Thursday, January 2, 2014

साधना समर (प्रारम्भ प्रयोजन-3)

  यह जुड़ाव ;बवददमबजपअपजलद्ध साधक के भीतर एक प्रकार की श्र(ा एवं रस उत्पन्न करता है जिससे साधक समय-समय पर अन्तर्मुखी होकर दिव्य आनन्द में गोते लगाता रहता है। धीरे-धीरे यह श्र(ा उस तेज, साहस, शक्ति, वीर्य के रूप में अभिव्यक्त होने लगती है जिसे पाकर साधक अपनी परिस्थितियों, प्रारब्धों को चीरकर लक्ष्य की ओर अग्रसर होता जाता है भगवद्गीता कहती है-
श्र(ावाँल्लभते ज्ञानं, तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शन्तिमचिरेणाधिगच्छतिû ;4/39द्ध
       ßश्र(ावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। श्र(ा के जाग्रत होने पर व्यक्ति साधना के लिए तत्पर ;जागरूकद्ध व इन्द्रिय संयमी होता है। ज्ञान से उपलब्ध होते ही व्यक्ति परम शन्ति में विचरण करता है।Þ
       देव वर्ग की सेना का गठन चल रहा है। साधना के द्वारा देव वर्ग को सशक्त किया जा रहा है, उनको भ्रम जंजालो से निकाला जा रहा है। आने वाले समय में भारत साधकों की महाभूमि बनने जा रहा है। यहाँ एक लाख उच्च कोटि के साधक तैयार हो रहे हैं। ये ज्योतियाँ 24-24 नयी ज्योति जलाएँगी और 24 लाख हो जाएँगी। इन चौबीस लाख में से आधे भारत में रहेंगे एवं यहाँ के लगभग सात-आठ लाख गाँवों का परित्राण करेंगे व आधे विदेशों में जाएँगे। 24 लाख से ये एक करोड़ से अधिक हो जाएँगे। इस प्रकार एक करोड़ साधक पूरे विश्व को आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने व कायाकल्प करने में समर्थ होंगे। नवयुग का आगमन निकट है, जागरूक आत्माएँ भोग विलास व मन की सीमा से पार अतिमानस के लिए प्रयासरत हैं। योग एवं तप के मार्ग को अपनाकर अपने को पवित्र, प्रखर एवं समर्थ बनाने का अभ्यास कर रही हैं। श्री अरविन्द इस महान समय को भागवद् मुहुर्त की संज्ञा देते हैं। ऐसे समय में जो जीवन का सदुपयोग न कर पाए उस अभागे इन्सान के लिए क्या कहा जा सकता है? अत: सावधान होकर साधना पथ का वरण कर ले। समर्थ गुरु रामदास विवाह मण्डप में बैठे थे। पुरोहित ने आवाज लगार्इ सावधान। यह सुनते ही उनकी आत्मा सावधान हो गर्इ कि वह यह क्या करने जा रहे हैं? यदि इस बन्धन में एक बार उलझ गए तो पूरा जीवन चक्की में पिसना पडे़गा। वह तुरन्त खड़े हुए और दौड़े अपने जीवन के लक्ष्य परमात्मा को पाने के लिए इतना तेज दौड़े, कि कोर्इ उनको पकड़ न पाया। उस युवा ने पूरे महाराष्ट्र का कायाकल्प कर डाला। वीर शिवाजी का निर्माण किया, हनुमान मन्दिरों का निर्माण किए, राष्ट्र की बलिवेदी पर अपनी आहुति देने वाले हजारों युवा तैयार किए।
       इसलिए भगवद्-गीता कहती है-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥  (6/5)
       "अपनी आत्मा का उद्धार स्वयं करो ऐसा करने पर आप ही स्वयं के मित्र हो सकते हैं अन्यथा आप ही स्वयं के शत्रु होंगे"
       जीवन में उत्थान व पतन तेरे ही हाथ में है। इस जीवन में कितना भी ऊँचा उठा जा सकता है कितना भी समर्थ बना जा सकता है। परन्तु दुर्भाग्य हमारा कि माया की मृगतृष्णा हमें कहीं का नहीं छोड़ती।  तुलसीदास जी कहते है-
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि।
सो माया बस बधऊँ गोसार्इ, फँसयो कीट मरकट की नार्इ"
र्इश्वर का अंश मानव, सहज सुख का भण्डार मानव, माया के बन्धन में बंधा कीड़ों मकोड़ों की भाँति अपने को दीन हीन बना बैठा है।
       आओ मित्रों! हम सावधान हों, साधना के पथ पर चलकर अपने असली रूप को जाने, निर्भय होकर आगे बढ़ें और तब तक न थकें जब तक हमारा लक्ष्य हमको प्राप्त न हो जाए। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वारन्निबोधत। मानव जीवन का लक्ष्य एक स्वर में सभी ने आत्म ज्ञान को ही स्वीकार किया है जिसको पाकर व्यक्ति स्थित प्रज्ञ हो परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। आत्मज्ञान को जैसे मोक्ष, निर्वाण, समाधि आदि अलग-अलग नाम दिए गए है परन्तु यह स्थिति एक ही है। बुद्ध कहते है कि जहाँ पहुँचकर मानव के समस्त दु:खों का अन्त हो जाए वह निर्वाण है। युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्यजी लिखते है "मुक्ति जीवन के सहज विकास क्रम की वह अवस्था है, जहाँ मानवीय चेतना सर्वव्यापी विश्व चेतना से युक्त होकर स्पंदित होने लगती है और उसमें से परमार्थ कार्यों का मधुर संगीत गुजने लगता है। तब व्यक्ति अपने सुख, अपने लाभ, अपने स्वार्थ को भूलकर सबके कल्याण के लिए लग जाता है।; इसी ऊँची मंजिल तक सांसारिक परिस्थितियों में साधनामय जीवन बिताने से ही पहुँचा जा सकता है। जिस तरह बिना सीढ़ियों के छत पर नहीं पहुँचा जा सकता है। उसी तरह संसार में अपने कर्त्तव्य, उत्तरदायित्वों को पूर्ण किए बिना जीवनमुक्ति की मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता। ऋषियों ने जीवन के सहज पथ का अनुगमन करके पारिवारिक जीवन में रहकर ही अपूर्व आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त किया था और ब्रह्म का साक्षात्कार भी किया था।
       भारत की मिट्टी में पले बढ़े होने के कारण लेखक बचपन से ही धर्म कर्म अध्यात्म में रूचि रखता रहा है। सौभाग्य से युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्यजी जैसे महान व्यक्तित्व का सम्बल मिला। उनके संरक्षण में अनेक आत्मज्ञानी महापुरुषों को पढ़ने समझने का मौका मिला। तरह-तरह के साधकों के सम्पर्क में आने से साधना विज्ञान का एक ऐसा अनुभव मिला जिसको सभी तक बाँटने करने की इच्छा प्रतीत हुयी, जिससे सभी उसका लाभ उठा सकें।
       लेखक को साधना व अध्यात्म के क्षेत्र में लगभग 20-22 वर्षों से बहुत रूचि रही है। यद्यपि लेखक साधना में किसी सफलता अथवा मार्गदर्शन का दावा नहीं करता। लेखक ने सामान्य से समझने वाले व्यक्ति को मात्र वर्ष भर की साधना के उपरान्त ही एक उच्च कोटि के साधक के रूप में उभरते हुए देखा। ऐसे साधक देखे जो अपनी संकल्प शक्ति से लोगों की कुण्डलिनी जागृत कर देते थे, रीढ़ में फँसी ऊर्जा को ग्रन्थियों से निकाल कर ऊपर प्रवाहित कर देते थे, अपने संकल्प बल से किसी का भी नशा छुड़ा सकते थे। किसी से भी परावाणी में बात कर सकते थे। परन्तु दुर्भाग्य वश इनका पतन भी अपनी आँखों के सामने देखा। कालजयी व कामजयी समझे जाने वाले साधक कैसे छोटी-छोटी असावधानियों व मूर्खताओं से स्वयं को समाप्त कर लेते हैं यह भी देखा। इन सब अनुभवों को बाँटने एवं गुह्य रहस्यों को सुलझाने की दृष्टि से इस पुस्तक को लिखा गया।

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