किसी भी आध्यात्मिक गतिविधि के दो पक्ष होते हैं एक क्रियापक्ष तथा दूसरा
भावपक्ष। जैसे प्राण के बिना शरीर का मूल्य नहीं होता वैसे ही भावपक्ष के बिना
क्रियापक्ष बेजान रहता है। परन्तु व्यक्ति मात्र क्रियापक्ष अथवा कर्मकाण्ड में ही
उलझा रहता है व भावपक्ष को नहीं अपनाना चाहता। यदि हम भारत के योग के सन्दर्भ में
बात करें तो इसका भावपक्ष है महर्षि पतंजलि का योगदर्शन एवं यदि क्रियापक्ष देखें तो वह मत्स्येन्द्रनाथ व
गोरखनाथ जी द्वारा दिया हुआ हठ योग।
समाज में जो योग अथवा योगा के नाम
से प्रचलित है वह बहुत ही छोटा पक्ष है जिसमें कुछ शरीर की क्रियाएँ व कुछ
श्वास-प्रश्वास की क्रियाएँ आती है। जनता इनके लाभों से ही सुखद अनुभव करती है व
अपने सभी रोगों व समस्याओं के समाधान खोजती है। परन्तु यह पक्ष छोटी-मोटी
बीमारियों समस्याओं में लाभप्रद हो सकता है।
यदि कोई व्यक्ति समस्याओं का जड़
से निबटारा करना चाहें अथवा अपनी आध्यात्मिक उन्नति करना चाहें तो उसे योग के सभी
पक्षों को विस्तार से अध्ययन व हृदयंगम करना पडे़गा। व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक
उन्नति क्यों करना चाहता है इसका बड़ा स्पष्ट उत्तर है- मानव प्रकृति के बन्धनों
में बंधा तड़फ रहा होता है। दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से त्रस्त रहता
है। इसलिए जगत को दुःखरूप कहा गया है। परन्तु यदि व्यक्ति अपने प्रारब्धों को
काटकर एक सीमा तक आध्यात्मिक उन्नति कर ले तो यही जगत् व्यक्ति से लिए आनन्दरूप बन
जाता है। प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह आनन्दमय बन सके, निरोग रह सके, जगत् के सत्य से परिचित हो सके। महात्मा बुद्ध कहते हैं कि मानव जीवन का लक्ष्य
निर्वाण प्राप्त करना है, अर्थात् एक ऐसी स्थिति या अवस्था पाना जिसमें पहुँचकर सम्पूर्ण दुःखों से
निवृत्ति हो जाती है। शास्त्र कहते हैं जीवन का लक्ष्य है मोक्ष, अर्थात् सत, चित्त, आनन्द की प्राप्ति। यह तभी
सम्भव है जब चित्त की वृत्तियों का निरोघ सम्भव हो सके। मानव स्वयं में आनन्दमय है
परन्तु चित्त की वृत्तियाँ (वासना, तृष्णा, अहंता) उसे इधर-उधर भटकाती रहती हैं। अब देखते
हैं कि चित्त वृत्तियों के निरोघ के लिए योग क्या ज्ञान विज्ञान है?
अध्यात्म के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। योग ग्रन्थ, उपनिषद, भागवद् गीता सभी शास्त्र
तरह-तरह से मनुष्य को उसी दिशा में ले जाने का प्रयास करते हैं। यदि हम सरल शब्दों
में कहें तो हमें तीन बातों का जीवन में ध्यान रखना होगा- निःस्वार्थता, पवित्रता एवं भगवान् को समर्पण अर्थात् हम निःस्वार्थी
बने, पवित्र बने एवं ईश समर्पित जीवन जीने का प्रयास करें। जो जितना इस दिशा
में प्रगति करेगा उतना अपनी आत्मिक उन्नति करता चला जाएगा। इसमें भी सबसे पहला सिद्धांत (निःस्वार्थ) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
जैसे-जैसे व्यक्ति निःस्वार्थ होगा, अल्प प्रयास से पवित्र होता जाएगा। धीरे-धीरे उसमें ईश्वर के प्रति समर्पण का
भी उदय होगा।
कहते है विज्ञान परमात्मा के
अस्तित्व को नहीं मानता। परन्तु विश्व के बड़े निःस्वार्थ वैज्ञानिक प्रभु की
सत्ता को स्वीकार करते रहे हैं। हो सकता है अपने जवानी अथवा शोध के प्रारम्भ में ईश्वर
को न मानते हो! परन्तु अनुभव बढ़ने पर उन्होंने किसी सर्वोपरि सत्ता के अस्तित्व
को स्वीकार किया है। उदाहरण के लिए अल्बर्ट आइंसटीन जब भी जहाज आदि में सफर करते
थे एक माला अपने साथ रखते थे व जप करते थे। एक बार बर्लिन हवाई अड्डे पर वो जहाज में बैठे व अपनी माला
निकालकर जप करने के तैयार हुए। समीप बैठे युवक ने उनको टोका कि वो इन रूढि़वादी
परम्पराओं का घोर विरोधी है वह एक ऐसे दल का नेतृत्व करता है जो लोगों को इन बातों
से हटाकर वैज्ञानिक उन्नति करने की प्रेरणा देता है। इतना कहकर युवक ने अपना कार्ड
उनकी ओर बढ़ाया। आइंस्टीन ने उससे पूछा आप किस वैज्ञानिक को अपना आदर्श मानते हो
तो युवक ने तपाक से उत्तर दिया, ‘अल्बर्ट आइंस्टीन को’। यह सुनकर आइंस्टीन महोदय ने अपना कार्ड युवक की ओर बढ़ाया व उसे
समझाया-अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही सत्य की खोज में जुटे हैं। विज्ञान के साथ-साथ
अध्यात्म भी बहुत जरूरी है अन्यथा अकेला विज्ञान विश्व के लिए विनाशकारी भी सिद्ध हो
सकता है।
कहने का तात्पर्य है कि लगभग सभी
बड़े वैज्ञानिक निःस्वार्थ रहे है। बहुत बड़े स्तर पर व्यक्ति तब ही पहुँच सकता है
जब वह स्वार्थी न हों। लोभी व्यक्ति तो माया के चक्कर में इधर-उधर भटकता रहता है।
जो लोग पैशन (passion) के लिए काम
करते हैं पैसे के लिए नहीं, वही कुछ आश्चर्यजनक कार्य करने में सक्षम होते हैं।
भारत की भूमि सदा से ही
त्यागी-तपस्वी लोगों की भूमि रही है। यहाँ ऋषि , मुनि, योगी सदा से ऊँचे आदर्शों से भरा निःस्वार्थ
जीवन जीते आ रहे हैं। परन्तु आज के लोगों का घटिया जीवन देखकर बड़ी शर्म आती है और
यह सोचने को मजबूर करती है कि ‘क्या हम उन्ही के वंशज हैं?’ भेड़ों के झुण्ड में भटके शेर के बच्चे अपने को भेड़ मानने
लगते हैं। मुगलों, अंग्रेजों के आक्रमण के बावजूद व पश्चिम के भोग-विलास की आँधी में आज भी हम
अपना अस्तित्व बचा कर रखने में समर्थ हैं। इतना ही नहीं पूरे विश्व को ज्ञान दान
एवं उनकी कायापलट कर सकते हैं। अब वो समय आ गया है जब एक नहीं हजारों विवेकानन्द इस
देश की धरती पर अवतरित हो चुके हैं। धीरे-धीरे वो अपने असली स्वरूप को पहचान रहे
हैं।
शास्त्रों के अनुसार इस संसार में
दो प्रकार का ज्ञान है एक अपरा व दूसरा परा ज्ञान। सामान्य भाषा में कह सकते हैं
स्थूल प्रकृति व सूक्ष्म प्रकृति का ज्ञान। तकनीकी अथवा भौतिकी विज्ञान स्थूल
जगत् के नियमों की व्याख्या करता है जबकि योग दर्शन में ऋषि-मुनि सूक्ष्म जगत के
नियमों की शोध एवं व्याख्या करते हैं।
यदि हम स्थूल जगत् के नियमों को
तोड़ने लगें तो हम घोर विपत्ति में फंस सकते हैं। इसी प्रकार यदि जाने-अनजाने हम
सूक्ष्म जगत् के नियमों की अवहेलना करते रहें तो जीवन में अनेक कठिनाईयों के पहाड़
टूट पड़ते हैं। भौतिक इच्छाओं के चलते हम सूक्ष्म जगत् के नियमों को समझना नहीं
चाहते इसी कारण आज चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है।
जैसे यदि हमें स्थूल जगत के नियमों
का पता न हो तो उसे भी विज्ञान का चमत्कार कह देते हैं। इसी प्रकार क्योंकि हमें
सूक्ष्म जगत के नियमों का पता नहीं होता ऐसी ही हम सिद्ध पुरुषों के क्रियाकलापों को
चमत्कार कहते हैं। यदि हम सूक्ष्म जगत् (seattle world) के Lanes को follow करने लगे तो वह चमत्कार हमारे जीवन में
भी घटित होने लगेंगे। बहुत पुरानी घटना है एक बार एक पादरी छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी
लोगों के पास गए। उन्होंने सोचा कि इन भोले-भाले लोगों को कुछ चमत्कार दिखाकर अपने
मत में परिवर्तित किया जाए। इसके लिए
उन्होंने आदिवासियों से कहा-"तुम सबने कभी ऐसे व्यक्ति को देखा है, जो अपने सारे दाँत निकालकर फिर से उन्हें मुँह में लगा दे।" इस पर सभी एक स्वर से बोले-"नहीं।" तब उन पादरी महोदय ने अपने मुँह से बत्तीसी निकाली और फिर से उन सबको दिखाते
हुए वापस लगा ली। आदिवासी उनकी इस
बात से चकित व चमत्कृत हुए, लेकिन पादरी महोदय यह केवल इसलिए कर सके, क्योंकि उनकी वह बत्तीसी नकली थी। इसके बाद उन्होंने उनसे फिर से पूछा-"क्या तुमने किसी छोटे से डिब्बे को गाते हुए
सुना है?" उत्तर में फिर सभी ने एक स्वर से कहा-"नहीं।" इस पर पादरी महोदय ने अपने ट्रांजिस्टर का स्विच ऑन किया और वहाँ पर सुरीला
संगीत गूँजने लगा। आदिवासी इससे अतिशय चमत्कृत हुए जबकि वास्तविक रूप से यह कार्य तो ध्वनि ऊर्जा
के निमयों के अनुसार ही संपन्न हो सका। इस घटनाक्रम को सुनाते हुए युग-ऋषि श्रीराम
‘आचार्य’ का कहना था कि सृष्टि में कहीं किसी तल पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जो प्रकृति के नियमों के अनुरूप न हो। इन
नियमों के विपरीत किसी घटनाक्रम का घटित होना संभव ही नहीं। ऐसी बातें न केवल
अवैज्ञानिक हैं, बल्कि इनका आध्यात्मिकता
से भी कोई मतलब नहीं।
No comments:
Post a Comment