अपरिग्रह
हमें यदि चार रोटी की भूख है तो चार ही पकाएँ तीन खाएँ व एक गाय, कुत्ते, चिडि़या आदि को दें। यह अपरिग्रह है। पाँच साड़ी की आवश्यकता है तो पचास क्यों खरीदते हो? आपने 45 साड़ी फालतू खरीद कर लगभग एक दर्जन लोगों को वस्त्र रहित कर दिया। इसका पाप कौन भुगतेगा? हमें इस या अगले जन्म में इसका दण्ड अवश्य मिलेगा। इतने लोगों का श्रम, इतना जल हमने निरर्थक बहा दिया। यज्ञ किया तो लोग पचास बैठे हैं परन्तु कुण्ड नौ बनाएँ। पाँच कुण्डों में क्यों नहीं काम चलाया? हवन कुण्ड में अनावश्यक लकड़ी पर लकड़ी ठूस कर धुँआ और बढ़ा दिया। हर जगह यही बरबादी, पता नहीं मेरे भारत के लोग कब समझदार होंगे? कब इस दिखावे और चकाचैंध की मानसिकता को छोड़ अपरिग्रह का जीवन जीएँगे।
हम मात्र एक या दो बच्चों का भरण पोषण ठीक से कर सकते हैं, उनको संस्कारवान बना सकते हैं। परन्तु चार बच्चे पैदा कर डाले अपनी भी दुर्गति करायी बच्चों की भी दुर्गति। प्रोफेशनल कॅालेजों में देखें तो अनावश्यक report file बनती हैं। बच्चे रातोंरात एक दूसरे की नकल मार सुबह assignments जमा कर देते हैं। अध्यापक को भी पता है परन्तु फिर भी फाइल के नम्बर देने का चलन है। फाइल है नम्बर दिए फाइल को रद्दी में फेंका। दुनिया भर की पत्रिकाएँ बिना पढ़ें रद्दी में जा रही हैं। conferences और proceedings यदि एक हजार छपती हैं तो मुश्किल से 100 ही कोई खोल कर देखता होगा बाकी 900 या तो लोगों की अलमारियों में सजी होती हैं या कबाड़ी के हवाले कर दी जाती हैं। झूठी शान के लिए हम करोड़ों अरबों रूपया बहा देते हैं इसका जिम्मेदार कौन? सरकार, प्रशासन और देश का हर वह नागरिक जो इसका विरोध नहीं करता।
कैसी सड़ी मानसिकता है हमारी, किसी ने मुफ्त में कलैण्डर दिया, झट ले लिया, घर में जगह नहीं है टांगने की। किसी ने मुफ्त में पुस्तक बाँटी, दौड़कर ली यह नहीं देखा काम की है या नहीं, लेकर बैग में डालकर बाबू जी बनकर चलते बने। जहाँ से जो मिले ले लो, उचित-अनुचित सब कुछ बटोर लें।
युग-ऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी अपने कमरे में पंखा भी नहीं चलाते थे। गाँधी जी ने एक दो धोती में पूरा जीवन गुजार दिया। हमारे साधु-सन्त, ऋषि-मुनि सभी सीमित साधनों में गुजारा करते थे। एक बार गाँधी जी इलाहाबाद में मंजन-कुल्ला कर रहे थे, एक व्यक्ति उनके हाथों पर पानी डाल रहा था। व्यक्ति का ध्यान भटका और पानी उनकें हाथों में अधिक पड़ गया व नीचे गिरने लगा। गाँधी ने उसको टोका कि कार्य ध्यान से करें। उसकी लापरवाही से इतना जल व्यर्थ चला गया। वह व्यक्ति बोला, "बापू आप परेशान न हों यहाँ गंगा, यमुना दो नदियाँ बहती है, पानी की कोई कमी नहीं है।" गाँधी जी नाराज हुए व बोले, "नदियाँ इसलिए नहीं बहती कि हम तुम मिलकर इनकें जल को बरबाद करें। प्रकृति के संसाधनों का समुचित उपयोग करना सीखो, जितना आवश्यक हो उतना लो।" व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास हुआ व क्षमा माँगी।
आज तो बहुत से साधु-सन्तों, लोकसेवियों का बढि़या मेकअप व मँहगें ब्यूटी पार्लर्स में बालों की setting होती है जिसमें हजारों रूपया लगता है। तत्पश्चात् मंचों पर चढ़कर भोली-भाली जनता को त्याग-तपस्या का उपदेश दिया जाता है। इसीलिए किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अभी तो उस परमब्रह्म ने बड़े चोर व ढ़ोंगी पकड़े हैं परन्तु आने वाले समय में छोटे चोर भी पकड़े जाएँगे। जिस-जिस के पाप का घड़ा भरता रहेगा उसको जनता छोड़ेगी नहीं। जिस दिन जनता जाग गयी उस दिन सबसे पहले ढ़ोगियों की बोटी-बोटी नोच लेगी। अरे चमड़े के इस शरीर पर गुमान करता है इसके लिए मरता खपता है इसको सजाने संवारने में ही उलझा रहता है किसी ने कहा है-
"हम वासी उस देश के जहाँ परमब्रह्म का खेल"
परमब्रह्म की ऊँची सोच रखने वाला मेरा यह भारत कैसे चमड़े के खेल में उलझ गया? युग-ऋषि श्रीराम ‘आचार्य’ जी कार्यकर्ताओं के बढ़ते अहं को देखकर कई बार बड़े नाराज होते थे। एक बार उन्होंने मानव का पूरा कंकाल मंगवाया। शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में स्वयं को पहचानने के लिए पाँच दर्पण लगे है उन पर लिखा है ‘अंह ब्रह्मस्मि’, ‘अयमात्मा परमब्रह्म’ ‘तत्वमसि’ ‘सोऽहम्’ ‘शिवोऽहम्’
जिससे व्यक्ति अपने आत्मरूप को, शिव स्वरूप को पहचाने। उन्होंने कहा पाँचों दर्पणों के साथ यह कंकाल भी टाँग दो ताकि व्यक्ति को यह भी पता चले कि जिस शरीर के लिए वह अनमोल मानव जीवन गंवा देता है उसकी असलियत क्या है? सुनते है कुछ दिन वह कंकाल टंगा रहा तत्पश्चात् उतार दिया गया। उसको देखकर कुछ महिलाएँ व बच्चे डर गए थे।
एक बार राजा जनक की सभा में महातपस्वी अष्टावक्र पधारें। राजा जनक विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। अष्टावक्र जी आठ जगह से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर लिए घूमते थे। उनको दरबार में आता देख राजा के सभासदों को उनके विचित्र शरीर पर हँसी आ गई। अष्टावक्र जी भी जोर-जोर से हँसने लगे एवं राजा जनक से बोले आप जैसे ज्ञानी राजा के दरबार में कोई तो विद्वान होगा परन्तु यहाँ तो सभी चर्मकार भरें पड़े हैं। जो केवल शरीर के चमड़े को देखते हैं आत्मा की महानता को नहीं। ऋषि की गम्भीर वाणी सुनकर सभी सभासद लज्जित हुए और ऋषि के चरणों में गिर कर माँफी माँगने लगे। अष्टावक्र जी के ब्रह्मज्ञान का अमृत पा राजा जनक विदेह हो गए अर्थात् शरीर की भौतिक सीमा से ऊपर उठ कर परमब्रह्म में लीन रहने लगे।
आत्मज्ञान एवं ब्रह्मज्ञान की इस परकाष्ठा तक पहुँचने के लिए आत्मा को प्रधानता देनी होगी। यदि हम शरीर व उससे सम्बिंधित चीजों की ही चिन्ता करते रहे तो हम आत्म-कल्याण के इस अनमोल अवसर से वंचित रह जाएँगे। शरीर निर्वाह के लिए साधनों का समुचित उपयोग व अधिक संग्रह की वृत्ति का परित्याग यही सन्देश देते है।
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अस्तेय
अपने खून-पसीने की कमाई से धन कमाना एवं मुक्तखोरी, कामचोरी और रिश्वतखोरी को न अपनाना
यह सन्देश देता है ऋषि पतंजलि का अस्तेय का सूत्रः-
हमारे शास्त्रों में तीन महत्वपूर्ण सूत्र देखने को मिलते हैं।
1. आत्मवत् सर्वभुवेषु-सबको अपनी आत्मा के समान समझो।
2. मातृवत् पर्दावेषु- अर्थात् अपनी पत्नी को पवित्र अन्य सभी को माँ के रूप में देखों।
3. लोस्थवत् परद्रव्येषु-अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझों।
हम किसी के धन पर बुरी दृष्टि ना जमाएँ, धन के उपार्जन में अनैतिक न हो जो कुछ परमात्मा ने हमें दिया है, उसी में सन्तोष करना सीखें। आज समाज में व्यक्ति दूसरों को देखकर ईष्र्या अथवा प्रतिद्वन्दिता करने लगता है यदि पड़ौस की औरत कोई आभूषण खरीद के लाई है तो हमारे पास भी वह आभूषण होना चाहिए। यदि पड़ौसी ने बड़ी गाड़ी खरीदी है तो हमारे पास भी बड़ी गाड़ी होनी चाहिए। चाहें मुझे उसकी आवश्यकता हो या न हो, चाहे मेरी सामथ्र्य उतनी हो या न होऋ फिर व्यक्ति उस चक्कर में उल्टे-सीधे तरीकों से धन कमाने की कोशिश करता है व अपना सुख, चैन, स्वास्थ्य सब कुछ खो बैठता है पता नहीं वह गाड़ी व आभूषण व्यक्ति को सुख दे पाएगी या नहीं परन्तु उसकी प्राप्ति के लिए जो कलह-क्लेश उत्पन्न होता है उससे उसके जीवन की शान्ति जरूर चली जाती है।
भारतीय समाज में यह समस्या हर जगह व्याप्त है। सामाजिक संस्थाओं में बड़े-बड़े पदों को अपनाने के लिए लोगों में खूब छीना-छपटी, मारपीट तक होती है। लोग हर प्रकार हथकंड़े अपना कर बड़े पदों को हथियाना चाहते है। दूसरे के हक को न मारे; अपने आप को व्यर्थ में प्रदर्शित न करें, पैसे की दौड़ में न दौड़े, बल्कि परिश्रम और सेवा का रास्ता अपना कर आत्म-सन्तोष के साथ प्रसन्न मन से जीवन जीएँ यही भावना इस सूत्र में। किसी ने सत्य ही कहा है-
गोधन, गजधन, बाजीधन और रत्नधन खान।
जब आवें सन्तोष धन, सब धन धूरी समान।।
श्वास
श्वास की डोर से जीवन की माला गुँथी है। जिंदगी का हर फूल इससे जुड़ा और इसी में पिरोया है। श्वासों की लय और लहरें इन्हें मुस्कराहटें देती हैं। इनमें व्यतिरेक, व्यवधान, बाधाएँ-विरोध और गतिरोध होने लगे तो सब कुछ अनायास ही मुरझाने और मरने लगता है। शरीर हो या मन, दोनों ही श्वासों की लय से लयबद्ध होते हैं। इसकी लहरें ही इन्हें सींचती हैं, जीवन देती हैं; यहाँ तक कि सर्वथा मुक्त एवं सर्वव्यापी आत्मा का प्रकाश भी श्वासों की डोर के सहारे ही जीवन में उतरता है।
श्वासों की लय बदलते ही जीवन के रंग-रूप अनायास ही बदलने लगते हैं। क्रोध, घृणा, करुणा, वैर, राग-द्वेष, ईष्र्या-अनुराग प्रकारांतर से श्वास की लय की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही है; यह बात कहने-सुनने की नहीं, अनुभव करने की है। यदि महीने भर की सभी भावदशाओं एवं अवस्थाओं का चार्ट बनाया जाए तो जरूर पता चल जाएगा कि श्वास की कौन सी लय हमें शांति व विश्रांति देती है। किस लय में मौन, शांत, और सुव्यवस्थित होने का अनुभव होता है? किस लय के साथ अनायास ही जीवन में आनंद घुलने लगता है? ध्यान और समाधि भी श्वासों की लय की परिवर्तनशीलता ही है।
श्वास की गति वलय को जागरूक हो परिवर्तित करने की कला ही तो प्राणायाम है। यह मानव द्वारा की गई अब तक की सभी खोजों में महानतम है; यहाँ तक कि चाँद और मंगल ग्रह पर मनुष्य के पहुँच जाने से भी महान; क्योंकि शरीर से मनुष्य कहीं भी जा पहुँचे, वह जस का तस रहता है, परंतु श्वास की लय के परिवर्तन से तो उसका जीवन ही बदल जाता है। हालाँकि यह लय परिवर्तन होना चाहिए आंतरिक होशपूर्वक, जो प्राणायाम की किसी बँधी-बँधाई विधि द्वारा संभव नहीं है। यदि विधि ही खोजनी हो तो प्रत्येक श्वास के साथ होशपूर्वक रहना होगा और साथ ही श्वास-श्वास के साथ भगवन्नााम के जप का अभ्यास करना होगा। ऐसा हो तो श्वासों की लय के साथ जीवन की लय बदल जाती है।
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