1. नकारात्मकता
का परित्याग:- शायद ही कोर्इ ऐसा साधक आया हो जिसके जीवन में समस्याएँ न आयी हो,
जिसने मुसीबतों का सामना न किया हो, जिसका उपहास न उड़ाया जाता हो परन्तु इसके
बावजूद भी साधक से यह आशा की जाती है कि वह अपनी सदभावना न छोड़े। साधक धैर्यवान,
गम्भीर, व समत्व के भावों से स्वयं के व्यक्तित्व का निर्माण करें। छोटी-छोटी
बातों में यदि वह आवेश में आएगा अथवा अपनी साधना की ऊर्जा को खर्च करने लगेगा तो
उसकी साधना को negative direction में जाने में देर न लगेगी। स्थिति क्या हो सकती
है इसका आंकलन इस छोटी घटना से किया जा सकता है।
एक बार एक दुष्ट व्यक्ति एक उच्च स्तरीय साधक
को तंग करता था। साधक स्वयं पर संयम रखने का प्रयास करता रहता था। परन्तु एक बार
जब साधक तीन घंटे जप करने के उपरान्त घूमने निकला तो वह दुष्ट व्यक्ति सामने आकर
कुछ-कुछ उल्टा सीधा बोलने लगा। साधक का मूड़ किसी कारणवश घर से ही खराब था। आज
उसकी सहन सीमा पार हो गयी उसने दुष्ट को श्राप दे दिया ‘जा तुझे राक्षस योनि
मिलें’। वह दुष्ट तुरन्त ही राक्षस बन गया। राक्षस बनते ही सर्वप्रथम उसने साधक पर
आक्रमण किया व साधक को मार डाला।
यह कहानी एक अंलकारिक चित्रण भी हो सकती है।
परन्तु यह एक गहरा मर्म व्यक्ति को दे जाती है। यदि साधक ने अपनी ऊर्जा का Negative प्रयोग किया तो कुछ समय पश्चात् वह उसके लिए विनाशकारी सिद्ध होगी।
‘सदभावना हम सबमें जगा दो, पावन बना दो हे
देव सविता’ साधक यह प्रार्थना करें व मनोभूमि बना रखें कि उसका अन्त:करण सदभावों से सदा पूरित रहें।
परम पिता परमात्मा की इस जगत में सभी
सन्तानें हैं कुछ लायक हैं कुछ नालायक हैं यह हमारा प्रारब्ध है कि वो हमें किस
प्रकार की संगत प्रदान करते हैं। लेकिन हैं सभी हमारे भार्इ बहिन। जैसे-जैसे हमारे
प्रारब्धों का बोझ हल्का होगा हमें बहुत प्रेम करने वाले परिजन मिलने मिलेंगे व
हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।
परन्तु एक कठिन पड़ाव हमें ऐसा मिल सकता है
जिसमें हम अपने को सहज महसूस न कर पाएँ। आस पास ऐसे व्यक्तियों का संग हो जो हमारे
लिए दु:खदायी हो व हमें परेशान करता रहता हो। परन्तु इस पड़ाव को पार करने के
उपरान्त एक सुखद आनन्ददायक पड़ाव भी पड़ता है जिसे पाकर साधक निहाल हो जाता है।
सावधानी दोनों जगह रखनी है। कष्टदायक परिस्थितियों में हम घृणा, निराशा में न जा
फँसे व आनन्ददायक स्थिति में हम भोग विलास में न डूब जाएँ। अपना विवेक वैराग्य व
परमात्मा की कृपा दोनों मिलकर हमें सही मार्ग पर चला सकते है।
2. अन्त समय तक सावधानी:- साधक कर्इ बार कुछ विषयों में परंपरागत हो जाता है व अनेक बातों में लापरवाह हो सकता है। परन्तु कर्इ बार नियमों का उल्लंघन उसके लिए घातक भी सिद्ध हो सकता है। जैसे-जैसे व्यक्ति ऊपर उठता है उसके पतन के अवसर भी उतने ही बढ़ जाते है।
शास्त्र
व महापुरुष इस विषय में प्रस्तुत करते है- (युगगीता डा. प्रणव से ली)
मनु
कहते है-
मात्रा
स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो
विद्वांसमपि कर्षति ॥ -मनुस्मृति
(गरुडपुराण/आचारकाण्ड:/अध्याय:
1, 114.6)
अर्थात्- "मनुष्य को चाहिए कि वह माता, बहिन और अपनी लड़की के विषय में भी सावधान रहे,
क्योंकि इंद्रियाँ बलवान् होती हैं और मौका पड़ने पर विद्वान् को भी खींच ले जाती
है।"
गीता कहती है कि एक साधक स्तर का व्यक्ति
संभव है कि इंद्रियों को विषयों से हटा ले, पर वे मन पर हमला न कर दें, इसलिए उसे
सूक्ष्म इंद्रिय निग्रह में निष्णात होना चाहिए। अगले श्लोक में भगवान् कहते है-
तानि
सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशे हि
यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित ॥ (2/61)
अर्थात्- "इसलिए हर साधक के लिए अभीष्ट है कि
वह इन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हो मरे परायण होकर ध्यान में
बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती
है।"
भगवान् श्रीकृष्णा कहते हैं-
इन्द्रियाणां
हि चरतां यन्मनोअनुविधीयते।
तदस्य
हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ (2/67)
अर्थात् "जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुर्इ
इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त
पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।"
यह
श्लोक कर्इ मायनों में विशिष्ट है। संत ज्ञानेश्वर कहते हैं- यह श्लोक खतरे की
घंटी का सूचक है। बताया गया है कि मनुष्य भले ही लगभग स्थितप्रज्ञ हो गया हो, तो
भी उसे असावधान नहीं रहना चाहिए। वे लिखते है:-
प्राप्ते
हि पुरुषे इंद्रियें लालिलीं जरी कवतिकें।
तरी
आक्रमिला जाण दु:खें सांसारिकें ॥
मराठी में वर्णित इस कथन का भावार्थ है कि "पहँुचा हुआ पुरुष (आप्त पुरुष) भी यदि कुतूहल से इंद्रियों को दुलराए तो उस पर
प्रापंचिक दु:खों का आक्रमण हुआ ही समझों।"
विहाय
कामान्य: सर्वान्पुमांश्रचरती नि:स्पृह:।
निर्ममो
निरअहँकार : स शान्तिमधिगच्छति ॥
अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर
ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है
एवं स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
अगले
श्लोक में भगवान् कहते हैं-
दु:खेष्वनुद्विग्नमना:
सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध:
स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (2/56)
अर्थात् दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन
में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग,
भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। दु:खों के कारण तो
कर्इ आते हैं, पर उन्हें स्थितप्रज्ञ सहन कर लेता है, उद्विग्र नहीं होता। उसे सुख
की कामना भी नहीं होती। सुख पाने की आकांक्षा में वह उद्विग्र भी नहीं होता। वह
वीतराग हो जाता है। स्वयं को राग, भय, क्रोध से परे चलकर अपनी मन: स्थिति उच्चस्तर
की बना लेता है। हम जैसे सामान्य व्यक्ति सुखों की इच्छा बराबर बनाए रखते हैं,
दु:ख में परेशान हो जाते हैं। यही हममें व स्थितप्रज्ञ में सबसे बड़ा अंतर है।
परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि दु:ख को तप बना लो एवं सुख को योग बना लो।
य:
सर्वत्रानभिस्न्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति
न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (2/57)
अर्थात् जो पुरुष स्नेहरहित होकर उस शुभ या
अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर
है। इसी प्रकार अगले श्लोक में एक महत्वपूर्ण बात भगवान् के श्रीमुख से निकलती है-
यदा
संहरते चायं कूर्मोअंगानीव सर्वश:।
इंद्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (2/58)
अर्थात् "कछुआ सब ओर से अपने अंगों को जैसे
समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार
से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)।"
3. अहंकार
रहित मर्यादापूर्ण आचरण:- साधक सदा अहंकार रहित होकर मर्यादापूर्ण आचरण करे।
अधिकतर यह देखा जाता है कि व्यक्ति के पास कोर्इ प्रतिभा अथवा सिद्धि साधना से आयी
तो उसका अहंकार जगना शुरू हो जाता है। जैसे ही अहंकार का द्वार खुलता है negative energy का आगमन होने लगता है। एक कठिनार्इ और आती है साधक कर्इ बार स्वाभिमान की
आड़ में अहंकार की फसल बोने लगता है। परन्तु यदि साधक सावधान है व परमात्मा के
द्वारा उसकी बुद्धि प्रेरित है (धियो यो न: प्रचोदयात् ) तो उसको इन बारिकियों में
अन्तर नजर आ जाता है।
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