Monday, January 6, 2014

साधना समर (five instructions-2)

     अहंकार बड़ा सूक्ष्म होता है व अपने साधक को उलझाने के लिए तरह-तरह के जाल बुनता है। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे है- एक साधक के बच्चे कर्इ बार बीमार होते थे वो बड़े गर्व से अपने बच्चों के रोगों के ठीक होने में र्इश्वर कृपा का जिक्र करते। कभी-कभी उनके मन में यह अभिमान जगता है कि हम तो साधक है हमें तो र्इश्वर कृपा मिल जाती है। दूसरे सामान्य व्यक्तियों को कृपा क्यों मिले। देवसत्ताओं को उसका यह अभिमान पसन्द नहीं आया व उसके बच्चे बार-बार बीमार पड़ते। इस बात से साधक दु:खी होने लगा। गहरार्इ से विचार करने पर उसे कारण का पता लग गया। अब उसने र्इश्वर कृपा के दर्प को दूर किया। इस जन्म से X साधक है क्या पता Y  पुराने पाँच जन्मों में साधक रहा हों ल को र्इश्वर कृपा क्यों न मिले। साधक अब सबके लिए र्इश्वर की दुआ सच्चे मन से माँगने लगा व सुखी हो गया।
     एक साधक का बच्चा बड़ा प्रतिभाशाली व सद्गुणी था। साधक अक्सर लोगों से कहता कि उसके पुण्य व तप के परिणामस्वरूप उसके ऐसी दिव्य सन्तान मिली है परन्तु परमात्मा को यह मंजूर नहीं था। वह बच्चा धीरे-धीरे अपनी प्रतिभा खोने लगा। साधक ने जब दु:खी होकर इस पर गहरार्इ से विचार किया तो कारण का पता चला। अब वह परमात्मा से यह प्रार्थना करता है, ‘हे परमात्मा मै किसी लायक नहीं हूँ फिर भी कृपा करके आपने जो दिया है उसको आप ही सम्भालिए उसकी रक्षा करिए। जो लायक सन्तान आपने हमें दी है वैसी आप सबको देना।’ धीरे-धीरे करके सब कुछ ठीक होता चला गया।
     कठिनार्इ यह है कि जब इस प्रकार के भाव उदय हो कि मुझे तो मिल जाए दूसरे को न मिलें ताकि मेरा मान सम्मान बढ़ें। यही से व्यक्ति के पतन का मार्ग आरम्भ होता है।
     यही से हम गायत्री मन्त्र की philosophy के विपरीत होने लगते है। गायत्री कहती है कि भगवान् सबको दें, सबको लायक बना सबकी बुद्धि परमात्मा प्रेरित करें। जिसकी बुद्धि, जिसका जीवन परमात्मा से प्रेरित हो जाएगा क्या वो सामान्य रह पाएगा। परमात्मा की प्रेरणा व्यक्ति की प्रतिभा का विकास करेगी। व्यक्ति तेजी से उन्नति करेगा। अभी अहं की सूक्ष्मता को उदाहरणों द्वारा समझाने का प्रयास किया गया। परन्तु वास्तव में असली मार्गदर्शन तो व्यक्ति की अन्तरात्मा स्वयं करती है। गुरुसत्ता कारण में प्रवेश कर गयी है अर्थात् वह शिष्य के अन्त:करण (कारण) में जाकर बढ़ने में समर्थ हैं। जैसे ही गलत भाव आएँगे, व्यक्ति को एक अजीब सी बेचैनी होना प्रारम्भ हो जाएगी। व्यक्ति शीघ्र ही उसकी काट ढूंढेगा अर्थात् उन गलत भावों की जगह उचित भावों को धारण करेगा तभी उसे शान्ति मिलेगी। परन्तु यह सब एक सच्चे शिष्य के साथ ही हो सकता है, एक साधक के साथ ही होता है। इसलिए सच्चा शिष्य गलत आचरण नहीं करेगा क्योंकि उसकी अन्तरात्मा गुरुसत्ता के सम्पर्क के कारण इतनी सशक्त है कि साथ के साथ, हाथ के हाथ उसके गाल पर चाँटा मिलता है। लोग कहते हैं कि दुनिया मजे कर रही है। हम धर्म कर्म साधना करते-करते मर गए फिर भी दु:खी है। जिसका अवचेतन अथवा अन्त:करण जाग्रत है वो गलत नहीं सह पाता। सामान्य व्यक्ति लोभ, अहं में डूबा पड़़ा है पर रामकृष्ण परमहंस जी के भीतर लोभ या संग्रह का विचार आते ही हाथ-पैर मुड़ने (टेढ़े होने) प्रारम्भ हो जाते थे। अत: जो साधना मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते है वो जीवन में कुछ गलत करने का बिल्कुल भी न सोचें। उनकी अन्तरात्मा हंस हो जाती है दूध का दूध, पानी का पानी करके उसके सामने रख देती है। अर्थात् कौन से भाव गड़बड़ है कौन से सही इसका आभास तुरन्त हो जाता है। यदि कु:संस्कारों वश अथवा वातावरण के कारण वो गलत भावों को ग्रहण करने का प्रयास करते है तो शीघ्र ही अन्तरात्मा कठोर दण्ड देने लगती है। सुपर चेतन कोर्इ भी कार्मिक Cycle बनाने के लिए तैयार नहीं है, वेगपूर्वक मोक्ष की ओर आत्म ज्ञान की ओर, ब्रह्मानन्द की ओर साधक को धकेल रहा है।
     सामान्य व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं है उसके ऊपर कर्मो का मैल चढ़ता रहता है। बहुत वर्षो या अगले जन्म में उसका परिणाम फल मिलेगा। परन्तु यदि कभी भी उसकी आत्म जाग गयी तो यह भुगतान कार्य आरम्भ हो जाता है। कुछ चर्चा स्वाभिमान को लेकर भी आवश्यक है एक बार एक अच्छा अंग्रेज व्यक्ति रेल से यात्रा कर रहा था। तभी एक प्लेटफार्म पर छोटी बच्ची छोटी टोकरियाँ लेकर उसके पास बेचने आयी। अंग्रेज ने पूछा, ऐसा क्यों कर रही हो इतनी छोटी उम्र में; उसने बड़े सरल भाव से बताया कि घर में छोटे भार्इ-बहन है माँ-बाप टोकरी बनाते है वह बेचती है नहीं बिकेगी तो शाम के समय सब भूखे रहेंगे। अंग्रेज व्यक्ति मासूम बच्ची को पैसे देता है कि गरीब परिवार की मदद हो जाएगी। बच्ची पैसे लेने से मना कर देती है कि उसे भीख नहीं चाहिए। अंग्रेज़ दंग रह जाता है वह न चाहते हुए भी कुछ टोकरियाँ ले लेता है व बच्ची तभी पैसे लेती है। यह था भारत का स्वाभिमान जो आज नष्ट होता जा रहा है। हम छोटी-छोटी चीजों के लिए अपने बॉस की चापलूसी करते है अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए तरह-तरह के हथकन्डें अपनाते है फिर सोचते है कि हमें ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति हो! यह कैसे सम्भव हैं? साधक के लिए आवश्यक है कि स्वाभिमान जगाए अहंकार को पनपने से रोकें तथा दोनों में अन्तर करना सीखें।
4. मध्यम गति की उपयोगिता:- साधक की साधना में गति का चयन एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिन्दु है। यदि साधक अपनी पात्रता के अनुसार साधना को गति देता है तभी सफल रहता है अन्यथा दुर्गति भी हो सकती है। यह ठीक ऐसा है जैसे यदि कोर्इ व्यक्ति उत्तम स्वास्थ्य हेतु व्यायाम करना चाहे तो उसके लिए कितना व्यायाम करना उपयोगी होगा यह जानना बहुत आवश्यक है। अनेक व्यक्ति व अन्य साधनों के लाभों को पढ़कर सामर्थ्य से बाहर कर बैठते हैं व अनेक कठिनार्इयों में उलझ जाते है कुछ लोगों को जीवन से हाथ धोते भी देखा गया है। यदि हमारी माँसपेशियाँ (Muscles) कमजोर है तो अधिक व्यायाम माँसपेशियों के तोड़ भी सकता है। इसी प्रकार साधना की ऊर्जा को पचाना आसान कार्य नहीं है जो आसानी से पच जाय उतनी साधना की जाए।
     कुछ लोग साधना करते है तो उन्हें जड़ता अथवा निद्रा घेरे लगती है। साधना में तन्द्रा आना तो अच्छा है लेकिन जड़ता आना ठीक नहीं है ऐसे व्यक्ति निष्काम कर्मभोग करके पहले योगी चेतन्यता लाएँ। शरीर के भीतर उपयुक्त ऊर्जा चेतन्य होने से ही आगे साधना में गति पकड़ी जा सकती है। कुछ लोग जोर जबरदस्ती कर ध्यान में बैठने का प्रयास करते है व हाथ पैरों में जड़ता एवं निद्रा के वशीभूत होने लगते है उन्हें ध्यान अधिक नहीं करना चाहिए। कुछ लोग ऊर्जा तो बना लेते है परन्तु उस ऊर्जा से तरह-तरह के आवेशों में उलझकर अपने मन की शान्ति खो देते है। पाठक कृप्या परेशान न हों, आधा एक घण्टा प्रात: एवं सायं ध्यान करना सभी के लिए उत्तम एवं लाभकारी हैं। परन्तु कुछ लोग तीन से छ: घण्टें तक प्रतिदिन ध्यान करना चाहते है। उन्हें करना अच्छा व आनन्दायक भी प्रतीत होता है। किन्तु साथ-साथ अपने दैनिक जीवन में वो उत्तेजनाओं के शिकार होने लगते है। एक तरफ साधना का आनन्द व दूसरी ओर उत्तेजनाओं की कष्टप्रद स्थिति। न छोड़ते बनता न करते बनता। इसका कारण है कि उनमें ज्ञान और विशेष रूप से वैराग्य नहीं आ पाया हैं। कठिनार्इ यह है कि वैराग्य की भीतर से मनोभूमि विकसित करना वर्षों अथवा जन्मों के अभ्यास से ही सम्भव है।
     इस सृष्टि में बहुत तरह की विचित्रताएँ देखने को मिलती है। बहुत से लोग ऊपर से वैरागी दिखते हुए प्रतीत होते हैं परन्तु अन्दर से वासना, तृष्णा में उलझे होते है। इसमें भी दो श्रेणी के लोग होते है। एक सच्चे जो अपनी वासना, तृष्णा से भीतर ही भीतर संघर्ष कर रहे होते है कभी-कभी फिसल भी जाते है। दूसरे वो जो ताकत दिखाने के लिए वैराग्य का ढोंग करते है परन्तु भीतर की वासना तृष्णा को पूरा करने के मौके ढूंढते रहते है। ऐसे भी व्यक्ति होते है जो ऊपर से खाते पीते भोग विलास करते नजर आते है परन्तु भीतर से वैरागी होते हैं। इसका कारण कि पूर्व कर्इ जन्मों से उन्होंने ज्ञान वैराग्य की साधना की है। अब इस जन्म में वो भोग विलास में उलझ गए। यद्यपि ऐसे व्यक्ति जीवन का स्वर्गीय आनन्द लेते है परन्तु अपने अनेक जन्मों के तप के फल को भोग डालते हैं अर्थात् पुरानी कमार्इ खर्च कर डालते है। यह ठीक ऐसी ही है कि यदि अच्छा पाचन शक्ति वाला व्यक्ति दूध, घी, मलार्इ खा रहा है व ताकतवर बन रहा है। उसे देखकर एक दुर्बल पाचन शक्ति वाला व्यक्ति भी उसकी नकल करना चाहता है तो उसको दस्त लग जाते हैं व बीमार हो जाता है। ऐसे में अल्प बुद्धि  के व्यक्ति परमात्मा को दोष देने लग जाते है। वो कहते है कि A , B , C  सभी मौज कर रहे है परन्तु मै सावधानियाँ, साधना करता हूँ  फिर भी परेशान हूँ। उसको कैसे समझाया जाए जिसके पास bank balance है वह तो मजे करेगा ही। दूसरा मजदूरी मेहनत करके भी मजे नहीं कर पाता कठिनार्इ से गुजारा हो पाता है। 
     कहने का अर्थ यह है कि साधना मार्ग में भी सावधानी पूर्वक अपने मार्ग का चयन करें। A , B , C तो चार घण्टे नित्य ध्यान करते हैं आधा घण्टा सखदयों में गंगा स्नान भी करते है। उनसे प्रेरणा लेकर मै ठण्ड में जैसे ही गंगा जी में घुसा तो मेरे सारे शरीर में दर्द शुरू हो गया। कारण माँसपेशियाँ व नसें सर्दी सहन न कर सकी व अकड़ कर दु:खने लगी। अब तो अपने काम के लायक भी नहीं रहा, बिस्तर पकड़ना पड़ा। सबको सबकुछ मिल तो सकता है परन्तु जल्दबाजी व अधीरता में व्यक्ति नुकसान उठा लेता है। आपने घटना सुनी होगी। वीर शिवाजी युद्ध में हारकर जंगल में छिपते फिर रहे थे। रात्रि में एक बुढ़िया की झोपड़ी में शरण लेते है। बुढ़िया ने खिचड़ी बनार्इ व उनको खाने के लिए परोसी। शिवाजी ने बीच से खिचड़ी में हाथ डाला व जला बैठे। बुढ़िया ने कहा, ‘हे मुसाफिर तू भी लगता है शिवाजी की तरह मूर्ख है जो बीच में हाथ डाल रहा है, किनारे से लेकर थोड़ी-थोड़ी खा’ शिवाजी की आँखें खुल गयी, उन्होंने धीरे-धीरे किनारे (outside) के किलों पर कब्जा कर स्वयं को मजबूत बनाना शुरू किया।
     यही बात साधना के क्षेत्र में भी है। युगऋषि श्रीराम आचार्य जी का मत है लोग कुण्डली जागरण की इच्छा रखते है परन्तु यह नहीं देखते कि उसको सम्भाल भी पाएँगे या नहीं। यदि जोश में आकर सामर्थ्य से ज्यादा वजन उठा लिया तो थोड़े ही समय में चीं बोल जाएगी।   

     कर्इ बार हम किसी भी कार्य में सफल होने के चक्कर में जोश में आकर उसकी गति बढ़ा देते है। उस चक्कर में हम अपने खाने, पीने, निद्रा, स्वास्थ्य सबकी अवहेलना कर जाते हैं। कर्इ बार हम देवसत्ताओं का प्यार पाने के लिए भावुक होकर कुछ ऐसे आदर्श अपनाने लगते है कि हम समाज में उपहास के पात्र बनने लगते है। इसमें व्यक्ति एक प्रकार के द्वन्द में फंस जाता है। वह चाहता तो है बहुत कुछ करना, मानना परन्तु समाज के उपहास का भय भी उसे परेशान करता है। लम्बे समय तक चलने वाले द्वन्द अच्छे नहीं होते। इसीलिए साधक वो आदर्श अपनाए जो सरलता से निभा सकें। स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक आदर्शो में न उलझें। बहुत से व्यक्ति ऐसे देखे गए है जो अपने आप से अधिक संघर्ष करते-करते टूट जाते है। उनके मन की शान्ति गायब हो जाती है और हर समय का संघर्ष उनकी आदत बन चुकी होती है। इससे वो वातावरण में चिड़चिड़ाहट पैदा करते रहते हैं। जबकि साधक को गम्भीर व शान्त व्यक्तित्व का होना चाहिए। 

No comments:

Post a Comment