शास्त्र मानव जीवन को सृष्टा का अनुपम उपहार कहते हैं क्योंकि इस जीवन में व्यक्ति अपने प्रयास से कितना भी ऊँचा उठ सकता है। यदि सावधान न रहा मूर्खताएँ करता रहा तो नीचे भी गिर सकता है। भगवद्गीता में श्री Ïष्ण कहते हैं ‘हे अर्जुन अपनी आत्मा का उत्थान स्वयं कर इसे अवसाद में न गिरा। ऐसा करने से तू ही अपनी आत्मा का सच्चा मित्र बन सकता है अन्यथा तू अपनी आत्मा का शत्रु भी साबित हो सकता है। साधना पथ पर चलने से व्यक्ति अपने आपको कितनी ऊँचार्इयों तक ले जा सकता है इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भारतीय संस्Ïति में पग-पग पर देखने को मिल जाते हैं। परन्तु फिर भी हम दयनीय दशा में दु:ख पीड़ा के साथ कराह रहे हैं इसका दोषी कौन है? एक सन्त थी राबिया! बहुत पहँुची हुयी थी अपनी मस्ती में मस्त रहती थी तन पर कपड़ो की भी सुध-बुध नही रहती थी। एक बार एक भीड़ भरी जगह से होकर गुजर रही थी तो जोर-जोर से रोने लगी। थोड़ी देर बाद जोर-जोर से हँसने लगी। फिर जोर-जोर से रोने लगती। लोगों ने उससे उसका कारण पूछा। उसने बताया भीड़ में अनेकों व्यक्ति मिले जो बीमारी, कष्ट कठिनार्इयों से घिरे हुये हैं उनका हाल देख वह रोने लगी। परन्तु शीद्य्र ही ध्यान में आया कि सृष्टि के कण-कण में परमात्मा का प्रकाश, आनन्द, शक्ति व सौन्दर्य भरा पड़ा है जिसके पाकर व्यक्ति निहाल हो जाता है। यह देखकर वह बहुत ही प्रसन्न हुयी। व्यक्ति इतना होते हुए भी, यह जानते हुए भी कि जगत दु:खों का घर है उस परमात्मा की ओर बढ़ने का प्रयास नहीं करता, अपने चारों ओर मकड़जालों को बुनता रहता है व उन्हीं में उलझ जाता है। शरीर की नश्वरता का बोध उसे तब तक नहीं होता जब तक मौत आकर उसका द्वार नहीं खटखटाने लगती। शरीर में ताकत रहते वह साधना के पथ पर चलने का प्रयास नहीं करता, आत्मा ज्ञान व आत्मा कल्याण की ओर नहीं बढ़ता। मानव की यह विडम्बना देख वह फिर से रोने लगती है।
इसीलिए भारतीय संस्Ïति मानव के बार-बार सावधान करती है कि हे मानव! यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो योग के पथ पर, तप के पथ पर, श्रेय के पथ पर, साधना के पथ पर चल अन्यथा भोगों व भौतिक इच्छाओं में उलझे-उलझे सारा जीवन, रोते कल्पते, चिन्तित होते बीत जाएगा। शास्त्र कहते हैं कि मानव की आत्मा को सही शान्ति व स्थायी विश्राम परमात्मा की गोदी में जाकर बैठने पर ही मिलते हैं जो कि जीवन रहते ही सम्भव हैं। अन्य सब तो थोड़ी देर का भुलावा है। जैसे खिलौने से थोड़ी देर के लिए भूखे बच्चे को बहकाया जा सकता है वैसे ही बाहरी आकर्षण थोड़ी देर के लिए आत्मा के सुखों का आभास कराते है। जब बच्चा माँ की गोदी में बैठकर दुग्ध पान करता है। तभी तृप्त होता है ऐसी ही आत्मा-परमात्मा का सान्निध व प्रेम पाकर ही तृप्त होती है।
महात्मा बु( अंगुलिमाल से कहते है कि तुम मुझे मार देना परन्तु एक प्रश्न का उत्तर दे दो कि लोगों की हत्याओं से उसे क्या लाभ होता है? डाकू बोला इससे मुझे सुकुन मिलता है। बु( बोले यह सुकुन नही है यह तो उसका भ्रम है यह तो भयानक दर्द में परिवखतत हो जाएगा। बु( ने कहा यदि वह उसको इससे बढ़िया सुकुन दिला दे जो सदा बना रहें बिना लोगों की हत्या के तो?। इसमें तो भय भी बना रहता है जंगल में छिपना भी पड़ता है परन्तु वह आनन्द एक बार चख कर तो देख। इतना कहते ही बु( की Ïपा दृष्टि उस पर पड़ती है और वह भाव समाधि की अवस्था में जा लगता है।
अन्तर्मुखी होने से उसे किये हुए पापों के लिए दु:ख होता है व आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती हैऋ दिव्य आनन्द की झलक पाकर वह बु( के चरण पकड़़ लेता है आज तक जो गलतियाँ की उसका प्रायश्चित कैसे करें व इस दिव्य आनन्द के पथ पर कैसे चलें यह अब उसका लक्ष्य बन जाता है। सि( महापुरुष केवल अपनी Ïपा दृष्टि से व्यक्ति को दिव्य लोक में पहँुचा देते हैं वहाँ जाकर वह ज्ञान, शक्ति और आनन्द के भण्डार से जुड़ जाता है। मूर्ख भी बड़ा पिण्ड़त हो जाता है, दुर्बल प्राणी परम शक्तिवान महसूस करता है, निराशा, हताश, व थका प्राणी स्वयं तो आनन्दमय हो जाता है आस पास का वातावरण भी उत्साह उल्लास से भर देता है।
श्री अरविन्द आश्रम की घटना है महायोगी शरीर छोड़ने का संकेत दे रहे हैं। सभी श्र(ालु बैठे हैं, एक सफार्इ कर्मचारी अपनी व्यथा व्यक्त करता है कि वह जप, तप, ध्यान, ज्ञान कुछ नहीं जानता, अनपढ़ है आश्रम की सफार्इ पूरे मनोयोग से करता है। दस पन्द्रह दिन में जब भी उनके दर्शन करता है बड़ी तृप्ति महसूस करता है। यदि वो शरीर छोड़ जाएँगे तो उसका यह साहस भी छूट जाएगा। अन्य व्यक्ति तो उपदेश, ध्यान आदि में उनको खोजेंगे। वह कैसे स्वयं के समझाएगा। श्री अरविन्द की Ïपा दृष्टि उस पर पड़ती है वह गहन ध्यान में डूब जाता है उसको अनुभव होता है कि अब उसका द्वार खुल गया है जब चाहें उनकी दिव्य चेतना का अनुभव कर सकता है। वह अल्पज्ञ सफार्इ कर्मचारी भीतर से ही लोगों की समस्याओं का समाधान कर दिया करता है।
वृन्दा नामक एक डाकिया लाहिड़ी महाशय की सेवा करता था। धीरे-धीरे उसके भीतर इतना ज्ञान का प्रकाश पैदा हो गया कि बड़े-बड़े पण्डित उससे शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को समझाने जाया करते थे। यह सि( पुरुषों की Ïपा दृष्टि का कमल। आचार्य शंकर का एक मूर्ख शिष्य था जो उनके कपड़े धोता था व भोजन आदि की व्यवस्था करता था।
आदिगुरू भगवान् शंकराचार्य के शिष्यों में पद्मपाद, सुरेशवर आदि परम विद्वान शिष्य थे। विद्वान शिष्यों की इस मण्डली में एक मूढ़मती मंदबु(ि, बेपढ़ा-लिखा एक बालक भी था। यह बालक बिना पढ़ा-लिखा भले ही था, उसकी बु(ि भले ही तीव्र न थी, परन्तु उसका हृदय आचार्य के प्रति भक्ति से भरा था। आचार्य उसके लिए सर्वस्व थे। आचार्य की सेवा ही उसका जीवन था। इसके अलावा उसे और कुछ भी न आता था। उसकी मूढ़ता और मंदबु(ि पर कभी-कभी आचार्य के अन्य शिष्य उपहास भी कर लेते थे। पर इससे उसे कोर्इ फर्क न पड़ता था। वह तो बस गुरूवर का प्राण था। गुरूसेवा के अलावा उसे और कोर्इ चाह न थी। फिर भी आचार्य न जाने क्यों उसे अपनी सायं कक्षा में बुलाना न भूलते थे।
एक दिन आचार्य की नियमित कक्षा का समय हो गया था। पद्मपादाचार्य, सुरेशवराचार्य, हस्तामलकाचार्य आदि सभी भगवान् शंकराचार्य के श्रीचरणों के समीप आ जुटे थे, किन्तु आचार्य का वह सेवक शिष्य दिखार्इ नहीं दे रहा था। आचार्य को उसी की प्रतीक्षा थी। वह रह-रहकर इधर-उधर देख लेते। कक्षा में विलम्ब हो रहा था। उपस्थित शिष्यों में से प्रत्येक को प्रतीक्षा असहाय हो रही थी। सभी को भारी उत्सुकता थी कि उनके गुरूदेव ने आज क्या लिखा है। यह उत्सुकता अपने चरम बिंदु पर जा पहुँची, पर कोर्इ कुछ कह नहीं पा रहा था। अंत में पद्मपाद ने साहस किया, पाठ प्रारम्भ करने की Ïपा करें भगवन्। मुझे अपने एक शिष्य की प्रतिक्षा है। आचार्य ने उत्तर दिया। पर वह तो निरा विमूढ़ है भगवन्! उसका आना न आना दोनों ही एक जैसे हैं। पद्मपाद के स्वरों में विनम्रता होते हुए भी एक खीझ थी।
आचार्य भगवान् शंकर से यह बात छुपी न रही। उन्होंने यह जान लिया कि उनके इन विद्वान शिष्यों को अपनी विद्वता का कुछ अभिमान हो आया है। शिष्यों का गर्वहरण करने वाले आचार्य शंकर मुस्कराएँ और एक क्षण के लिए ध्यानस्थ हो गए। उनका वह शिष्य, जिसकी उन्हें प्रतीक्षा थी, उन्हीं के वस्त्र धोने के लिए गया था। यह उसका नित्य का कार्य था, किंतु आज अचानक उसके अंत:करण में समस्त विद्याएँ एक साथ प्रकाशित हो गयी। वह गुरूÏपा की इस अनुभूति पर ÏतÏत्य हो गया। अपने कंधे पर गुरूदेव के धुले वस्त्रों को लिए हाथ जोड़े तोटक छंदों में आचार्य की स्तुति करते हुए वह चला आ रहा था।
विदिताखिलशास्त्र सुधा जलधे, महितोपनिषत्कथितार्थनिधे।
हृदये कमले विमलं चरणं, भवशंकरदेशिक मम शरणम्û
करूणावरूणालय पालयमाम्, भवसागरदु:खविदून हृदम्।
रचयाखिल दर्शन तत्त्वविदं, भव शंकरदेशिकमम् शरणंû
तोटक छंद में स्व स्फुरित इस गुरू वंदना को सुनकर वहाँ उपस्थित सभी अवाक् रह गए। उन्हें भारी अचरज तो तब हुआ, जब उसे आचार्य ने आदेश दिया-वत्स! आज मेरे स्थान पर तुम इन्हें ब्रह्मसूत्र पर मेरे मन्तव्य को समझाओ। इतना ही नहीं, तुम इनके सम्मुख उन सूत्रों की व्याख्या भी करो, जिन पर अभी मैंने भाष्य नहीं लिखा है। तोटकाचार्य-जो आज्ञा गुरूदेव! कहकर आचार्य की आज्ञा का पालन कर दिखाया। तोटकाचार्य की अनायास उदित हुर्इ प्रखर प्रतिभा को देखकर सभी को इस सत्य की अनुभूति हो गयी कि तोटकाचार्य पर गुरू Ïपा बरस गयी है। त्राहिमाम गुरूदेव! कहते हुए सभी शिष्य आचार्य के चरणों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें निराभिमानी बनने की सलाह दी। सभी अनुभव कर रहे थे कि गुरू-Ïपा से सब कुछ सम्भव है।
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