विचित्र लेखन एवं विचार शैली
एक बार स्वामी विवेकानन्द से कुछ लोगों ने प्रश्न किया कि आप प्रतिदिन इतनी सभाएँ सम्बोधित करते है आपको इतने जबरदस्त विचार कहाँ से मिलते हैं। जबकि इस समय आपके पास कुछ नया पढ़ने के लिए भी समय नहीं है। विवेकानन्द जी बोले मैं प्रतिदिन प्रात:काल आधा एक घण्टा ध्यान करता हूँ उस समय विचारों का एक प्रवाह मेरे मस्तिष्क में उभरता है इस प्रकार मैं सभाएँ बढ़े प्रभावित ढंग से करने में सक्षम हो पाता हूँ। यह बात केवल स्वामी जी के लिए ही नहीं अपितु हम सबके लिए भी सत्य है सूक्ष्म में ज्ञान का विशद भण्डार भरा पड़ा है कोर्इ भी उससे सम्पर्क बनाकर कितना भी प्रकाण्ड विद्वान बन सकता है निर्मल अन्त:करण सही मानसिकता और नियमित ध्यान से ही यह सब सम्भव हो सकता है।
लेखन शैली दो प्रकार की हो सकती है। व्यक्ति यह सोचें किस विषय पर लिखना है उससे समबन्धित पुस्तकें पढ़े तब माथापच्ची कर लिखे दूसरा तरीका है प्रयास न करना, जितना सम्भव हो अपने को मिटा देना और धारा उतरने देना। श्री अरविन्द के अनुसार "अपने मानस को इतना अधिक नीरव कर डालना कि एक महत्तर मानस उसके माध्यम से अपने आपको व्यक्त कर सके।" श्री अरविन्द के विषय में सत्प्रेम लिखते है:-
श्री अरविन्द चुपचाप प्रतिदिन पृष्ठ भरते गये। कोर्इ भी दूसरा व्यक्ति इस घोर परिश्रम से थक गया होता, पर वे तो जो लिखते थे, उसे ‘विचारते’ नहीं थे! अपने एक शिष्य को बताते हुए उन्होंने लिखा था, मुझे लिखने के लिए ज़रा भी प्रयास नहीं करना पड़ा। बस, मैं केवल ऊध्र्व शक्ति को कार्य करने देता था, और जब वह काम करना बंद कर देती, तो मैं बिल्कुल प्रयत्न नहीं करता था। वह तो बहुत पहले, जब बौद्धिक स्तर पर रहता था, तब मैं कभी-कभी खींचातानी करने की कौशिश किया करता था, पर योग शक्ति द्वारा पद्य और गद्य का विकास आरंभ करने के उपरान्त नहीं। और यह भी तुम्हें याद दिला दूँ कि जब मैं ‘आर्य’ लिखता था और ये चिट्ठियाँ या जवाब लिखता हूँ तो मैं कभी विचार नहीं करता। मैं नीरव मानस से वही लिखता हूँ जो गढ़ा-गढ़ाया ऊपर से तैयार उतरता है।
मस्तिक को सबसे अधिक आराम मिलता है जब सोचने का काम सिर के ऊपर और शरीर से बाहर ही ;अथवा अंतरिक्ष में, या फिर अन्य स्तरों पर, किन्तु शरीर से बाहर हीद्ध संपन्न होता है। कम से कम मेरे विषय में तो यही सत्य था क्योंकि जब से यह होने लगा, मुझे बड़ी राहत मिली। तब से मुझे शारीरिक श्रांति तो अनुभव हुर्इ पर मस्तिष्क में कभी किसी तरह की थकावट नहीं लगी।
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साहित्य ही संस्कृति का दर्पण होता है,
लेखक तो सकल राष्ट्र का धन होता है।
अनुभूतियों के गहन हिमालय से सदा,
साहित्य की गंगा का सृजन होता है।
जिस देश के हाथों की कलम टूटी हो,
उस देश का निश्चित पतन होता है,
कच्चा घड़ा
ज्ञान की तपिश में तप नही पाया,
अज्ञानता की नमी है इसमें, पक नहीं ये पाया।
कैसे टिक पाएगा इसमें प्रेम का शीतल जल,
अहंकार की ठोकरें जिसको लगती हैं पल-पल।
शिकन है माथे पर जिसके, हृदय प्रश्नों से भरा है,
बता रही ज्ञान की थापी, वो मनवा कच्चा घड़ा है!
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