Thursday, January 2, 2014

साधना समर - भारत व भारतीयों की विडम्बना-1

   हम अक्सर यह लिखते, सुनते व पढ़ते हैं कि भारत की संस्कृति सर्वप्राचीन व सर्वश्रेष्ठ है। स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि सम्पूर्ण पश्चिम एक ज्वालामुखी पर बैठा है। विदेश में बहुत तनाव व भोगवादी संस्कृति का बोलवाला है। यह सब सुनकर मुझे लगता है कि भारत में लोग अधिक खुशहाल होंगे क्योंकि यहाँ की संस्कृति सर्वोत्तम है। लेकिन जब हमारे विद्यार्थी या मित्रवर्ग विदेश जाते है तो लौटकर भारत नहीं आना चाहते। निश्चित वहाँ का वातावरण भारत से अच्छा होगा। वहाँ की (living conditions) भारत से अच्छी होंगी। एक और बात है जब विदेशियों व उनके बच्चों को हम भारत में देखते हैं तो वो बड़े लम्बे-चोड़े, तगड़े व सुन्दर नजर आते हैं। जबकि भारतीयों के बच्चें दुबले-पतले व किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होते हैं।
     किसी भी सच्चार्इ से मुँह छिपाना सरासर (निरी) मूर्खता है। हमें बड़े स्पष्ट बुद्धि से सभी बातों का विश्लेषण करना है। ऐसी कोर्इ कमी हमारी भी है जिस कारण हम भारतवासी पतन के गर्त में गिरते जा रहे है। क्यों भारत हृदय एवं मधुमेह जैसे घातक रोगों का हब (hub) बनता जा रहा है। क्यों भारत को महिलाओं के लिए असुरक्षित (top 5) देशों की सूची में शामिल किया गया है? क्यों भारत की आधी जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे है?
     मैने इस प्रश्न का एक ही उत्तर ढूँढा है। हम भारतवासी अब अनुशासनप्रिय नहीं रहे। हमारे रक्त में स्थान-स्थान पर नैतिक नियमों की अवेहलना करना घुस गया है। एक बार हम किसी धार्मिक कार्यक्रम में लाइन में लगे थे। लाइन लम्बी थी व चल नहीं पा रही थी। मेरे आगे दो बूढ़ी औरतें खड़ी थी व खडे़-खडे़ परेशानी महसूस कर रही थी। मैने उनसे आग्रह किया कि माता जी आप यही बैठ जाइए जब लाइन बढे़गी, उठ जाना। उन्हें राहत मिली व वो आराम से जमीन पर बैठ गर्इ। मैने पीले वस्त्र पहन रखे थे व मेरे पीछे वाले भार्इ ने भी पीले वस्त्र पहन रखे थे क्योंकि वह गायत्री परिवार का कार्यक्रम था। मेरी पीछे वाले से थोड़ी दोस्ती भी हो गर्इ थी। लगभग पन्द्रह मिनट पश्चात् लाइन दो-चार कदम आगे बढ़ी। मुझसे पीछे वाला भार्इ तुरन्त बूढ़ी औरतों पर चिल्लाया, ‘एक तो लाइन पहले ही नही चल रही ऊपर से तुम लोग बैठ गए’। इतना कहकर वह फट से उन बूढ़ी औरतों के आगे जा खड़ा हुआ। मुझसे सहन नही हुआ, मैने टोका, ‘भार्इ साहब वृद्ध लोग अगर बैठ गए तो हम इन्हें सहारा देकर उठा देते है। हम यहाँ कौन-सा खडे़-खडे़ कद्दू में तीर मार रहे हैं?’ इस पर वो भार्इ बिगड़कर बोले, ‘अगर यही सब करते रहेंगे तो आगे नही बढ़ पाएँगे।’ मुझे क्रोध आ गया व मैने उससे कहा, "तो आप ऐसा करे, कम से कम पीले वस्त्र न धारण करें। कम से कम इन वस्त्रों में तो करूणा, संवेदना, श्रेष्ठ नियम धारण करने का प्रयास करे।" इतना कहकर मैने उसका हाथ पकड़कर पीछे खीचा। वह व्यक्ति अधिक बेशर्म नही था व मेरे खींचने पर पीछे आ गया। यद्यपि उसकी समझ में आ गया था कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पंक्ति तोड़कर आगे नहीं बढ़ना चाहिए था फिर भी वह अपनी गलती न स्वीकार कर मुझ पर खीझने लगा। मुझसे कहने लगा ‘तुम बहुत बोलते हो थोड़ा चुप रहा करो, यदि तुम्हारी तरह सब लोग बोलेंगे तो झगड़ा खड़ा हो जाएगा, बड़ी कठिनार्इ का सबको सामना करना पड़ेगा।’ कोर्इ बात नही मैने समय की गम्भीरता के देखते हुए स्वयं को शान्त किया उससे कहा ‘आप मेरे बड़े भार्इ है मुझे समझाना आपका फर्ज है, कृपया लाइन में अपने स्थान पर खड़े रहकर मुझे अच्छी बातें समझाएँ, मैं मौन रहकर सुनुंगा।’
     इस पूरी स्थिति का गम्भीरता से विश्लेषण करने की आवश्यकता है। वह व्यक्ति अच्छे स्वभाव का था अन्यथा वापिस अपने स्थान पर न आता व मुझसे लड़ार्इ-झगड़ा साथ में करता। परन्तु उसका सूक्ष्म अहंकार उसको अपनी गलती स्वीकार करने से रोक रहा था। इसीलिए वह पीछे तो आ गया परन्तु मुझ पर बिगड़ने लगा। यह साधकों की एक बड़ी कमी होती है कि वो अपने सूक्ष्म अहंकार के आगे घुटने टेक देते हैं। उनकी कमी न उजागर हो इसलिए गोल-मोल बात को घुमाने लगते हैं। साधना करते हुए भी उनको गोल-मोल निर्देश ही प्राप्त होते हैं स्पष्ट नहीं। साधक बेचारा भ्रम की स्थिति में उलझा रहता है यह नहीं समझ आ रहा कि क्या सही है क्या गलत? किस मार्ग पर चलूँ? कौन सी मन की आवाज है कौन सी आत्मा की? सब कुछ गोल-मोल नजर आता है।
     जिस दिन हम अपने दैनिक जीवन में बातों को गोल-मोल करना छोड़ देंगे उस दिन हमारी चेतना के पर्दे से काले बादल हट जाएँगे व हमें सब कुछ दिखार्इ देने लगेगा। किसी ने सत्य ही कहा है- ‘सब कुछ दिखार्इ दे माँ इतना प्रकाश हो’ हम भारत के लोगों में अनुशासनहीनता की एक आदत हो गर्इ है। हम बड़ी आसानी से नैतिक नियमों को ताक पर रख देते हैं। जब भी हम किसी नैतिक नियम का उल्लघंन करते है हमारी आत्मा पर एक प्रकार का बोझ आ जाता है। कर्इ बार न चाहते हुए नैतिक नियमों का उल्लंघन मजबूरी वश किया जाए तो आत्मा पर बोझ नहीं बनता। परन्तु जब नैतिक नियमों का उल्लंघन हमारे स्वभाव में आ जाए, हम सब कुछ गोल मोल करने लगें तब हमारी आत्मा धीरे-धीरे कुण्ठित व बोझिल होती चली जाती है।
     यदि हम स्वाभिमान के साथ नैतिक नियमों का पालन करें तो हमारी तेजस्विता बढ़ जाती है। अत: हमेशा सही मार्ग का चयन करें। छोटे मोटे स्वार्थ अथवा इच्छाओं के झाँसे में आकर नियमों का उल्लंघन न करे। अन्यथा हमारी पीढ़ी, हमारा वंश धीरे-धीरे कमजोर और छोटा होता चला जाएगा। विदेशों में लोग ( social riletion ) के भले ही अच्छे न हो, उनमें धार्मिकता व आध्यात्मिकता का अभाव हो, पर उनकी एक विशेषता भी है कि वो हमसे अधिक अनुशासन प्रिय है। पाँच दिन र्इमानदारी से अपनी डयूटी देंगे व दो दिन मौज करेंगे। इस कारण वो हमेशा अधिक समर्थ व खुशहाल है।   
    हमारी दुर्गति के सबसे बड़े दो कारण नजर आते हैं। पहला कारण हमारी संवेदनशील चेतना विदेशियों के प्रभाव में आ गयी। हमने उनकी संस्कृति, उनकी सभ्यता का अन्धानुकरण करना प्रारम्भ कर दिया। हम उनके भौतिकवाद व भोगवाद से प्रभावित हो गए व हमने अपनी मर्यादा अपना सब कुछ भूलकर उनको श्रेष्ठ मानकर वैसा दिखना व वैसा बनना प्रारम्भ कर दिया। फूलझड़ी दिखती तो सुन्दर है उसकी चमक बच्चों को आकर्षित भी करती है परन्तु उसकी रोशनी किसी काम की नहीं होती। कुछ देर चटर-मटर कर बुरी तरह वातावरण प्रदूषित कर देती है। यही हाल पश्चिमी सम्भता का है। वह तड़क-मड़क थोड़े समय हमें लुभा सकती है परन्तु वास्तविकता यह है वह हमें लगातार कमजोर बना रही है। सच कहा जाए तो हमारी कमर तोड़ रही है। लेकिन देखादेखी हम फूलझड़ी जलाने को मजबूर है। जब चारों ओर फूलझड़ी जलती दिखें तो चाहे अनचाहे हर कोर्इ वही करने को मजबूर है। इसी प्रकार हम ऐसी दयनीय दशा में आ पहुँचे है कि हम उस पश्चिम की आँधी में स्वयं को रोक पाने में असमर्थ पा रहे है। 

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