5. मौलिकता
का त्याग न करें:- व्यक्ति ने अच्छे प्रवचन दिए अच्छी कथा की उसने यह सोचना
प्रारम्भ कर दिया कि मैं तो सबसे बढ़िया कथा कर सकता हूँ। अरे भार्इ! इस सृष्टि
में भगवान् ने सबको कोर्इ न कोर्इ प्रतिभा दी है। कोर्इ अच्छा डॉक्टर है कोर्इ
अच्छा इन्जीनियर है तो कोर्इ अच्छा अध्यापक। मान लीजिए X और Y दो व्यक्ति है। X बहुत प्रतिष्ठित डॉक्टर है व Y एक सामान्य व्यक्ति है परन्तु अच्छा गृहस्थ है। दोनो के बच्चे एक स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते है। Y का बच्चा कक्षा में
प्रथम आता है X का बच्चा सामान्य अंको से उतीर्ण होता है। X को बड़ा कष्ट होता
है। धीरे-धीरे Y का बच्चा प्रतिष्ठित डॉक्टर हो जाता है व डॉक्टर का बच्चा सामान्य
व्यक्ति बन जाता है। किसको सफल माना जाए किसको नहीं। सामान्य व्यक्ति को बड़ा आत्म सन्तोष है कि
उसका बच्चा बड़ा लायक निकला। दूसरा परेशान है कि इतना बड़ा डॉक्टर होने के बाद औलाद
सामान्य निकली।
ऐसा
क्यों? हम अपने ऊपर एक कलेवर ओढ़ लेते है उसके दम्भ में अपने जीवन के अन्य पक्षों को नकार देते है। अत: कभी भी अपने ऊपर किसी प्रकार की ego को हावी न होने दें।
नहीं भार्इ, मैं ही गायत्री परिवार में सबसे बड़ा साधक हूँ । कहीं जाता हूँ तो कुछ
भी नहीं खाता पीता, लोगों में मेरा बड़ा सम्मान है। एक बार किसी धनवान के यहाँ गए
तो उसको खुश करने के चक्कर में चाय समोसा खा लिया। छुपने की कोशिश तो की परन्तु
बात फैल गयी। विवाद के घेरे में आ गया। प्रवचन अच्छे से अच्छा करें, साधना अच्छी
से अच्छी करें परन्तु रहें सामान्य। सामान्य बने रहने का एक सरल उपाय है आप हृदय
से चाहें कि आपके सामने वाला भी अच्छा प्रवचनकर्ता बने, अच्छा साधक बनें। उसके लिए
भगवान् से प्रार्थना करे। यह न सोचें कि मात्र मै ही महान हूँ केवल मै ही ऐसा कर सकता हूँ, केवल मै ही अच्छी कुर्सी सम्भाल सकता हूँ।
यदि व्यक्ति ने अपनी मौलिकता-सरलता खो दी तो
उसके अन्दर भाँति-भाँति की ग्रन्थियाँ बननी प्रारम्भ हो जाएँगी जो उसकी प्रतिभा,
उसके स्वास्थ्य व साथ-साथ उसके परिवार को भी ले डूबेंगी। इसलिए ऋषी कहते है सबका
भला हो, सबको सन्मार्ग पर चलाओं सबको प्रतिभावान बनाओं। हे परमात्मा, मेरे गायत्री
परिवार में सब प्रतिभाशाली हों, मैं तो कुछ भी नहीं , आने वाली पीढ़ी मुझसे भी
ज्यादा सक्षम हो। हे गुरुदेव, अब मै वृद्ध हो चुका हूँ कब तक इस कुर्सी का बोझ ढ़ोता
रहूँगा , इससे चिपका रहूँगा। मुझे आत्मज्ञान की राह दिखाओं जो मेरा असली जीवन लक्ष्य
है। इस कुर्सी के लिए कोर्इ श्रेष्ठ पात्र भेज दो। अब इस कुर्सी पर बैठते-बैठते
मेरी कमर दु:खने लगी है अत: दया करें प्रभु , मुझमें ज्ञान वैराग्य उदय हो जिससे मैं
परिव्रज्या व साधना का पावन पथ अपनाकर अपना परलोक भी सुधार सकूँ। हे परमात्मा, मैं
अब तृप्त हो गया हूँ । तूने मुझे धन-वैभव, मान-सम्मान, प्रतिभा, सुखी परिवार सब
दिया। परन्तु मैं तुझ तक नहीं पहुँचा, योग पथ नहीं अपना सका, इन्हीं में उलझ कर रह
गया। सामान्य व्यक्ति और मुझमें क्या अन्तर है वह अपनी घर गृहस्थी से चिपक कर अपना
जीवन बेकार कर लेता है तो मैं कुर्सी बचाने के चक्कर में दाँव पर दाँव खेले जा रहा हूँ ।
आया था गुरु की शरण में बड़ा उद्देश्य लेकर
लेकिन घटिया व घिनौनी हरकतों में उलझ गया हूँ। परिव्रज्या परम्परा का अर्थ है जो
जहाँ है वहाँ से हट जाए। जैसे रुका पानी सड़ने लगता है वैसे एक जगह चिपका
व्यक्ति भी अपने आस पास के वातावरण को प्रदूषित करने लगता है।
कहीं पर देख लीजिए जहाँ बीस पचास लोग चार
पाँच साल से अधिक एक जगह टिके वहाँ गुटबाजी व राजनीति होनी प्रारम्भ हो जाएगी।
इसलिए सरकारी अधिकारियों के तबादले होते हैं। राजनीति में लोग एक सरकार को अधिक समय
नहीं बर्दाश्त करते। परन्तु धर्माधिकारी घर की सुख सुविधा छोड़ आश्रम की सुख
सुविधाओं में उलझ कर रह जाते है इसलिए हर तीन वर्ष पश्चात् हर जगह कुछ परिवर्तन
होता रहे तो सभी कार्य सुचारू रूप से चलते है व व्यक्ति भी आध्यात्मिक उन्नति कर
पाता है।
निवेदन यही है कि व्यक्ति अपनी मौलिकता न
छोड़े। मैं ही सबसे अच्छा प्रवचन दे सकता हूँ , मैं ही सबसे बड़ा साधक हूँ , मैं ही
इस कुर्सी के लायक हूँ , ये सब भावनाएँ मनुष्य की साधना में विघ्न पैदा करती हैं व
उसको नर्क के गर्त में धकेलती हैं।
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