।
67) मनोविकारों से परेशान, दु:खी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दु:ख-दर्द के समय श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है।
68) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बढ़कर प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।
69) विषयों, व्यसनों और विलासों मेंं सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है।
70) कुकर्मी से बढ़कर अभागा और कोई नहीं है; क्यांकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता।
71) गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।
72) परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो।
73) ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।
74) वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं-स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण।
75) ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों मेंं और कोई दान नहीं।
76) केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।
77) इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं, सद्‌विचार है।
78) उत्तम पुस्तकें जाग्रत्‌ देवता हैं। उनके अध्ययन-मनन-चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है।
79) शान्तिकुञ्ज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारी सतयुगी सपनों का महल है।
80) शांन्किुञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह संस्था प्रभाव पर्त की एक नवोदित किरण है।
81) गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तप:स्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्‌भव स्त्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है।
82) नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ।
83) धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।
84) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है; परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।
85) सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।
86) हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है।
87) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है।
88) किसी को आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन देना ही सर्वोत्तम उपहार है।
89) दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।
90) निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है।
91) दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।
92) सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कम; किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है।
93) अपनी महान्‌ संभावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है।
94) 'अखण्ड ज्योति' हमारी वाणी है। जो उसे पढ़ते हैं, वे ही हमारी प्रेरणाओं से परिचित होते हैं।
95) चरित्रवान्‌ व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद्‌ भक्त हैं।
96) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओं, जो महान्‌ है उसका अवलम्बन करो ओर आगे बढ़ो।
97) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।
98) परमात्मा जिसे जीवन मेंं कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।
99) देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।
100) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।

Monday, January 13, 2014

साधना समर - पातञ्जल योग दर्शन(अष्टांग योग)-8

ईश्वर प्राणिधान
     व्यक्ति जब आध्यात्मिक रास्तें पर चलने का प्रयास करता है तो बहुत सारी कष्ट-कठिनाईयाँ उसको हैरान करती है। यहाँ तक की साधना के भी अनेकों मार्ग है कौन सा मार्ग उसके लिए उपयुक्त है यह चयन करना उसे कठिन जान पड़ता है ऐसी स्थिति में भगवान् श्री कृष्ण साधक को आश्वासन् देते हैं|
सर्वधर्मान्परित्यजय मामेंक शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥  (18/66)
     हे अर्जुनभाँति-भाँति की इन धारणाओं में ना उलझ अपितु मुझे समर्पण करमेरी शरण में आमैं तेरे सभी पापों का श्मन करके तुझे मोक्ष प्रदान करूँगा। जब व्यक्ति असहाय होता है अंधकारमय होता है। अपने प्रारब्धों-पापों के कारण मुसीबत में होता है तरह-तरह के धारणाओं-उपायों के द्वारा उनसे छुटकारा पाने की कोशिश करता है परन्तु सही मार्ग नजर नहीं आता ऐसी स्थिति में उच्चतर शक्ति को अर्थात् भगवान् को अपना समर्पण कर दे। वह दिव्य सत्ता भाव की भूखी है जो भी कोई पुकारता है उसको सहारा देने आती है यह सब धर्म ग्रन्थ स्वीकार करते है और यही भगवत् गीता एवं ऋषि पतंजलि भी कहते है। श्री अरविन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि "समर्पण मेरे योग का प्रथम शब्द है और यही अन्तिम।"
 संत कबीर ने सत्य ही कहा है-
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंप दियाक्या लागे है मोर॥  (कबीर-1)
वो सावित्री में लिखते हैं-
"एक पहेली यह जग-जीवनजिसकी कुंजी है भगवान्।
जिसने पाया इस कुंजी केफिर न भटकता वह इन्सान"॥ 
     समर्पण के उपरान्त व्यक्ति की चिन्ताव्यक्ति का भटकाव थमने लगता है। समर्थ सत्ता धीरे-धीरे उसके जीवन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेकर उसका व्यक्तित्व ऊँचा उठाती चली जाती है उसके योगक्षेम का वहन करती है परन्तु यह तभी सत्य होता है जब व्यक्ति स्वयं के जीवन की बागडोर उस मंगलमय भगवान् के हाथ सौंप देता है। आप अपमान व परिस्थितियों से ध्यान हटाकर परमात्मा की प्रेरणा के अनुसार जीवन जीने का प्रयास करता है।
     क्योंकि "जो पूर्ण रूप से प्रभु के होते हैं प्रभु उनके हो जाते हैं" एवं "पूर्ण समर्पित होने पर हम देखते हैंउस स्थिति के आनन्द की समानता संसार की कोई वस्तु नही कर सकती।" व्यक्ति अपनी अल्प शक्ति व सीमित क्षमता के द्वारा कहाँ तक बढ़ेगा कैसे भवसागर पर करेगासाधक को किसी भी मूल्य पर भगवत् कृपा प्राप्त करनी है। साधक के जीवन में भगवत्मंगलमय कृपा को छोड़कर दूसरी कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं होती। जब हम पूरी सच्चाई के साथ विनित भाव में अपनी जीवन नैय्या को इस दिव्य पुरूष के हाथों में छोड़ देते हैतो हमारा जीवनजीवन का हर क्षेत्र आनन्दमय हो जाता है। एक महानता हमारे अन्दर उद्घटित हो जाती है जो जीवन को पूर्णतः दूसरे स्तर पर एक अधिक विशालभव्य एवं माधुरय भरे आध्यात्मिक स्तर पर उठा देती है। एक आलौकिक क्षमता हमें प्रदान की जाती है जो साधना के सौपानों को पार करने मेंजीवन मार्गों में चलने में सहायक होती है। जीवन पुष्प जब प्रभु चरणों में चढ़ जाता है हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है तब प्रभु आदेश पालन ही हमारा जीवन और उसका अर्थ रह जाता है। ऋषि पतंजलि का यह सूत्र साधक के भीतर इन्हीं भावों की उत्पत्ति करता है।
     कुछ व्यक्ति इस बात पर टिप्पणी करते है कि भगवान् ने इस श्लोक में धर्मों को छोड़ने की बात क्यों कही। भगवान् अर्जुन को तरह-तरह के मार्ग समझा रहे हैं अब अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि वह किस पर चले; इस पर वे अर्जुन को धैर्य प्रदान करते हैं कि वो भगवान् को समर्पण कर दे। इससे उसकी अशान्त स्थिति दूर हो जाएगी। शास्त्र कहते हैं धारणात् धर्मः अर्थात् जिसे हम धारण कर सकेंवह धर्म है। धारयत् इति धर्मः अर्थात् जो हमें धारण कर सकेंवह धर्म है। इससे स्पष्ट होता है कि अर्जुन को विभिन्न प्रकार की धारणाओंमत-मतान्तरों में ना उलझने का संकेत किया गया है। आज का प्राणी भी विभिन्न प्रकार के टोने-टोटकोंग्रह-नक्षत्रोंपितृ-दोषोंवास्तु-शास्त्रों देवी-देवताओंमान्यताओं में उलझ कर अपनी शान्ति खराब कर रहा है। इससे बचने का एक ही उपाय हैप्रभु का सिमरणउनको सम्पूर्ण व उन पर विश्वास।
संतोष
      जिन परिस्थितियों में भी हमें रखा गया है जो कुछ हमें दिया गया है उससे हमें संतुष्ट रहना सीखना चाहिए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमें अपनी दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए और इसका यह अर्थ नहीं है भाग्यवादी बनकर हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि जो कुछ है उसका होना अनिवार्य है। नहीं योग का समूचा दृष्टिकोण ही इसके विपरीत है। संतोष का अभिप्राय है- दूसरों की बराबरी करने के लिए उद्विग्नताउत्तेजना और विक्षोभ से अभिभूत न होना। लोग दूसरों से होड़ लगाने के जोश में फंस जाते है। स्पर्धा के द्वारा सफलता की ओर आगे बढ़ने की कोशिश करते है। तो एक आध्यात्मिक जिज्ञासु से कहा गया है कि वह अपनी शक्तियों को व्यर्थ नष्ट न करें। उत्तेजना में स्वयं को खो न देना कुछ उससे मिला है। उसे भगवान् के द्वारा निर्दिष्ट मान कर स्वीकार करें। श्री मां कहती है कि जो साधक इस बात में सच्चे विश्वास के साथ अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करता है कि वे भगवान् के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट है। उसके आध्यात्मिक विकास के लिए वे अवश्य ही सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होती है। अतः जब पतंजलि संतोष की बात कहते हैं तो उनका आशय यही है कि अभावआत्म-हीनताऔर कुढ़-भावना जो सभी चीजें आत्मा को धूमिल कर देती हैं- अपने भीतर नहीं आने देना चाहिए। हमें एक प्रफुल्ल स्वभाव का निर्माण करना चहियेऋ न तो सफलताओं पर हर्षोन्मित होना चाहिए और न असफलताओं पर व्यर्थ ही खिन्न होना चाहिए। सबसे पहले शांत-अचंचल बने रहकर जीवन बिताना हमारे लिए जरूरी है। कोई भी व्यक्ति शुरू से ही संतोष की वृत्ति धारण नहीं कर सकता यह बहुत ही कठिन है पहले हमें किसी हद तक उदासीनता के भाव का विकास करना चाहिए जिसे युनानी लोगों ने तितिक्षा कहा था चाहे कुछ भी आये चला जायेहमें धीर-स्थिर बने रहकर उसकी उपेक्षा करनी होगी। आगे चलकर यह मनोवृत्ति समता या धृत्ति में विकसित हो जाती है। जो कुछ भी होता हैउसे हम अनुद्विग्न रहकर उससे अप्रभावित रहते हुए स्वीकार करते है। यह समता स्थापित होने के बाद अगला चरण है। संतोष।
     जैसा कि हम कह चुके हैं कि प्रड्डति के द्वाराप्रारब्ध के द्वारा परिस्थितियों के द्वारा जो कुछ हमें दिया गया है उसे उदासीन भाव से चुपचाप स्वीकार करना ही नहीं अपितु प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना ही संतोष है। यह संतोष उस चीज का बीज हैजो आगे चलकर एक अविच्छिन्न अह्लाद में अस्तित्व के आनंद में विकसित हो जाता है। जीवन के सभी सुख- दुःखों के पीछे एक हर्षएक परमानंद एक आट्टाद विद्यमान है। संपूर्ण सृष्टि के मूल में यही आनंद मौजूद है। हम अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि के मुकुट मणि के रूप में इस आनंद का अनुभव कर सकते है। किन्तु उसका बीज यह संतोष ही है। यह एक वास्तविक मनःस्थिति है। जिसे स्वयं में स्वाभाविक बनाना हमें सीखना ही चाहिए।
तप
अतप्तततूर्न तदामो अश्नुते ॥ ऋग्वेद  ९.८३.१॥ 

अर्थात तप में तपे बिना कुछ नहीं मिलता।

Sunday, January 12, 2014

साधना समर - पातञ्जल योग दर्शन(अष्टांग योग)-7

अपरिग्रह
     हमें यदि चार रोटी की भूख है तो चार ही पकाएँ तीन खाएँ व एक गायकुत्तेचिडि़या आदि को दें। यह अपरिग्रह है। पाँच साड़ी की आवश्यकता है तो पचास क्यों खरीदते होआपने 45 साड़ी फालतू खरीद कर लगभग एक दर्जन लोगों को वस्त्र रहित कर दिया। इसका पाप कौन भुगतेगाहमें इस या अगले जन्म में इसका दण्ड अवश्य मिलेगा। इतने लोगों का श्रमइतना जल हमने निरर्थक बहा दिया। यज्ञ किया तो लोग पचास बैठे हैं परन्तु कुण्ड नौ बनाएँ। पाँच कुण्डों में क्यों नहीं काम चलायाहवन कुण्ड में अनावश्यक लकड़ी पर लकड़ी ठूस कर धुँआ और बढ़ा दिया। हर जगह यही बरबादीपता नहीं मेरे भारत के लोग कब समझदार होंगेकब इस दिखावे और चकाचैंध की मानसिकता को छोड़ अपरिग्रह का जीवन जीएँगे।
     हम मात्र एक या दो बच्चों का भरण पोषण ठीक से कर सकते हैंउनको संस्कारवान बना सकते हैं। परन्तु चार बच्चे पैदा कर डाले अपनी भी दुर्गति करायी बच्चों की भी दुर्गति। प्रोफेशनल कॅालेजों में देखें तो अनावश्यक report file बनती हैं। बच्चे रातोंरात एक दूसरे की नकल मार सुबह assignments जमा कर देते हैं। अध्यापक को भी पता है परन्तु फिर भी फाइल के नम्बर देने का चलन है। फाइल है नम्बर दिए फाइल को रद्दी में फेंका। दुनिया भर की पत्रिकाएँ बिना पढ़ें रद्दी में जा रही हैं। conferences और proceedings यदि एक हजार छपती हैं तो मुश्किल से 100 ही कोई खोल कर देखता होगा बाकी 900 या तो लोगों की अलमारियों में सजी होती हैं या कबाड़ी के हवाले कर दी जाती हैं। झूठी शान के लिए हम करोड़ों अरबों रूपया बहा देते हैं इसका जिम्मेदार कौनसरकारप्रशासन और देश का हर वह नागरिक जो इसका विरोध नहीं करता।
     कैसी सड़ी मानसिकता है हमारीकिसी ने मुफ्त में कलैण्डर दियाझट ले लियाघर में जगह नहीं है टांगने की। किसी ने मुफ्त में पुस्तक बाँटीदौड़कर ली यह नहीं देखा काम की है या नहींलेकर बैग में डालकर बाबू जी बनकर चलते बने। जहाँ से जो मिले ले लोउचित-अनुचित सब कुछ बटोर लें।
     युग-ऋषि श्रीराम आचार्य’ जी अपने कमरे में पंखा भी नहीं चलाते थे। गाँधी जी ने एक दो धोती में पूरा जीवन गुजार दिया। हमारे साधु-सन्त, ऋषि-मुनि सभी सीमित साधनों में गुजारा करते थे। एक बार गाँधी जी इलाहाबाद में मंजन-कुल्ला कर रहे थेएक व्यक्ति उनके हाथों पर पानी डाल रहा था। व्यक्ति का ध्यान भटका और पानी  उनकें हाथों में अधिक पड़ गया व नीचे गिरने लगा। गाँधी ने उसको टोका कि कार्य ध्यान से करें। उसकी लापरवाही से इतना जल व्यर्थ चला गया। वह व्यक्ति बोला, "बापू आप परेशान न हों यहाँ गंगायमुना दो नदियाँ बहती हैपानी की कोई कमी नहीं है।" गाँधी जी नाराज हुए व बोले, "नदियाँ इसलिए नहीं बहती कि हम तुम मिलकर इनकें जल को बरबाद करें। प्रकृति के संसाधनों का समुचित उपयोग करना सीखोजितना आवश्यक हो उतना लो।" व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास हुआ व क्षमा माँगी।
     आज तो बहुत से साधु-सन्तोंलोकसेवियों का बढि़या मेकअप व मँहगें ब्यूटी पार्लर्स में बालों की setting होती है जिसमें हजारों रूपया लगता है। तत्पश्चात् मंचों पर चढ़कर भोली-भाली जनता को त्याग-तपस्या का उपदेश दिया जाता है। इसीलिए किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अभी तो उस परमब्रह्म ने बड़े चोर व ढ़ोंगी पकड़े हैं परन्तु आने वाले समय में छोटे चोर भी पकड़े जाएँगे। जिस-जिस के पाप का घड़ा भरता रहेगा उसको जनता छोड़ेगी नहीं। जिस दिन जनता जाग गयी उस दिन सबसे पहले ढ़ोगियों की बोटी-बोटी नोच लेगी। अरे चमड़े के इस शरीर पर गुमान करता है इसके लिए मरता खपता है इसको सजाने संवारने में ही उलझा रहता है किसी ने कहा है-
     "हम वासी उस देश के जहाँ परमब्रह्म का खेल"
     परमब्रह्म की ऊँची सोच रखने वाला मेरा यह भारत कैसे चमड़े के खेल में उलझ गयायुग-ऋषि श्रीराम आचार्य’ जी कार्यकर्ताओं के बढ़ते अहं को देखकर कई बार बड़े नाराज होते थे। एक बार उन्होंने मानव का पूरा कंकाल मंगवाया। शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में स्वयं को पहचानने के लिए पाँच दर्पण लगे है उन पर लिखा है  अंह ब्रह्मस्मि’, ‘अयमात्मा परमब्रह्म’ ‘तत्वमसि’ ‘सोऽहम्’ ‘शिवोऽहम्
     जिससे व्यक्ति अपने आत्मरूप कोशिव स्वरूप को पहचाने। उन्होंने कहा पाँचों दर्पणों के साथ यह कंकाल भी टाँग दो ताकि व्यक्ति को यह भी पता चले कि जिस शरीर के लिए वह अनमोल मानव जीवन गंवा देता है उसकी असलियत क्या हैसुनते है कुछ दिन वह कंकाल टंगा रहा तत्पश्चात् उतार दिया गया। उसको देखकर कुछ महिलाएँ व बच्चे डर गए थे।
     एक बार राजा जनक की सभा में महातपस्वी अष्टावक्र पधारें। राजा जनक विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। अष्टावक्र जी आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर लिए घूमते थे। उनको दरबार में आता देख राजा के सभासदों को उनके विचित्र शरीर पर हँसी आ गई। अष्टावक्र जी भी जोर-जोर से हँसने लगे एवं राजा जनक से बोले आप जैसे ज्ञानी राजा के दरबार में कोई तो विद्वान होगा परन्तु यहाँ तो सभी चर्मकार भरें पड़े हैं। जो केवल शरीर के चमड़े को देखते हैं आत्मा की महानता को नहीं। ऋषि की गम्भीर वाणी सुनकर सभी सभासद लज्जित हुए और ऋषि के चरणों में गिर कर माँफी माँगने लगे। अष्टावक्र जी के ब्रह्मज्ञान का अमृत पा राजा जनक विदेह हो गए अर्थात् शरीर की भौतिक सीमा से ऊपर उठ कर परमब्रह्म में लीन रहने लगे।
     आत्मज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान की इस परकाष्ठा तक पहुँचने के लिए आत्मा को प्रधानता देनी होगी। यदि हम शरीर व उससे सम्बिंधित चीजों की ही चिन्ता करते रहे तो हम आत्म-कल्याण के इस अनमोल अवसर से वंचित रह जाएँगे। शरीर निर्वाह के लिए साधनों का समुचित उपयोग व अधिक संग्रह की वृत्ति का परित्याग यही सन्देश देते है।
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अस्तेय
अपने खून-पसीने की कमाई से धन कमाना एवं मुक्तखोरीकामचोरी और रिश्वतखोरी को न अपनाना
यह सन्देश देता है ऋषि पतंजलि का अस्तेय का सूत्रः-
हमारे शास्त्रों में तीन महत्वपूर्ण सूत्र देखने को मिलते हैं।
1. आत्मवत् सर्वभुवेषु-सबको अपनी आत्मा के समान समझो।
2. मातृवत् पर्दावेषु- अर्थात् अपनी पत्नी को पवित्र अन्य सभी को माँ के रूप में देखों।
3. लोस्थवत् परद्रव्येषु-अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझों।
     हम किसी के धन पर बुरी दृष्टि ना जमाएँधन के उपार्जन में अनैतिक न हो जो कुछ परमात्मा ने हमें दिया हैउसी में सन्तोष करना सीखें। आज समाज में व्यक्ति दूसरों को देखकर ईष्र्या अथवा प्रतिद्वन्दिता करने लगता है यदि पड़ौस की औरत कोई आभूषण खरीद के लाई है तो हमारे पास भी वह आभूषण होना चाहिए। यदि पड़ौसी ने बड़ी गाड़ी खरीदी है तो हमारे पास भी बड़ी गाड़ी होनी चाहिए। चाहें मुझे उसकी आवश्यकता हो या न होचाहे मेरी सामथ्र्य उतनी हो या न होऋ फिर व्यक्ति उस चक्कर में उल्टे-सीधे तरीकों से धन कमाने की कोशिश करता है व अपना सुखचैनस्वास्थ्य सब कुछ खो बैठता है पता नहीं वह गाड़ी व आभूषण व्यक्ति को सुख दे पाएगी या नहीं परन्तु उसकी प्राप्ति के लिए जो कलह-क्लेश उत्पन्न होता है उससे उसके जीवन की शान्ति जरूर चली जाती है।
     भारतीय समाज में यह समस्या हर जगह व्याप्त है। सामाजिक संस्थाओं में बड़े-बड़े पदों को अपनाने के लिए लोगों में खूब छीना-छपटीमारपीट तक होती है। लोग हर प्रकार हथकंड़े अपना कर बड़े पदों को हथियाना चाहते है। दूसरे के हक को न मारे; अपने आप को व्यर्थ में प्रदर्शित न करेंपैसे की दौड़ में न दौड़ेबल्कि परिश्रम और सेवा का रास्ता अपना कर आत्म-सन्तोष के साथ प्रसन्न मन से जीवन जीएँ यही भावना इस सूत्र में।  किसी ने सत्य ही कहा है-
गोधनगजधनबाजीधन और रत्नधन खान।
जब आवें सन्तोष धनसब धन धूरी समान।। 
श्वास
     श्वास की डोर से जीवन की माला गुँथी है। जिंदगी का हर फूल इससे जुड़ा और इसी में पिरोया है। श्वासों की लय और लहरें इन्हें मुस्कराहटें देती हैं। इनमें व्यतिरेकव्यवधानबाधाएँ-विरोध और गतिरोध होने लगे तो सब कुछ अनायास ही मुरझाने और मरने लगता है। शरीर हो या मनदोनों ही श्वासों की लय से लयबद्ध  होते हैं। इसकी लहरें ही इन्हें सींचती हैंजीवन देती हैं; यहाँ तक कि सर्वथा मुक्त एवं सर्वव्यापी आत्मा का प्रकाश भी श्वासों की डोर के सहारे ही जीवन में उतरता है।
     श्वासों की लय बदलते ही जीवन के रंग-रूप अनायास ही बदलने लगते हैं। क्रोधघृणाकरुणावैरराग-द्वेषईष्र्या-अनुराग प्रकारांतर से श्वास की लय की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही है; यह बात कहने-सुनने की नहींअनुभव करने की है। यदि महीने भर की सभी भावदशाओं एवं अवस्थाओं का चार्ट बनाया जाए तो जरूर पता चल जाएगा कि श्वास की कौन सी लय हमें शांति व विश्रांति देती है। किस लय में मौनशांतऔर सुव्यवस्थित होने का अनुभव होता हैकिस लय के साथ अनायास ही जीवन में आनंद घुलने लगता हैध्यान और समाधि भी श्वासों की लय की परिवर्तनशीलता ही है।

     श्वास की गति वलय को जागरूक हो परिवर्तित करने की कला ही तो प्राणायाम है। यह मानव द्वारा की गई अब तक की सभी खोजों में महानतम है; यहाँ तक कि चाँद और मंगल ग्रह पर मनुष्य के पहुँच जाने से भी महान; क्योंकि शरीर से मनुष्य कहीं भी जा पहुँचेवह जस का तस रहता हैपरंतु श्वास की लय के परिवर्तन से तो उसका जीवन ही बदल जाता है। हालाँकि यह लय परिवर्तन होना चाहिए आंतरिक होशपूर्वकजो प्राणायाम की किसी बँधी-बँधाई विधि द्वारा संभव नहीं है। यदि विधि ही खोजनी हो तो प्रत्येक श्वास के साथ होशपूर्वक रहना होगा और साथ ही श्वास-श्वास के साथ भगवन्नााम के जप का अभ्यास करना होगा। ऐसा हो तो श्वासों की लय के साथ जीवन की लय बदल जाती है।