Thursday, January 2, 2014

साधना समर (प्रारम्भ प्रयोजन-1)

       प्रत्येक राष्ट्र का अपना इतिहास होता है, संस्कृति होती है, पूर्वजों की एक रूचि होती है। वहाँ के नागरिकों के रक्त में वो संस्कार घुले होते हैं अत: उनका चिन्तन व प्रयास भी उसी दिशा में चलता है। किसी देश में धन वैभव, व्यापार पर जोर दिया गया वहाँ लोग बड़ी कम्पनियों सुख समृद्धि, भौतिक चकाचौंध के साधनों को लक्ष्य मानते हैं। कहीं वासना की प्रधानता पायी जाती है, ऐसे लोग शॄंगार, फैशन परस्ती, तुच्छ कामुकता के जंजाल में ही उलझे रहते हैं। किसी जगह के पूर्वजों का मारकाट का इतिहास रहा है, उनके दिमाग में वैसा ही फितूर घूमेगा कि कैसे लूटपाट, मारकाट की जाए।
       सौभाग्यवश हमने जिस भारत भूमि पर जन्म लिया वहाँ के पूर्वजों का इतिहास बहुत ही गौरवपूर्ण रहा है। भारतीय संस्कृति को देव संस्कृति कहा जाता है। हमने न तो कभी किसी अन्य देश में जाकर व्यर्थ लूटपाट की, न कभी धन वैभव अथवा तुच्छ वासनाओं को अपना लक्ष्य चुना। वरन् इन सबसे ऊपर उठकर धर्म, अध्यात्म, परमात्मा व साधना को महत्व दिया। हमारे पूर्वजों ने सदा तप साधनाओं से जीवन को निखारकर सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान, शान्ति व सच्चे आनन्द का सन्देश दिया है। हमारे पूर्वजों ने धर्म की रक्षा के लिए, धर्म की स्थापना के लिए अपना जीवन न्यौछावर किया है। वीर हकीकत राय, गुरु गोविन्द सिंह जी व उनके चारों बेटों का बलिदान किसके रोंगटे खडे़ नहीं कर देता।
       शायद ही कोर्इ ऐसा देश रहा हो जो भारतीय संस्कृति से प्रभावित न रहा हो, हमारे पूर्वजों की इन अदुभुत खोजों का सम्मान न करता हो। प्राचीन काल से ही विदेशियों में भारत से ज्ञान व अध्यात्म का प्रकाश लेने की तीव्र अकांक्षा रही है। सिकन्दर जब भारत विजय के लक्ष्य से निकले तो अपने गुरु अरस्तू से पूछा कि वो उनके लिए भारत से क्या लाएँ? उनके गुरु ने उत्तर दिया कि भारत से ब्रह्मज्ञानी ऋषि को लेकर आना जिनका मार्गदर्शन पाकर हम सभी जीवन को सफल बना सकें। रूस जैसे कर्इ देशों में जहाँ धर्म का कट्टर विरोध होता था आज वहाँ बड़ी तेजी से लोग परमात्मा के प्रकाश को पाने के लिए व्याकुल हैं।
       अमेरिका, जहाँ सुख समृद्धि व विज्ञान चरम पर माना जाता है, अनेक विकृतियों से जूझ रहा है। वहाँ के दार्शनिक व मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अमेरिका की संस्कृति (जीवनशैली) लोगों में सड़न पैदा कर रही है जो उनके देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। समाधान के रूप में वो भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहे हैं कि फिर कोर्इ विवेकानन्द, योगानन्द अमेरिका आए और उनको जीवन की सही दिशाधारा प्रदान करे। पश्चिम के एक बहुत प्रसिद्ध समाज शास्त्री P.A.Sorokin ने अपनी पुस्तकों में इस प्रकार की चर्चाएँ की हैं। उन्होंने "The crisis of age" एवं “The sociology of revolution  जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। श्री अरविन्द आश्रम पांडिचेरी, इस्कॅान मन्दिरों व अन्य संस्थाओं में लगातार विदेशियों का बड़े पैमाने पर आवागमन इस तथ्य को प्रमाणित करता है।
       पश्चिम की सबसे बड़ी विडम्बना है कि उनकी संस्कृति में जीवन के लक्ष्य का कोर्इ जिक्र नहीं होता। यदि व्यक्ति एक सीमा तक भौतिक उन्नति कर ले उसके बाद क्या करे यह प्रश्न हर विचारशील मनुष्य को कचोटता है। पश्चिम के लोग भोगवाद व भौतिकवाद के घेरे में रह कर ही आनन्द और प्रसन्नता खोज रहे हैं। यह सभी साधन एक सीमा तक तो मनुष्य का मन बहला सकते हैं, परन्तु उसके बाद दु:खों का घर बन जाते हैं। इसलिए भगवद् गीता मनुष्य को सावधान करते हुए कहती है:-
       "ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
       आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥"  (5/22)
       अर्थात इन्द्रियों से सम्बन्धित जितने भी भोग है वो मात्र भोगते हुए ही प्रसन्नता देते हैं, आदि और अन्त वाले हैं। इनमें लिप्त व्यक्ति अन्त में दु:खों को प्राप्त होता है इसलिए जागृत आत्मा इनसे दूर रहती है।
       जब व्यक्ति मेहनत करके भोगों के साधन इकट्ठा करता है और परिणाम स्वरूप रोगग्रस्त हो जाता है तो उसको बहुत तनाव पैदा होता है। ऐसी स्थिति में उचित मार्गदर्शन के अभाव में वह मरने मारने को उतारू हो जाता है या तो आत्महत्या कर बैठता है या कुण्ठित होकर अपने आस-पास वालों को मारने दौड़ता है। भारतीय संस्कृति मानव को सावधान करती है कि मात्र आत्मज्ञान ही जीवन का लक्ष्य है इसके अतिरिक्त और कहीं भी स्थार्इ शान्ति नहीं मिल सकती।
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् तत्पर: संयतेन्द्रिय।
ज्ञानम् लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥" (4/39)
       इसी कारण पश्चिम के अनेकों दार्शनिक व विचारक (जैसे Maxmuller, Carl yung, Sir John Woodruff etc. ) भारतीय संस्कृति के अध्ययन की ओर ना केवल आकृष्ट हुए अपितु उसको अपनाया और उसकी बहुत प्रंशसा की।
       युगऋषि श्रीराम शर्मा आचार्यलिखते हैं" भारतवर्ष यदि अपनी समस्त कठिनार्इयों को हल करके संसार का मार्गदर्शन करना चाहे तो उसका एक मात्र आधार अध्यात्म ही है। इसी के द्वारा हमारा भूतकाल महान बना था और इसी से भविष्य के उज्ज्वल बनने की आशा भी की जा सकती है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम व्यावहारिक अध्यात्म का स्वरूप सर्व-साधारण को समझा सकें और उसके प्रत्यक्ष लाभों से लोगों को अवगत करा दें।"

       हमारे पूर्वजों में अनेकों विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं, उनके आचार-व्यावहार से एक प्रकार की पूर्णता अभिवयक्त होती थी। श्री रमण के पास अनेक दार्शनिक, विचारक एवं वैज्ञानिक आया करते थे और अपनी जटिल समस्याओं का समाधान पाते थे। बुद्ध के पास इतना आत्म-विश्वास था कि अंगुलिमाल जैसे डाकू व आम्रपाली जैसी वेश्या के जीवन परिवर्तन की क्षमता रखते थे। श्री अरविन्द बड़े आराम से यह बात कहते थे कि हमने इतनी साधना कर ली है कि देश आजाद हो जाएगा। श्री रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र जैसे भटकते बालक से पूरे अमेरिका में भारतीय संस्कृति  की धूम मचवा देते है तो आचार्यश्रीराम इस घोर कलियुग में सतयुगी वातावरण लाने की योजना पर कार्य करते हैं। कैसे वो असम्भव समझे जाने वाले कार्य को सम्भव बना देते थे। एक व्यक्ति के लिए अपना घर-परिवार, रोजगार चला पाना ही कठिन होता है। अपने व बाल-बच्चों को स्वस्थ रख पाना ही एक समस्या है। उसी मानव तन में दूसरा व्यक्ति इतने बड़े-बड़े कार्य करता है इसके पीछे क्या रहस्य है क्या विज्ञान है, हर बुद्धिजीवी को यह सोचने के लिए विवश कर देता है।

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