भागवत यन्त्र
सारी सृष्टि भगवान की
रचना है, उनकी आत्म-अभिव्यक्ति है। शास्त्र इसे उनकी लीला भी कहते हैं, जिसमें मानव-आत्मा भाग लेने के लिए अवतरित होती है। इसे एक नाटक के
रूप में भी देखा जाता है, जिसमें प्रभु
ही मंच हैं, प्रभु ही कलाकार हैं, प्रभु ही अभिनय और दर्शक हैं। कुछ भी कहें, यह सब जो है, उनका
आत्म-प्रकटन है। जो उन्होंने अपने लिए, अपने अंदर
स्वयं किया है। नाटक कहें या लीला, जो भी हो, इसे समझने के लिए हमें इसके पीछे जाना होगा। वस्तुओं में छिपे सत्य को
खोजना होगा। अपने व्यक्तित्व के विषय में हमारी जो धारणा है, वह भूल है। जिसे हम अपना समझते हैं, वह केवल हमारी
बाह्य सत्ता है। हमारे व्यक्तित्व का सत्य नहीं, हमारा सच्चा
स्वरूप नहीं। हमारा सच्चा स्वरूप, सच्चा
व्यक्तित्व,हमारे इस बाह्य पुरुष के, इन तन-मन रूपी यंत्रों के पीछे, इनके भीतर दूर
स्थित है। वह एक ज्योतिर्मय पुरुष है, जो दिव्य है, अजर है, अमर है, देश और काल के परे, जन्म-मरण से
रहित है। अपने भीतर छिपी इस आत्मा को केवल वे ही नर-पुंगव प्राप्त करते हैं, जो इसके लिए अभीप्सा करते हैं,इसके चिंतन में
डूबे रहते हैं। जो इसके लिए जीवन का हर सुख बलिदान करने को उद्यत रहते हैं।
इंद्रियों के आवेग, भोगों की कामना, संग्रह की वृत्ति जिन्हें स्पर्श नहीं करती। काम, क्रोध, लोभ, मोह, रूपी
दुर्बलताओं का,स्वार्थ और अहंकार से सने भावों का त्याग करते
हैं। जिनका मन अपनी पूर्ण एकाग्रता में दीपक की लौ की भाँति सदा ऊपर की ओर उठता
रहता है। जिनका हृदय निर्मल है, पूर्ण शुद्ध है, उसमें आसक्ति और वासना जैसी वस्तुओं के लिए कोर्इ स्थान नहीं। जिनकी
मानवीय सत्ता मंदिर का रूप ले चुकी है। जिनके जीवन का आधार केवल सच्चार्इ, आत्म-समर्पण और भागवत प्रेम रह गया है। जिनकी अभीप्सा जग-रूपांतर है, जिनका स्वभाव दयालु, परोपकारी है, जिनमें एक ही चाह है--प्रभु-सेवा, जिनका कर्म
केवल प्रभु-आदेश-पालन है, इसी एक कर्म
में जिनके सारे कर्म सन्निहित हैं,जिनके जीवन का
एक ही लक्ष्य है, धरती पर दिव्य
जीवन की स्थापना। ये संसार में भागवत यंत्र हैं, धन्यता के
प्रथम पात्र हैं।
जिनके अंदर आत्मा जाग्रत
है, जिनके जीवन का लक्ष्य सुख-भोग नहीं, जो मानव मात्र
के जीवन का स्तर ऊँचा उठाना चाहते हैं, दूसरों को
दुख-कष्ट से मुक्त करना चाहते हैं, वे सौभाग्यशाली
हैं, भागवत कृपा उनके साथ है। वे पृथ्वी पर प्रभु के चुने हुए, उनके अपने प्रियजन हैं, उनकी अपनी
प्यारी संतान हैं। इनका जीवन कभी अपने लिए नहीं होता। ये दूसरों के लिए, जगत के लिए, मानवता के लिए
जीते हैं। जीवन के प्रारंभिक काल में, जब इनकी
यांत्रिक सत्ता तैयार नहीं होती, इनके हृदय का
आवरण नहीं गिरता, इनकी आत्मा
सम्मुख नहीं आती और जीवन को अपने हाथों में नहीं ले लेती, इन्हें भी आत्म-अज्ञान में से गुजरना पड़ता है। इनमें भी अहंकार होता
है, कामनाएँ उठती है, वासना जाल
बुनती है, सुख-भोगों की इच्छा के बादल इनके ऊपर भी मंडराते हैं। लेकिन, इनके भीतर कोर्इ सचेतन होता है, और जीवन-घटनाओं
में हस्तक्षेप करता है। इनकी अंतर्सत्ता इनमें विवेक-दीप प्रज्वलित करती है। जगत
और जीवन के प्रति इनका –ष्टिकोण
परिवर्तित हो जाता है। जब तक ये लक्ष्य के प्रति सचेतन नहीं होते, इनकी कोर्इ इच्छा पूरी नहीं की जाती। कभी-कभी तो इनके सुख के साधन भी
छीन लिये जाते हैं। इन्हें सब कुछ तभी प्राप्त होगा, जब इनका
अस्तित्व भागवत अस्तित्व के साथ युक्त हो जायेगा, जब ये प्रभु को पूर्ण समर्पित हो जायेंगे, प्रभु के हो जायेंगे, उनमें रहेंगे
और वे इनमें निवास करने लगेंगे।
हे आत्मा, जाग ! हे मानव, सचेतन बन !
सत्य-चेतना की, अमृत-सिंधु की मधुमय धारा धरती पर उतर रही है।
ये स्वर्णिम क्षण व्यर्थ न खो। परम सौभाग्य का द्वार तेरे सम्मुख खुला है। उसमें
प्रवेश कर। जीवन को धन्य बना। भीतर आत्मा को हर्षित कर। यही अवसर है, अगर अब भी प्रकाश-पथ नजर नहीं आता, प्रभु को पुकार, पथ-प्रदर्शन के लिए प्रार्थना कर। प्रभु-चरणों में बैठ, आशीष मांग, शरणागति ले।
विश्वास मत खो,श्रद्धा रख। बाह्य कोलाहल से दूर अंतर्श्रवण कर
! एक शब्द, एक ध्वनि,चाँदी की-सी
घंटियों की झंकार। तत्पश्चात् दिव्य शंख का घोष, घोर शब्द,साथ ही आश्चर्य ! देख ! एक दिव्य –श्य, कुछ नवीन, अद्भुत !
अतिमानस की उपस्थिति, उसकी
अभिव्यक्ति का प्रारंभ ! जिस हृदय में आत्म-ज्ञान का कमल खिलता है, भागवत उपस्थिति जीवंत-जाग्रत अनुभव होती है और अपना दिव्य प्रकाश
विकीर्ण करती है; उसका वातावरण
पवित्रता से भरा होता है, वह एक शुद्ध, स्वच्छ, दिव्य सुरभि से
सुरभित, मंदिर के समान होता है। मोह-आसक्ति के बादल वहाँ प्रवेश नहीं पाते।
वहाँ केवल भागवत प्रेम के दिव्य स्पंदन स्पंदित होते हैं। भक्ति-भाव की मधुमय धारा
प्रवाहित होती है। प्रभु के लिए, प्रभु का हो कर
जीना, यही संकल्प, इसी की
ध्वनि-प्रतिध्वनि वहाँ छायी रहती है। ऐसा हृदय प्रभु का निवास-स्थान होता है। ऐसा
आधार ही, उनकी शक्ति एवं चेतना का वाहन होता है। वहीं आत्म-अग्नि का प्रज्वलन, भागवत दिव्य कमल का प्रस्फुटन, अंतस्थ देव का
प्रकटन संभव होता है। सामान्य मानव-हृदय मोह और आसक्ति का निवास-स्थान है। वहाँ
अंधकार छाया रहता है। ऐसे हृदय में भागवत उपस्थिति का प्रकटन, आत्म-चेतना का अनावरण, दिव्य पुरुष का
पथ-प्रदर्शन असंभव है। हम जब-जब वहाँ प्रवेश करते हैं काली, कुत्सित वस्तुएँ स्पष्ट दिखायी देती हैं। हम वहाँ ठहर नहीं पाते, तुरंत बाहर आने को बाध्य होते है श्वास लेना कठिन होता है, घुटन अनुभव करते हैं।
बहुत देर में हमें यह बात
समझ में आती है कि अत्याधिक कर्म करना, अत्याधिक
पढ़ना-लिखना, परोपकार या सेवा आदि में अत्याधिक व्यस्त रहना, शरीर और उसके व्यापारों की आवश्यकता से अधिक चिंता करना, अपनी उन्नति के लिए परेशान रहना, ये सब बातें
साधना में बाधक है। इन सब बातों को जीवन में आवश्यकता के अधिक महत्व प्रदान करने
का अर्थ है, जीवन को अपने ढ़ग से चलाना। जिसका व्यावहारिक
रूप है जीवन की बागडोर अहंकार के हाथों में थमा देना। जीवन का यह स्वरूप,जिसमें मन की कामनाएँ और अहंकार की मांगें ही चालक प्रेरक है, ठीक वही नहीं है जो हमारे हृदयेश्वर चाहते है। एक समर्पित व्यक्ति का
जो भाव होना चाहीए, उससे हम दूर
है। हमें अभी और सचेतन बनाना है, और अधिक
श्रद्धा से प्रभु को पुकारना है, और तब तक ऐसा
करते जाना है,जब तक प्रभु हमें पूर्ण रूप से स्वीकार न कर
लें। हम अपनी ओर से पूणर्रूत उसके न हो जाए, हमारे अंदर
जीवन स्वामी के रूप में वे ही जीवन का संचालन न करने लगें। अर्थात जब तक पूर्ण रूप
से उसके हाथों की मुरली न बन जाए, तब तक अधिक से
अधिक सचेतन और समर्पित होकर चलने की आवश्यकता है।
साधना समर एवं दिव्य जीवन की ओर पुस्तक से साभार
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