सहस्त्रार के पास ब्रह्मरन्ध्र होता है जिसमें ऊर्जा के गमन से ब्रह्मा कमल खिलता है व साधक पूर्णता को प्राप्त होने लगता है। वह आनन्द व शन्ति का केन्द्र बन जाता है। यह कहा जाता है कि अनाहत चक्र से ब्रह्मरन्ध्र की दूरी 24
अंगुल होती है। इसकी पार करने के लिए व्यक्ति को निम्न 24
गुणों के धारण करने की आवश्यकता पड़ती है।
1. प्रथा 2. सृजन 3. व्यवस्था 4. नियंत्रण
5. सद्ज्ञान 6. उदारता 7. आत्मीयता 8. आस्तिकता
9. श्रद्धा 10. शुचिता 11. संतोष 12. सहृदयता
13. सत्य 14. पराक्रम 15. सरसता 16. स्वालम्बन
17. साहस 18. ऐक्य 19. सयंम 20. सहकारिता
21. श्रमशीलता 22. सादगी 23. शील 24. समन्वय
सबसे
पहला गुण प्रज्ञा अर्थात व्यक्ति पराज्ञान की ओर बढ़ने के लिए जिज्ञासा रखता है इस विषय में शास्त्र कहते है अथा: तो बृह्मा जिज्ञासा अर्थात जब व्यक्ति को संसार की नश्वरता दु:खों एवं बंधनो को देखकर बृह्मा को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है इस ज्ञान को पराज्ञान कहा जाता है और इस प्रकार की बुद्धि को प्रज्ञा बुद्धि।महात्मा बुद्ध के अन्दर जब प्रज्ञा जागृत हुर्इ तब वो अपने व सम्पूर्ण संसार को दु:खों से मुक्त कराने का मार्ग खोजने लगे राजमहल में रह कर यह सम्भव नही था। अत: निर्जना नदी के किनारे एकान्त वास किया।
दूसरा कदम सृजन अर्थात व्यक्ति को सृजनात्मक (creative) गतिविधियों में अपनी रूचि बढ़ानी होगी सकारात्मक बनना होगा। यह प्रयास करना होगा कि अपनी और से किसी का भी नुकसान न हो जाए।
तीसरा कदम व्यवस्था अर्थात सुव्यवस्थित जीवन जीने का अभ्यास यदि व्यक्ति ढीली-पीली दिनचर्या जीएगा, फजूल की बातों में अपना समय खर्च करेगा, अधिक टीवी, व internet देखने में समय लगाएगा तो उच्च प्रयोजन के लिए कहाँ से समय निकालेगा इसलिए जीवन को व्यवस्थित करना बहुत आवश्यक है।
चौथा कदम है नियन्त्रण, व्यक्ति को हर दिशा में नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करें, मन को नियन्त्रित करने का प्रयास करे, धन का दुरुपयोग न होने दें, परिवारिक दायित्वों पर नियन्त्रण करे, एक या दो से अधिक सन्तान उत्पन्न न करें, इसके अलावा अपनी हर प्रकार की महत्वकांक्षा पर नियन्त्रण करें।
पाँचवा कदम सद्ज्ञान अर्थात श्रेष्ठ विचार जहाँ से भी मिलें उनको ग्रहण करने का प्रयास करें यदि मन को स्वाध्याय के द्वारा सद्ज्ञान से नही जोड़ा गया तो उसका पतन निश्चित है।
इससे अगला कदम उदारता, हम उदार बने अर्थात दूसरो को देना सीखें अपनी नेक कमार्इ का एक अंश, लोक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक समर्पित करते रहें।
साँतवा कदम आत्मियता अर्थात सबको अपने जैसा समझे जो व्यवहार अपने लिए पसन्द नहीं करते तो दूसरों के लिए क्यों करते है यदि हम यह नहीं चाहते कि कोर्इ हमें नीचे गिराएँ हमारा मजाक बनाएँ तो दूसरों की उन्नति को देख कर क्यों जलते है। दूसरों की सुख-समृद्धि से अथवा उनको आगे बढ़ता देख यदि हमको प्रसन्नता होती है, हम कह सकते है कि हममें दूसरों के प्रति आत्मीयता है।
तीसरा कदम व्यवस्था अर्थात सुव्यवस्थित जीवन जीने का अभ्यास यदि व्यक्ति ढीली-पीली दिनचर्या जीएगा, फजूल की बातों में अपना समय खर्च करेगा, अधिक टीवी, व internet देखने में समय लगाएगा तो उच्च प्रयोजन के लिए कहाँ से समय निकालेगा इसलिए जीवन को व्यवस्थित करना बहुत आवश्यक है।
चौथा कदम है नियन्त्रण, व्यक्ति को हर दिशा में नियन्त्रण की आवश्यकता पड़ती है। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करें, मन को नियन्त्रित करने का प्रयास करे, धन का दुरुपयोग न होने दें, परिवारिक दायित्वों पर नियन्त्रण करे, एक या दो से अधिक सन्तान उत्पन्न न करें, इसके अलावा अपनी हर प्रकार की महत्वकांक्षा पर नियन्त्रण करें।
पाँचवा कदम सद्ज्ञान अर्थात श्रेष्ठ विचार जहाँ से भी मिलें उनको ग्रहण करने का प्रयास करें यदि मन को स्वाध्याय के द्वारा सद्ज्ञान से नही जोड़ा गया तो उसका पतन निश्चित है।
इससे अगला कदम उदारता, हम उदार बने अर्थात दूसरो को देना सीखें अपनी नेक कमार्इ का एक अंश, लोक कल्याण के लिए उदारतापूर्वक समर्पित करते रहें।
साँतवा कदम आत्मियता अर्थात सबको अपने जैसा समझे जो व्यवहार अपने लिए पसन्द नहीं करते तो दूसरों के लिए क्यों करते है यदि हम यह नहीं चाहते कि कोर्इ हमें नीचे गिराएँ हमारा मजाक बनाएँ तो दूसरों की उन्नति को देख कर क्यों जलते है। दूसरों की सुख-समृद्धि से अथवा उनको आगे बढ़ता देख यदि हमको प्रसन्नता होती है, हम कह सकते है कि हममें दूसरों के प्रति आत्मीयता है।
आठवाँ
कदम है आस्तिकता अर्थात हम र्इश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मान कर हम अपने जीवन में आगे बढे़गें, अक्सर व्यक्ति, सकीर्ण मानसिकता में उलझा रहता है, छोटी-मोटी कहा सुनी में र्दुभावनाओं को बढ़ाकर, बदला लेने का प्रयास करता है, या कोर्इ विपत्ति या अनिष्ठ होने पर अपने साथियों को या भगवान् को कोसने लगता है, भगवान् सब जगह है इसलिए हम कभी कोर्इ गलत कार्य नही करेंगे, व न्यायकारी है इसलिए हमारे साथ न्याय अवश्य करेगा, हमें हमारे गलत कार्यो का दण्ड मिल रहा है यह जान कर हमें दु:खों को सहना होगा व प्रभु से सदा सरंक्षण एवं मार्गदर्शन की चाह रखनी होगी, इसी भावना को आसित कहा कहते है।
नौंवा कदम है श्रद्धा, उच्चें आदर्शो को ढृढ़तापूर्वक पकड़ने का प्रयास करे, डगमगाएँ नही, शास्त्रों के प्रति, भारतीय संस्कृति के सिद्धान्तों के प्रति अपने मन में अटूट विश्वास पैदा करें इस भाव को श्रद्धा कहते है।
दसवाँ कदम है शुचिता, अपने चारों और स्वच्छ वातावरण बनाएँ, गन्दगी न पनपने दें, गलत संगति, गलत मानसिकता के लोगों से सदा उचित दूरी बनाएँ रखें।
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