व्यक्ति में छोटी-छोटी बातों को लेकर
अहंकार पैदा होने लगता है अपने को ऊँचा दिखाने की भावना का उदय होने लगता है अपनी
प्रंशसा के लिए व्यक्ति बैचेन हो उठता है यदि किसी को कोर्इ पद मिल जाए तो फूले
नहीं समाता। परन्तु गीता कहती है-समत्वं योग उच्यते अर्थात् समता में जिओं।
परमात्मा ने पूर्ण किसी को नहीं बनाया अत: सम रहकर पूर्णता के लिए प्रयास करो। हम
सभी उसी परमब्रह्म का अंश हैं उसी की सन्तान हैं यहाँ हरेक की अपनी कोर्इ न कोर्इ
विशेषता है तो कोर्इ न कोर्इ कमी भी है। कोर्इ अच्छा पढ़ सकता है। तो कोर्इ अच्छा
खेल सकता है, कोर्इ अच्छा गा सकता है तो किसी का
स्वास्थ्य बढ़िया है। आप अच्छे बुद्धिमान है पर स्वास्थ्य चौपट तो उस बुद्धि का क्या
लाभ जिससे आप अपने को स्वस्थ भी नहीं रख पाएँ। अच्छा हो हम सब हिल मिल एक दूसरे का
आदर सहयोग कर सकें। जो उथला है वही डीगें हाँकता है जो गहरा है वह शान्त रहता है।
एक बार मानव ने कुत्ते से कहा, ओ कुत्ते तू
दर-दर की ठोकरें खाता है तेरे पास रहने को भी जगह नहीं तो कुत्ते ने मानव से कहा- " मैं तो बिना वस्त्र के भी रह सकता हूँ, बिना घर के भी रह सकता हूँ। कितना
बड़ा योगी हूँ, तुझे तो शरीर को पालने के लिए ही
इतने आडम्बर करने पड़ते है। तेरे पास बैंक बेलेंस है सब कुछ है पर फिर भी अशान्त
हैं। मैं तो भूखा रहकर भी मस्ती से दौड़ता हूँ। कुछ न होते हुए भी गली का राजा हूँ। तेरे पास सब कुछ होते हुए भी तू इन साधनों का गुलाम है।" मानव ने सोचा इतना कुछ विकास किया, पर है तो हम इन साधनों के गुलाम, चिन्तित! हाय हमारे पास ेजंजने नहीं
हैं, बढ़िया गाड़ी नहीं है, औलाद सही नहीं है।
मानव के नेत्र खुल गए वास्तव में हम
छोटी-छोटी चीजों में उलझना नहीं चाहिए, गहरी दृष्टि रखें, गीता की दृष्टि रखें। सब कुछ
परमब्रह्म है हर किसी में उसी का अंश है, सब कोर्इ उसी परमब्रह्म का स्वरूप
है, उसी से निकला है, उसी पूर्ण में मिल जाता है। क्यों
व्यर्थ हम एक दूसरे से तुलना करते हैं क्यों व्यर्थ का र्इष्र्या-द्वेष पालते
फिरते हैं। यह सृष्टि उसी परमात्मा की लीला है उसी का रूप है। यदि तू किसी की
सहायता करता है तो बड़ा नहीं हो जाता। वह परमात्मा तुझसे सहायता लेकर तेरे पुण्यों
को बढ़ा रहा है। सारी सृष्टि ही अपना कुटुम्ब है। चेतना के विकास क्रम ;म्अवसनजपवद व िबवदेबपवनेदमेद्ध के
अनुसार हर प्राणी को क्षमताएँ मिलती हैं क्षमताओं के साथ उत्तरदायित्व भी मिलते
हैं।
यदि हमें पिता का उत्तरदायित्व मिला है तो
बच्चों का पालन पोषण करें उनसे प्रेम करें। क्या कभी कोर्इ बाप यह कहता है कि
बच्चा तो कुछ नहीं जानता मैं सब कुछ जानता हूँ नहीं क्योंकि कल यह बच्चा बड़ा होगा
मुझसे भी आगे निकलेगा। चेतना के विकास क्रम में भी यही सि(ान्त चलता है। धीरे-धीरे
करके हर प्राणी सत, रज, तम के बन्धनों से मुक्त होकर
शक्तिमान बन रह रहा है। अपने प्रारब्धों को काटकर उसी परमात्मा की ओर बढ़ रहा है।
इसीलिए स्थित प्रज्ञ व्यक्ति, ज्ञानी व्यक्ति
इन चीजों में सम रहता है क्योंकि उसे असलियत पता है। परन्तु अज्ञानी अहंकार करता
है। दो पैसा अधिक हो गया उसका अहंकार, बच्चा जवच कर गया उसका अंहकार, पद मिला उसका अहंकार। परन्तु ज्ञानी
जानता है प्रारब्धवश यह सब आता भी है जाता भी है, कोर्इ रोग आ गया तो सारा पैसा धरा
रह जाता हैं, खत्म हो जाता है।
अत: इस क्षण भंगुर काया पर कैसा अहंकार।
सेवा कर सेवा, विनम्र बन, गहरा बन, चार दिन के इस जीवन में अहंकार करने
लायक कुछ है ही नहीं। क्यों व्यर्थ अपने आपको प्रतिष्ठित व्यक्ति कहलाने का अहं
पालकर अपनी स्वतन्त्रता को खत्म करता है, लोगों से बचता फिरता है। क्यों
व्यर्थ अपने को बड़ा साधक दिखाता फिरता है, माया का झोंका आता है बड़े-बड़े
साधकों को उड़ा ले जाता है, इतिहास पुराण भरे
पड़े है। अत: यह सब छोड़कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़, पूर्णता की ओर बढ़। अपने अहं को गला
दे, अपनी हस्ती को मिटा दे और अपने आपको
उसी परमब्रह्म में विसखजत कर दे उसी में विलय कर दे। इसी में सच्चा आनन्द है जीवन
की सार्थकता है।
"मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंप दिया, क्या लागे है मोर"
एक बार एक नि:सन्तान महिला लम्बा सफर तय
करके एक सन्त के पास गयी व बेटे की कामना करने लगी। सन्त ने महिला को खाने के लिए
चने दिए। महिला बाहर धूप में बैठकर चने खाने लगी। तभी कुछ छोटे बच्चें वहाँ पहुँचे व महिला की ओर कातर दृष्टि से देखने लगे। महिला उनको अनदेखा करके चने खाती रही।
सन्त दूर से यह दृश्य देख रहे थे। पास जाकर महिला से बोले, "तुम अपने चने इन बच्चों के साथ नहीं
बाँट सकती इतनी स्वार्थी हो तो परमात्मा अपनी झोली से तुम्हें क्यों कुछ देगा।" वास्तव में संकीर्ण मानसिकता व खराब
नीयत वालों को परमात्मा का प्यार नहीं मिलता। उदार हृदय देवात्मा ही इसको पा सकते
है।
No comments:
Post a Comment