Monday, January 6, 2014

साधना समर ( साधना मार्ग का चयन -2)

     कहने का अर्थ है कि जो आत्माएँ संवेदनशील हैं देव वर्ग की हैं उनके चक्र जागृत व खुले होते हैं उनके चक्रों से ऊर्जा चूसना आसान होता हैं। सामान्य बच्चा प्राणवान होते हुए भी चक्र जागृत न होने के कारण चक्रों से ऊर्जा का आवागमन कम होता है इस कारण ऊर्जा को चूसना बहुत कठिन हो जाता है। एक और उदाहरण यहाँ देना उचित रहेगा। एक बार हम शान्तिकुँज आश्रम में एक बहुत पुराने व अनुभवी कार्यकर्ता से कुछ चर्चा कर रहे थे। मैंने जिज्ञासवश उनसे प्रश्न किया कि हम 1991 से देवस्थापना कार्यक्रम घर-घर में कर रहे हैं क्या देवात्माएँ आयी नहीं अथवा आयी तो अपने स्वरूप में नहीं उभर पायी। क्या कारण रहा? उन्होंने तपाक से उत्तर दिया, ßकि देवआत्मायें आयीं और आकर चली गयीं अर्थात् अपनी आयु पूरी न कर बीच में परलोक सिधार गयी।Þ यह उत्तर सुनकर मैं दु:ख और अचम्भे के मारे कुछ आगे कह-सुन न सका। बाद में मैंने इस पर काफी मन्थन किया तो कुछ तथ्य उभर कर सामने आएँ जो बहुत ही कष्टदायी है। देवआत्मा ने मान लीजिए गायत्री परिवार के हम जैसे कार्यकर्त्ताओं के घर जन्म लिया। हम लोग अक्सर एक प्रकार की खींचातानी व समहचनससपदह का आवरण ;ंनतंद्ध अपने चारों ओर चाहे अनचाहे उत्पन्न कर लेते हैं। हमारे भीतर इस प्रकार के मानों का उदय हो जाता हैं कि दूसरा उससे अच्छा प्रवचन न कर पाए, दूसरा मुझसे अच्छी कथा न कहे, मुझसे अच्छा साधक न बने, दूसरा मेरी गद्दी तक न पहँुच पाए इससे एक प्रकार की दमहंजपअम मदमतहल हमारे चारों बढ़ने लगती है। हम तो बड़े हैं उसे सहते रहते हैं परन्तु हमारी मासूस सन्तान जो उच्च संवेदनशील आत्मा है उसके घेरे में आ जाती है। इस गलत ऊर्जा के प्रभाव से बच्चे का जीवन संकट में पड़ जाता है यदि वह जीवित रहता है तो भी अपनी प्रतिभा से हाथ धो बैठता है। सामान्य जनों के साथ ऐसा नहीं होता विभिन्न विभागों में लोग एक दूसरे की खींचातानी करते हैं परन्तु उनकी सन्तानें देव आत्माएँ नहीं होती इस कारण दमहंजपअम मदमतहल का उन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
     यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि देवात्मा अधिक संवेदनशील होती है व उस पर दमहंजपअम व चवेपजपअम दोनों ही ऊर्जाओं का बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि देवात्माओं को थोड़ा सा भी दिव्य वातावरण मिलें तो वे शक्ति का भण्डार अपने भीतर भरने लगती हैं व उनकी हतवूजी ;वृ(िद्ध बहुत तेजी से होती है।
     साधक को जो सही लगे, जो उसकी आत्मा कहे उसी अनुसार चले। जब मैं युवा था तो संगति के दोस्तों को अश्लील बातें करने की आदत थी। मैं वहाँ से कट लिया करता था। मेरे साथी इसका कारण पूछते तो मै कहता इन बातों से मुझे भटकने व पतन का भय रहता है। इस पर वो कहते आप तो योगी हैं फिर भी आप पर इनका प्रभाव पड़ता है। इस पर मै हँस कर कहता कि योगी तो आप लोग है जो ेउवापदह करते हैं, नशा करते हैं, सब प्रकार की बातें करते हैं फिर भी मस्ती भरा जीवन जी रहे हों। सामान्य युवा अश्लील फिल्में देखते हैं सब कुछ करते हैं वो फिर भी अपना कैरियर अच्छा बना ले जाते हैं। परन्तु साधना करने वाले युवा पर वासना का नशा अधिक हावी होने का भय रहता है क्योंकि उसकी चेतना अधिक संवेदनशील होती है। यह ठीक इस प्रकार है जैसे राम बोला का विवाह हुआ तो वह अपनी पत्नी के मोह में इतने फँसे कि एक रात भी उसके बिना नहीं रह पाए। वह मायके गयी तो रात्रि में ही उसके मायके पहँुच गए। उसकी पत्नी ने झिड़का कि मेरे हाड माँस के इस देह से इतना प्यार करते हो अरे इतना प्यार यदि प्रभु श्री राम से करते तो हम सबका उ(ार हो गया होता। बात चुभ गयी उल्टे पाँव वापिस लोटे तो काम के स्थान पर राम हावी होने लगा। वही राम बोला महान सन्त गोस्वामी तुलसीदास के नाम से सदा के लिए अमर हो गए। इसी प्रकार विवाहित दम्पत्ति यदि साधक स्तर के हैं तो यदि उन्हें अलग-अलग बैड पर सोना अनुकूल लगे तो वैसा ही करें। सामान्य दाम्पत्तियों की नकल न करें अन्यथा नुकसान हो सकता हैं। कर्इ बार पति पत्नी में से एक साधक स्तर का होता है व दूसरा भोगवादी प्रवृति का। ऐसे संयोग में साधक की साधना उभर नही पाती या फिर वह कठोर अनुशासन का पालन करें जैसे अलग कमरे में सोए अन्यथा दूसरे की भोग लालसा साधक के ऊपर हावी होने का भय रहता है।
     चारों ओर भोग विलास का वातावरण होने से साधक को काफी सावधानी रखनी पड़ती है। यहाँ में अपना एक अनुभव बाटना चाहँूगा। हमारे छप्ज् का वातावरण बहुत दूषित है परन्तु मेरा कमरा जहाँ मै अकेला बैठता हँू बड़ा ही दिव्य रहता है उस कमरे में मुझे सदा ऐसा लगता है कि देवशक्तियाँ रहती हैं। पुस्तकों का लेखन, टाइप, भाषा शोधन इसी कमरे में होता है। कमरे में मुझे बड़ी शान्ति व प्रसन्नता महसूस होती है क्योंकि मेरा मन यहाँ अक्सर उच्च भूमि में रहता है। लड़के व लड़कियाँ ;विद्याथ्र्ाीद्ध कमरे में आते रहते हैं क्योंकि मेरे सरल व नम्र स्वभाव से उनको लाभ मिलता है। कुछ गिने चुने विद्याथ्र्ाी ऐसे हैं वो जब भी कमरे में आते हैं मेरी ऊर्जा निम्नगामी हो जाती हैं व मै उनसें बहुत कम बात करके उनको कमरे से जाने के लिए बोलता हँू। कुछ हपतसे ेजनकमदज अधिक बात करना व सम्पर्क बढ़ाने की इच्छुक रहती है परन्तु उन्हें भी टालना पड़ता है। कइर्यो में वासनात्मक भाव अधिक होने से उन्हें सहन करना कठिन हो जाता है। सार यह है कि आप अपना दैनिक जीवन तो जीते है लेकिन यह साधना रूपी बच्चा जो गोदी में पल रहा है इसका हर घड़ी ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी हो जाती है। यह बच्चा भी इतना प्यारा है कि इसको छोड़ते भी है तो जीवन नीरस हो जाता है जो एक बार साधना की उच्च अवस्था में पहँुचा वह वही रहना चाहता है नीचे नहीं आना चाहता।
     नरेन्द्र को स्वामी रामÏष्ण परमहंस यह अद्वितीय रस चखा देते हैं। नरेन्द्र कर्इ दिन तक ध्यान में भाव समाधि का आनन्द ले रहे थे। अब रामÏष्ण से प्रार्थना करते हैं मुझे इसी अवस्था में बने रहने दीजिए। ठाकुर कहते है चाबी उनके पास है पहले माँ का काम करो। हम गायत्री परिजनों में से बहुतों को गुरुसत्ता ने अपने शक्तिपात द्वारा यह मजा चखाया है व हमारी आत्मा सदा इसी स्थिति में रमण करने के लिए प्रयासरत रहती है। देवसत्ताएँ जब शक्तिपात करती हैं तो व्यक्ति कुछ दिनों के लिए परम आनन्द व ध्यान की स्थिति में रहता है। परन्तु कुछ दिन बाद उसके कु:संस्कार अथवा मोह, भय आदि उसको उस स्थिति से नीचे ला पटकते है। अब व्यक्ति पुन: उस स्थिति को पाने के लिए अपने उन कु:सस्कारों से संघर्ष करता है। वह आनन्द उसे अन्यव कहीं नहीं मिलता। जो मजा तुरीयावस्था में है वह किसी कुर्सी अथवा धन अथवा सांसारिक भोग में कहाँ? यह तो वही जानता है जिसने चखा है। मीरा बार्इ जी कहती हैं-’घायल की गति घायल जाणै’ एक जगह कहती हैं-’सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस बिध होय। गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय’। नि:सदेह यह मंजिल तो सूली पर चलने के पश्चात् ही प्राप्त होती है। इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति-कठ. 1.3.14’ अर्थात् घुटे की धार पर चलने के समान है। परन्तु जीवन लक्ष्य को पाने के लिए आनन्द अमृत्व का पान करने के लिए हमें काँटों का पथ स्वीकार है।

     एक साधक को एक सच्चे यो(ा के समान वीर होना चाहिए जो पथ की बाधाओं का निडरता पूर्वक सामना करके आगे बढ़ता चला जाए। एक कायर कैसे मोक्ष रूपी श्रेष्ठ उपहार पा सकता है। परन्तु जो जैसा भी है जहाँ भी है वहाँ से आगे बढ़े परमात्मा की अँगुली पकड़कर आगे बढ़े वो हमारी कमियों को दूर करते चले जाएँगे। हमे इतना आत्मबल मनोबल प्रदान करेंगे कि हम साधना के श्रेष्ठ ओम दिव्य पथ का चयन करने में सक्षम हो सकेंगे। समाज की भेड़-चाल में उलझकर अपने जीवन को बरबाद न करें। यही प्रार्थना कि प्रभु का दिव्य प्रकाश, दिव्य ज्ञान व आनन्द हम अपने अन्त:करण में धारण करते हुए लक्ष्य की मंजिल पर इसी जीवन में पहँुच सकें। 

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