परंतु योग के अभ्यास से बुद्धि प्रज्ञा
में परिवर्तित, रूपांतरित
हो जाती है। तब उसे प्राप्त होता है-प्रकाश, मानो कि बुद्धि नेत्रहीन से नेत्रवान हो गई हो। हाँ, ऐसी स्थिति में बुद्धि में दृष्टि आती
है। यानी कि देखने की क्षमता। दोनों में अंतर बस, अंधे और देख सकने वाले का
होता है। अंधा केवल टटोल सकता है, यानी कि अनुमान, तर्क, विश्लेषण, विवेचन, व्याख्या से काम चलाता है। ये सभी प्रक्रियाएँ टटोलने की हैं जबकि देखने
वाले को टटोलने की कोई जरूरत नहीं है, वह सीधे देख सकता है। बात दृष्टि की है, देख पाने की शक्ति की है, योगी की यह शक्ति है
प्रज्ञा का प्रकाश। यह कुछ ऐसे कार्य करता है, जैसे कि हमारे हाथ में ली
हुई टॉर्च। टॉर्च के स्विच
को ऑन करके इसके प्रकाश को
हम जहाँ भी प्रक्षेपित करते हैं, हमें वहीं की चीजें दिखाई देने लगती हैं। बस, इसी तरह यदि संयमसिद्ध योगी किसी पदार्थ की आणविक संरचना देखना चाहे तो वह उसे देख सकता है।
औषधियों के सूक्ष्म गुणों को वह आसानी से पहचान सकता है। योगी की यह प्रकाशित
प्रज्ञा इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से भी कहीं अधिक क्षमता से कार्य करती है। जिस
तरह से वह सूक्ष्म चीजें देख सकता है, ठीक उसी तरह से वह छिपी हुई चीजें भी देख सकता है। धरती में दबे हुए खनिज, खजाने, समुद्र में छिपे हुए
प्राकृतिक सत्य-ये सभी योगी अपनी प्रकाशित प्रज्ञा से
देख सकता है। इतना ही नहीं इस प्रक्रिया से शरीर व मन की आंतरिक बीमारियाँ पहचानी
जा सकती है। न केवल इतना भर, बल्कि वहाँ प्रकाश व प्राण भेजकर इनका निवारण-निराकरण भी किया जा सकता है।
ऋषि पतंजलि ने अपने योग दर्शन एवं साधना विषयक अनुशासन
को चार भागों 1. समाधि पाद 2. साधन पाद 3. विभूति पाद और 4. कैवल्य पाद में विभक्त
किया है जिनमें क्रमशः 55, 51, 55 एवं 34 अर्थात् कुल 195
सूत्र है। समाधिपाद के प्रथम दो सूत्र बहुत सार गर्भित है।
अथ
योगानुशासनम् ॥ सूत्र 1 ॥
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
॥ सूत्र 2 ॥
पहला सूत्र कहता है-अब योग के अनुशासन का प्रारम्भ होता है अर्थात
योग साधना एक प्रकार का अनुशासन है जिसको जीवन में पालन करना होता है दूसरा सूत्र
कहता है-योग से चित्त भी वृत्तियों का निरोघ होता है अर्थात यदि योग के अनुशासन का
ठीक से पालन करें तो चित्त की वृत्तियाँ शान्त हो जाती है। इसके स्पष्ट होता है कि
योग साधना चित्त के परिष्कार के लिए है। व्यक्ति के मन में जो हलचल है वह चित्त के
संस्कारों के कारण है। साधना के द्वारा अन्तर्मुखी होकर उन संस्कारों को काटना
होता है। यह कार्य लिखने कहने में जितना सरल है परन्तु वास्तव में है बहुत कठिन।
उदाहरण के लिए अनेक जन्म की भोग-वृत्ति के कारण निर्मित संस्कार
मनुष्य को सदा भोगों की ओर ही आकर्षित करते रहते
है। चित्त की वृत्तियाँ कितने प्रकार की होती है तथा उन्हें कैसे रोका जाए यह
विज्ञान ही योग शास्त्र में वर्णित है।
अभ्यास
वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ सूत्र 12 ॥
अर्थात
अभ्यास और वैराग्य से चित्त वृत्तियों का निरोध सम्भव है।
साधक पाद में अष्टांग योग का वर्णन किया गया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि ये थोड़ा के आठ
अंग बताए गए है।
ऋषि पतंजलि अपने योग दर्शन में सर्वप्रथम पाँच यम व पाँच नियमों का
वर्णन करते हैं। सृष्टि के संचालन व विधि व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिन अनुशासनों
का पालन कठोरता-पूर्वक करना होता है उन्हें यम कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार
यम सृष्टि को सन्तुलित व नियन्त्रित करने वाले देवता हैं। यदि यम की उपेक्षा
प्रारम्भ हो गयी तो विनाश हो जाएगा, धरती पर
जीवन का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। अतः किसी भी प्रकार का व्यक्ति हो यम
सबके लिए अनिवार्य (mandatory) है अन्यथा जीवन में दुर्गति
होगी। यम के अन्तर्गत पाँच बातें आती हैं। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं अस्तेय (non -
stealing)।
यदि हम सच बोलना छोड़ते रहे तो पूरे विश्व में कोई एक दूसरे पर
विश्वास ही नहीं करेगा सब जगह धोखाधड़ी होने से जीवन संकटों से भर जाएगा। यदि हमने
अहिंसा को महत्त्व नहीं दिया तो चारों ओर मार काट मच जाएगी। इसी प्रकार यदि
ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा नहीं रही तो चारों ओर
कामुकता फैल जाएगी और जीवनी शक्ति का ह्यास हो जाएगा। इसी प्रकार धरती के संसाधन (resources) सीमित
हैं। यदि एक व्यक्ति जरूरत से ज्यादा उपभोग करेगा तो दूसरा भूखा मरेगा। इसलिए
आवश्यकतानुसार सीमा के भीतर सामान प्रयोग करें। जैसे यदि लकड़ी, जल आदि को अनावश्यक बरबादी
करेंगे तो संकट खड़ा हो जाएगा। अतः सुखी रहने के लिए आवश्यकताएँ कम करें। इस
मानसिकता (philosophy) को अपरिग्रह कहते है।
अस्तेय का अर्थ है हक-हलाल की कमाई करें। किसी दूसरे के माल पर अपनी नीयत न खराब
करें।
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