जिन साधनाओं के बल पर अपने पूर्वजों ने
आध्यात्मिक उन्नति की व अपने आपको इतना महान बनाया उनको हम कैसे अपना सकते हैं; उनमे हम कैसे सफल हो सकते हैं इसका विश्लेषण करना ही इस पुस्तक का मूलभूत प्रयोजन
है। दिव्यदृष्टा कहते हैं कि धरती एक नए आयाम की ओर मुड़ चुकी है। इससे लोगों में
बड़े पैमाने पर साधनाओं के लिए आकर्षण व दबाव बनेगा। श्री अरविन्द सन् 1926 से एक कमरे तक सीमित हो गए थे और
उन्होंने जीवन के अन्तिम 24 वर्ष अतिमानस के
अवतरण के लिए कठोर तप किया। श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ जी ने 1926 से गायत्री के 24 महापुरुश्चरण, जौ की रोटी पर निर्वाह करके 24 लाख उच्च स्तरीय साधकों (ब्रह्मकमल) के निर्माण का संकल्प
लिया व उसके द्वारा एक करोड़ लोगों की ऐसी टीम बनाने की सोची जो कि सम्पूर्ण विश्व
में सतयुगी वातावरण लाने में समर्थ होगी। समय बहुत उथल-पुथल भरा चला रहा है। आसुरी
शक्तियाँ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पूरा जोर मार रही हैं। लोगों के
कु:संस्कारों का लाभ उठाकर अनीति, अन्याय, वासना व घृणा का नंगा नाच मचा रही
हैं। दूसरी ओर इसके विरुद्ध देवसत्ताएँ श्रेष्ठ आत्माओं का एक ऐसा संगठन खड़ा करना
चाहती हैं जो इस धरती को उज्ज्वल भविष्य प्रदान कर सकें। जिनका विवेक जागृत हैं वो
सजग होकर अपने कु:संस्कारों, परिस्थितियों व
प्रारब्धों से जूझ रहे हैं व परमात्मा का प्रकाश पाने के लिए तड़प रहे हैं।
आध्यात्मिक साधनाओं के दो पक्ष हैं- प्रथम
पक्ष जिसमें व्यक्ति स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है अपने कु:संस्कारों, प्रारब्धों को काटने के लिए संघर्ष
करता है। इसको गायत्री कहा जाता है। दूसरा पक्ष है शक्ति जागरण का। जब व्यक्ति की
पात्रता थोड़ी विकसित हो जाती है, ऐसी अवस्था में
वह भाँति-भाँति की शक्तियों को जाग्रत करने व उनको सम्भालनें की कला सीखता है। इस
पक्ष को सावित्री कहा जाता है। युग-ऋषि श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ जी ने साधना के पहले पक्ष को दुनिया
के सामने रखा व गायत्री परिवार की स्थापना की। अभी तक दूसरा पक्ष गोपनीय रहा है।
समय आ रहा है, यह दूसरा पक्ष भी सुपात्रों के
सामने प्रकट होना चाहता है। जिससे व्यक्ति, दिव्य शक्तियों के अर्जन द्वारा
स्वयं को महामानवों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर सके एवं युग परिवर्तन के कार्य में
तेजी आए। ऐसे ही व्यक्ति मानव जीवन को धन्य बना सकेंगे व नव जागरण की मशाल के वाहक
बनकर अपना नाम इतिहास में रोशन करेंगे।
आचार्य जी अपने जीवन के अन्तिम चरण में
व्यथित थे। उन्हें कोर्इ ऐसा योग्य उत्तराधिकारी नहीं मिल पाया जिसको वो जाने से
पहले इस सारे ज्ञान विज्ञान से अवगत करा सकते। अत: साधनाओं को सरल बनाने व
सुपात्रों को देने के लिए आज भी देवसत्ताएँ व्याकुल हैं। शीघ्र ही समर्थ साधकों का
एक ऐसा समूह उभरने जा रहा है जो राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने जीवन की आहुति समर्पित करेगा व अपना देश भारत ‘विश्वामित्र‘ के गरिमामय पद से सुशोभित होगा।
हिमालय की देवसत्ताओं से निवेदन है कि हमारी पात्रता इतनी विकसित हो कि यह जीवन
व्यर्थ न चला जाए। अर्जुन के समान हम आपसे निवेदन करते हैं-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छे्रय: स्याéिाितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्ते•हं शाधि मां त्वां प्रपन्नं॥ (2/7)
अर्थात् "कायरता रूपी दोष से उपहत स्वभाव
वाले तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित
कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, एवं आपकी शरण में हूँ मुझको शिक्षा
दीजिए।"
आज पूरे विश्व में महाभारत जैसी स्थिति
बनती प्रतीत हो रही है। अच्छार्इ और बुरार्इ दोनों तेजी से बढ़ रही हैं। एक ओर कथा
कीर्तन, नाम, जप, योग, हीलिंग, ध्यान, विपश्यना, भ्रष्टाचार उन्मूलन, गौ संरक्षण, नैतिक क्रान्ति, उज्ज्वल भविष्य, सतयुग की वापसी का हल्ला समाज में
बढ़ रहा है। इसके लिए बहुत सी संस्थाएँ व महापुरुष जैसे गायत्री परिवार, इस्कॉन, दिव्य ज्योति जाग्रति, राधा स्वामी, श्री श्री रविशंकर जी, बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदि
साधुवाद के पात्र हैं। यदि हम इन संस्थाओं के क्रियाकलापों का अध्ययन करें तो बड़ा
आश्चर्य होता है कि कैसे एक संस्था इतने बड़े-बड़े कार्य करने में समर्थ है।
निश्चित रूप से इनके पीछे कोर्इ र्इश्वरीय चेतना कार्य कर रही है।
दूसरी ओर यदि समाचार पत्र, मीडिया को देखें तो लगता है कि चारो
और गन्दगी ही गन्दगी फैली है। माँ बेटे, पिता-पुत्री, भार्इ-बहन, पति-पत्नी के रिश्ते नाते भोग विलास
व धन के प्रभाव में आकर अत्यधिक स्वार्थपूर्ण व मर्यादाहीन होते जा रहे हैं। समाज
में फैला अविश्वास, भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, लिंगभेद, प्रदूषण, निम्न कोटि का पहनावा, गलत खान-पान, बढ़ती अश्लीलता को देखकर लगता है कि
क्या आने वाले वर्षों में धरती पर जीवन का अस्तित्व बचेगा? कहीं कहीं सन्तों, सिद्ध पुरुषों का वेश धारण किए लोगों ने
इतने शर्मनाक कार्य कर डाले कि जिन लोगों ने उनको परमात्मा तुल्य मानकर अपना
सर्वस्व अर्पित किया उनकी भावनाओं को तार-तार कर दिया। परन्तु इनके कुछ अच्छे पहलू हैं कि आज के समय में लोग किसी व्यक्ति पर श्रद्धा न जमाएँ अन्यथा देवता की खाल ओढ़े
कौन भेड़िया टकरा जाए यह कहा नहीं जा सकता। हम आदर्शों से प्रेम करें, साधना के पथ पर चलें, जन कल्याण की भावना से कार्य करें
लेकिन व्यक्ति को जाँच परख कर ही उस पर श्रद्धा टिकाएँ अन्यथा पश्चाताप हो सकता है।
प्रसंग चल रहा था कि आसुरी और देवी दोनों सत्ताएँ अपना-अपना पूरा जोर लगा रही हैं।
जो असुर स्वार्थवश भेष बदलकर देव टोली में घुस आए हैं परमात्मा उनका पर्दाफाश कर
रहा है। कहीं पर भगवान् असुरों को कमजोर करने के लिए उन्हें आपस में ही लड़ा रहा
है।
यदि कोर्इ हमसे पूछे कि साधक कौन है तो
इसका उत्तर मैं अंग्रेजी में देना पसन्द करूँगा “One who has divine connectivity", जो देवत्व से जुड़ा है वह साधक है। परमब्रह्म परमात्मा तक पहुचने से पहले साधक को लम्बे समय देवत्व से जुड़ कर ओजस, तेजस, एवं वर्चस को धारण करने में स्वयं
को समर्थ बनाना होता है। इसके लिए सदाचार, सदभावना व संयम को दृढ़ता से
अपनाना होता है। अन्यथा किसी भी छिद्र (विकार) से ऊर्जा का क्षरण
प्रारम्भ हो जाता है व साधक का परिश्रम उसे लक्ष्य तक नहीं पहुँचता। आत्म
निरीक्षण द्वारा अभ्यास करते-करते इन छिद्रों को बन्द करना होता है। धैर्यपूर्वक, विवेकपूर्वक अपने लक्ष्य के लिए
पूर्ण मनोयोग से जुटे रहना होता है। पथ में बाधाएँ बहुत हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नातेदार, मित्र, आस-पास का वातावरण, व्यक्ति के अपने प्रारब्ध, उसका व्यक्तित्व व रोजगार बहुत तरह
की समस्याएँ साधना को प्रभावित करती हैं। इन सभी का हल ढूंढना होता है। यदि साधना
में अधिक समय दिया तो घर का खर्चा कैसे चलेगा, बच्चों की देखभाल कैसे होगी आदि
अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। यदि विवाह न करें तो वासनाएँ एक से बढ़कर एक रूप
धरकर व्यक्ति को हैरान करती हैं। परन्तु एक समय ऐसा आता है जब सब कुछ ठीक होने
लगता है। साधक सब कुछ निभाने करने में सक्षम हो जाता है। उसका अन्तर्मन परमात्मा
के प्यार में लीन होने लगता है तथा बहिरमन से वह अपने कर्त्तव्य उचित प्रकार करने
लगता है। परन्तु यह सब कुछ साधने में समय लगता है, परमात्मा की कृपा से सम्भव हो जाता है।
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