मन्त्र दीक्षा लेते समय शिष्य प्रतिज्ञा करता है कि ‘‘गुरू का आदेश, अनुशासन पूर्ण श्रद्धा के साथ मानूँगा। समय-समय पर उनकी सलाह से अपनी जीवन नीति निर्धारित करूँगा। अपनी सभी भूलें निष्कपट रूप से उन पर प्रकट कर दिया करूँगा।’’ आचार्य शिष्य को मन्त्र का अर्थ समझाता है और माता गायत्री को यज्ञोपवीत रूप से देता है। शिष्य देवभाव से आचार्य का पूजन करता है और गुरू-पूजा के लिए उन्हें वस्त्र, आभूषण, पात्र, भोजन, दक्षिणा आदि सामथ्र्यानुसार भेंट करता है। रोली, अक्षत, तिलक, कलावा आदि के द्वारा दोनों परस्पर एक दूसरे को बाँधते है। मन्त्र-दीक्षा एक प्रकार से दो व्यक्तियों में आध्यात्मिक रिश्तेदारी की स्थापना है। इस दीक्षा के पश्चात् पाप-पुण्य में से एक प्रतिशत के भागीदार हो जाते हैं। शिष्य के सौ पापों में से एक का फल गुरू को भोगना पड़ता है। इसी प्रकार पुण्य में भी एक दूसरे के साझीदार होते हैं, यह सामान्य दीक्षा है। यह मन्त्र-दीक्षा साधारण श्रेणी के सुशिक्षित सत्पुरुष आचार्य प्रारम्भिक श्रेणी के साधक को दे सकते हैं।
द्वितीय भूमिका- ‘अग्नि दीक्षा’
दूसरी भुवः
भूमिका में पहुँचने पर दूसरी दीक्षा लेनी पड़ती है। साधारण: लोग आत्मोन्नति
की ओर कोर्इ ध्यान नहीं देते, थोड़ा-सा देते हैं तो उसे बहुत भारी बोझ समझते हैं, कुछ जप-तप करते हैं तो उन्हें अनुभव होता है मानों बहुत बड़ा मोर्चा जीत रहे हों। परन्तु जब आन्तरिक
स्थिति भुव: में पहुँचती है तो साधक को बड़ी बेचैनी और असन्तुष्टि होती है, उसे अपना साधन बहुत साधारण दिखार्इ पड़ता है और अपनी उन्नति उसे, बहुत मामूली दीखती है। उसे छटपटाहट एवं जल्दी होती है कि मैं किस प्रकार शीघ्र लक्ष्य तक पहुँच जाऊँ।
अपनी उन्नति चाहे कितनी ही सुव्यवस्थित ढंग से हो रही हो पर उसे सन्तोष नहीं होता।
यह व्याकुलता उसकी कोर्इ भूल नहीं होती वरन् भीतर ही भीतर जो तीव्र क्रिया शक्ति
काम कर रही है उसकी प्रतिक्रिया है। भीतरी क्रिया शक्ति, प्रवृति और प्रेरणा का बाह्य लक्षण असन्तोष है। यदि असन्तोष न हो, तो समझना चाहिए कि साधक की क्रिया शक्ति शिथिल हो गर्इ। जो साधक दूसरी
भूमिका में है, उसका असन्तोष जितना ही तीव्र
होगा उतनी ही क्रिया शक्ति तेजी से काम करती रहेगी। बुद्धिमान् पथ-प्रदर्शक, दूसरी कक्षा में
साधक में सदा असन्तोष भड़काने का प्रयत्न करते हैं ताकि आन्तरिक क्रिया और भी तेज
हो। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वह असन्तोष कहीं निराशा में परिणत न
हो जाय। अग्नि-दीक्षा लेकर साधक का आन्तरिक प्रकाश स्वच्छ हो जाता है और उसे अपने
छोटे से छोटे दोष
दिखार्इ पड़ने लगते हैं। अँधेरे में, धुंधुले प्रकाश में बड़ी वस्तुए भी ठीक प्रकार दीखती हैं और कर्इ बार तो
प्रकाश की तेजी के कारण वे वस्तुए और भी अधिक महत्वपूर्ण दीखती है। आत्मा में
ज्ञानाग्नि का प्रकाश होते ही साधक का अपनी छोटी-छोटी भूल, बुरार्इ, कमियाँ भली प्रकार दीख पड़ती है। उसे मालूम पड़ता है कि मैं असंख्य बुराइयों
का भण्डार हूँ, नीची श्रेणी के मनुष्यों से
भी मेरी बुराइयाँ अधिक है। अब भी पाप मेरा पीछा नहीं छोड़ते। इस प्रकार वह अपने
अन्दर घृणास्पद तत्वों को बड़ी मात्रा में देखता है। जिन गलतियों को साधारण श्रेणी के लोग
कतर्इ गलती नहीं मानते, उनका नीर-क्षीर विवेक वह
करता है। मानस पापों तक से दुखी: होता है।
मन्त्र दीक्षा के लिये कोर्इ भी विचारवान्, दूरदर्शी, उच्च चरित्र, प्रतिभाशाली सत्पुरूष उपयुक्त हो सकता है, वह अपनी तर्क शक्ति और बुद्धि से शिष्य के विचारों का परिमार्जन कर सकता है। उसके कुविचारों
को भ्रमों को सुलझाकर अच्छार्इ के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक सलाह, शिक्षण एवं उपदेश दे सकता है, अपने प्रभाव से उसे प्रभावित
भी कर सकता है। अग्नि-दीक्षा के लिए ऐसा गुरू चाहिए जिसके भीतर अग्नि पर्याप्त मात्रा में हो, तप की पूँजी का जो धनी हो। दान वही कर सकता है जिसके पास धन हो, विद्या वही दे सकता है जिसके पास विद्या हो। जिसके पास जो वस्तु नहीं वह
दूसरों को क्या देगा? जिसने स्वयं तप करके प्राण
शक्ति संचित की है अग्नि अपने अन्दर प्रज्वलित कर रखी है, वही दूसरों को
प्राण या अग्नि देकर भुव: भूमिका की दीक्षा दे सकता है।
तीसरी भूमिका-’ब्रह्म-दीक्षा’
तीसरी भूमिका-’ब्रह्म-दीक्षा’
तीसरी भूमिका ‘‘स्व: है। इसे ब्रह्म-दीक्षा कहते हैं। जब दूध अग्नि पर औटाकर नीचे उतार लिया जाता है और ठण्डा हो जाता है तब उसमें दही का जामन देकर जमा दिया जाता है, फलस्वरूप वह सारा दही ही बन जाता है। मन्त्र द्वारा –ष्टिकोण का परिमार्जन करके साधक अपने सांसारिक जीवन को प्रसन्नता और सम्पन्नता से ओत-प्रोत करता है, अग्नि द्वारा अपने कुसंस्कारों, पापों, भूलों, कषायों, दुर्बलताओं को जलाता है, उनसे अपना पिण्ड छुड़ाकर बन्धन मुक्त होता है एवं तप की ऊष्मा द्वारा अन्त:करण को पकाकर ब्रह्मीभूत करता है। दूध पकते-पकते जब रबड़ी, मलार्इ आदि की शक्ल में पहुँच जाता है तब उसका मूल्य और स्वाद बहुत बढ़ जाता है। पहली ज्ञान-भूमि, दूसरी शक्ति-भूमि और तीसरी ब्रह्म-भूमि होती है। क्रमश: एक के बाद एक को पार करना पड़ता है। पिछली दो कक्षाओं को पारकर साधक जब तीसरी कक्षा में पहुँचता है, तो उसे सदगुरू द्वारा ब्रह्म-दीक्षा लेने की आवश्यकता होती है। यह ‘‘परा’’ वाणी द्वारा होती है। वैखरी वाणी द्वारा मुँह से शब्द उच्चारण करके ज्ञान दिया जाता है। मध्यमा और पश्यन्ती वाणियों द्वारा शिष्य के प्राणमय और मनोमय कोश में अग्नि संस्कार किया जाता है। परा वाणी द्वारा आत्मा बोलती है और उसका संदेश दूसरी आत्मा सुनती है। जीभ की वाणी कान सुनते हैं, मन की वाणी नेत्र सुनते हैं, हृदय की वाणी हृदय सुनता है और आत्मा की वाणी आत्मा सुनती है। जीभ ‘वैखरी’ वाणी बोलती है मन ‘मध्यमा’ बोलता है हृदय की वाणी ‘पश्यन्ती’ कहलाती है और आत्मा ‘परा’ वाणी बोलता है। ब्रह्म-दीक्षा में जीभ, मन, हृदय किसी को नहीं बोलना पड़ता। आत्मा के अन्तरंग क्षेत्र में जो अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे दूसरी आत्मा ग्रहण करती है। उसे ग्रहण करने के पश्चात वह भी ऐसी ही ब्रह्मीभूत हो जाती है जैसा थोड़ा-सा दही पड़ने से औटाया हुआ दूध उसका सब दही बन जाता है।
द्विजत्व की तीन कक्षाएँ हैं- (1) ब्राह्मण, (2) क्षत्रिय, (3) वैश्य। पहली कक्षा है -वैश्य। वैश्य का उद्देश्य है, सुख सामग्री का उपार्जन। उसको मन्त्र (विचार) द्वारा यह लोक व्यवहार सिखाया जाता है, वह –ष्टिकोण दिया जाता है जिसके द्वारा सांसारिक जीवन सुखमय, शान्तिमय, सफल एवं सुसम्पन्न बन सके। बुरे गुण, कर्म एवं स्वभावों के कारण लोग अपने आपको चिन्ता, भय, दु:ख, रोग क्लेश एवं दरिद्रता के चंगुल में फँसा लेते हैं। यदि उनका –ष्टिकोण सही हो, दस शूलों से बचे रहें, तो निश्चय ही मानव जीवन स्वर्गीय आनन्द से ओत-प्रोत होना चाहिए। क्षत्रिय तत्त्व का आधार है शक्ति। शक्ति तप से उत्पन्न होती है। दो वस्तुओं का घिसने से गर्मी पैदा होती है। पत्थर पर घिसने से चाकू तेज होता है। बिजली की उत्पत्ति घर्षण से होती है बुराइयों के, त्रटियों के, कुसंस्कारों के, विकारों के विरूद्ध संघर्ष, कार्य को तप कहते हैं। तप से आत्मिक शक्ति उत्पन्न होती है और उसे जिस दिशा में भी प्रयुक्त किया जाए उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाते हैं। शक्ति स्वयं ही चमत्कार है, शक्ति का नाम ही सिद्धि है। अग्नि-दीक्षा से तप आरम्भ होता है, आत्म-दान के लिए युद्ध छेड़ा जाता है। गीता में भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया था कि ‘तू निरन्तर युद्ध कर।’ निरन्तर युद्ध किससे करता।? महाभारत तो थोड़े ही दिन में समाप्त हो गया था, फिर अर्जुन निरन्तर किससे लड़ता? भगवान् का संकेत आन्तरिक शत्रुओं से संघर्ष जारी रखने का था। यही अग्नि दीक्षा का उपदेश था। अग्नि-दीक्षा से दीक्षित व्यक्ति में क्षत्रियत्व का, साहस का, शौर्य का, पुरुषार्थ का, पराक्रम का विकास होता है। इससे वह यश का भागी बनता है।
मन्त्र-दीक्षा से साधक व्यवहार कुशल बनता है और अपने जीवन को सुख-शान्ति, सहयोग एवं सम्पन्नता से भरा-पूरा कर लेता है। अग्नि-दीक्षा से उसकी प्रतिभा, प्रतिष्ठा, ख्याति, प्रशंसा एवं महानता का प्रकाश होता है। दूसरों का सिर उसके चरणों में स्वत: झुक जाता है। लोग उसे नेता मानते हैं, उसका अनुसरण और अनुगमन करते है। इस प्रकार उपयुक्त दो दीक्षाओं द्वारा वैश्य और क्षत्रिय बनने के उपरान्त साधक ब्राह्मण बनने के लिए अग्रसर होता है। ब्रह्म-दीक्षा से उसे ‘दिव्य –ष्टि’ मिलती है, इसे नेत्रोन्मीलन कहते है। शंकर जी ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला दिया था अर्जुन को भगवान् ने ‘‘दिव्यं ददामि ते चक्षु:’’ दिव्य नेत्र देकर अपने विराट् स्वरूप को दर्शन सम्भव करा दिया था। वह तृतीय नेत्र हर योगी का खुलता है, उसे वे बातें दिखार्इ पड़ती हैं जो साधारण व्यक्तियों को नहीं दीखती। उनको कण-कण में परमात्मा का पुण्य प्रकाश बहूमूल्य रत्नों की तरह जगमगाता हुआ दिखार्इ पड़ता है। भक्त माइकेल को प्रत्येक शिला में स्वर्गीय फरिश्ता दिखार्इ पड़ता था। सामान्य व्यक्तियों की –ष्टि बड़ी संकुचित होती है, वे आज के हानि-लाभों में ही रोते-हँसते है, पर ब्रह्मज्ञानी दर तक देखता है वह वस्तु और परिस्थिति पर पारदर्शी विचार करता है और प्रत्येक परिस्थिति में प्रभु की लीला एवं दया का अनुभव करता हुआ प्रसन्न रहता है। विश्व मानव की सेवा में ही वह अपना जीवन लगाता है। इस प्रकार ब्रह्म दीक्षा में दीक्षित हुआ साधक परम भागवत होकर, परम शान्ति को अन्त:करण में धारण करता हुआ दिव्य तत्त्वों से परिपूर्ण होता जाता है। इस श्रेणी के साधकों को ही भूसुर कहते हैं।
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