भारत
में देवत्व खतरे में हैं। देसी गाय व नस्लें समाप्त होती जा रही है, युवा शक्ति कामुकता की आग में झुलस रही है। स्वास्थय सकंट दिन पर दिन गम्भीर होता जा रहा है, भूमि का उर्वरा शक्ति कम होती जा रही हैं, चारों ओर प्रदूषण बढ़ रहा हैं, मान मर्यादाएँ टूट चुकी हैं, पारिवारिक जीवन कलेश के घर बन रहे हैं। असुर लोग साधुओं का वेश धारण कर जनता को गुमराह कर रहे है। इन विषम परिस्थितियों में जागरूक आत्माएँ कैसे अपने स्वार्थो, अपनी महत्वाकाक्षाओं में उलझे रह सकते हैं। पड़ोस में आग लगी है व हम अपने घर में गुलछर्रे उड़ा रहे है। समाज का पतन होता जा रहा है व हम अपनी आँख पर पटटी बाँधकर अपने दात्यिवों से मुँह मोड़ रहे है। नही नही मेरा भारत इतना सवेंदनहीन कभी नहीं रहा। धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए अपना रक्त देने के लिए हम कभी पीछे नहीं हटे। हममें उन पूर्वजों का रक्त बिना उबले कैसे रह सकता है? मित्रों साधना ओर संगठन समय की महती आवश्यकता है जैसे युद्ध में उल्टी सीधी परिस्थितियाँ पैदा होती है कुण्डलिनी साधना में भी बनती है, वीरतापूर्वक उनका सामना करना चाहिए। परन्तु युद्ध से बच नहीं सकता, अर्जुन! युद्ध से भय क्यों कर रहा है? निराश क्यों हो रहा है? भगवान महाकाल स्वयं तेरे साथ तेरे साधना पथ के सारथी है। भले ही तेरे रिश्ते नातेदार कौरवो की ओर खड़े होकर तुझे साधना पथ से विचलित करने का प्रयास कर रहे हों। परन्तु तू महाकाल का सन्देश सुन, अपने भीतर क्षात्रियत्व का, साहस का, शौर्य का, पुरुषार्थ का, पराक्रम का विकास कर। अपने तीसरे नेत्र के खोलकर अपनी कमियों को, अपने प्रारब्धो को भस्म कर दें जो तेरा मार्ग रोक रहे है। अपनी समस्याओं को देखकर अपना मन छोटा मत कर। इनके भगवान ने सूक्ष्म में समाप्त कर दिया है। समाज का नेतृत्व करने का समय आ गया है लोग तेरी प्रतिभा, प्रतिष्ठा, महानता को देख तुझे सादर नमन करेंगे व अनुसरण-अनुगमन करेंगे।
पाठक
यह न सोचें कि हम विषय से भटक रहे है। कुण्डलिनी साधना की सफलता के लिए पवित्र वातावरण, हृदय में सद्भाव व उच्च उद्वेश्यों में जीवन का नियोजन ये सभी अनिवार्य है। युद्ध में बढ़िया हथियार की व्यवस्था करनी होती है सैनिको के लिए खाद्य सामग्री व उचित वस्त्रों का प्रबन्ध करना होता है साथ-साथ सैनिको का मनोबल व तालमेल भी जोरदार होना चाहिए। इनमें से यदि कहीं भी कमी रह जाए तो हार की सम्भावना बढ़ जाती है। इसी प्रकार कुण्डलिनी साधना के लिए भी अनेक पक्षों को मजबूत बनाकर चलना पड़ता है। यदि एक भी पक्ष कमजोर पड़ जाए तो सफलता की सम्भावना कम हो जाती है। किसी ने सत्य ही कहा है-
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादातपसो वाप्यलिंगात्।
यह आत्मा किसी बलहीन को प्राप्त नहीं होती ओर न ही तप में प्रमाद करने वालो को।
‘‘तपश्चर्या में जीवन के विविध बिखरावों को रोककर उद्वेश्यपूर्ण प्रयोजन में ही उन्हें नियोजित करने का कौशल सीखना पड़ता है।’’
‘‘हे राजन! र्इश्वर तो उन अकिंचनो (बिरलो) का धन है, जिन्होंने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया है। यहाँ तक कि अपनी आत्मा के सम्बन्ध में भी इस भावना का कि यह मेरी है, पूर्ण त्याग कर दिया है।’’
-पवहारी
बाबा
‘‘इन्द्रियाँ
ऐसी बलवान है कि जब चारो ओर से ऊपर नीचे दसो दिशाओं से उन पर घेरा डाला जाता है, तभी कब्जे में रहती है।’’
-महात्मा गाँधी
‘‘मनुष्य
के सामने दो ही मार्ग है-तप या पत, दोनो एक दूसरे के उल्टे हैं तप का अर्थ है ऊपर उठना, पत का अर्थ है पतित होना। जो तप नहीं करता उसका पतन होना स्वाभाविक है। और जो आत्मिक पतन से बचना चाहता है, उसे तपन के लिए अग्रसर होना पडे़गा। दोनों में से एक ही मार्ग को चुना जा सकता है।’’
-श्री राम आचार्य
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