आज
कुण्डलिनी के सिद्ध बहुत कम है या तो शरीर छोड़ चुके है या लाखों शिष्यो से घिरे है। अत: स्थूल मार्गदर्शन के लिए इस प्रकार की पुस्तको का अध्ययन अथवा साधको के अनुभवों का आदान प्रदान आवश्यक प्रतीत होता है। अनावश्यक अपने अनुभवों का ढ़ोल न पीटा जाए परन्तु सुपात्रों से discussion सबको लाभ ही देता हैं हमारे पास साधना मार्ग के पथिको का एक अच्छा समूह है व हम एक दूसरे के अनुभवों व ऊर्जा से बहुत लाभ लेते रहे है। यदि हम दस श्रेष्ठ साधको को एक स्थान पर एकत्र कर दस बारह घण्टा, बारी-बारी से जप ध्यान करें तो सभी एक दूसरे की ऊर्जा को बढ़ाते हैं बशर्ते कि सभी में एक दूसरे के लिए सदभावना हो व एक दूसरे को प्रेम व आदर करते हो। विदेशी society में लोग एक दूसरे से कम मतलब रखते है एक दूसरे के बारे में नहीं सोचते हैं। भारतीय समाज में जहाँ व्यक्ति एक दूसरे से प्रेम करते है वहाँ आजकल खींचतान भी खूब देखने को मिलती है। भीड़ भले ही कम हो परन्तु लोग समर्पित व सद्भावनापूर्ण वातावरण विनिर्मित करें तभी साधना में उन्नति सम्भव हैं। भीड़ बहुत बड़ी है परन्तु मानसिकता छोटी है तो कैसे साधना फलीभूत हो? ऐसी जगह तो बाधाएँ उत्पन्न होना स्वाभविक ही है। प्रत्येक शक्तिपीठ पर 24
श्रेष्ठ साधको का एक समूह बने व माह में एक बार अखण्ड जप 24
घण्टे का किया जाए। इससे सबकी साधना बढ़ेगी। हम कुछ गलतियाँ कर बैठते है मन्दिर की शोभा, भव्यता साधना सम्पन्नता बढ़ाने के चक्कर में छोटी व अंहकार वाली मानसिकता के कुछ अमीरों को जरूरत से ज्यादा महत्व दे डालते है। इससे वो वहाँ हावी होने का प्रयास करते है अपने हिसाब से सब कुछ चलाना चाहते है। इससे साधन तो बढ़ते है परन्तु साधना में व्यवधान आने लगते है। आचार्य जी ने बिडला जी को वापिस लौटा दिया क्योंकि वो अपने मिशन में इस प्रकार की परम्परा के पक्ष में नहीं थे कि धनाढ़यो का अनावश्यक हस्तक्षेप (interference) बढ़े। आचार्य जी एक आदर्श स्थापित कर गए हम सबके लिए। यदि हम उस पर नहीं चलेंगे तो साधन सम्पन्न तो होंगे, बड़े-बड़े भवन भी बनेंगे, भीड़ भी जुटेगी, पर रहेगा सब कुछ बन्दरो की उछल कूद जैसा। इधर उधर दौड़ भाग द्वारा मन तो बहला लेंगे लेकिन युग निर्माण की दिशा में आगे नही बढ़ पाँएगे। क्योंकि बिना साधना व सद्भावना की नींव पर जो कुछ भी खड़ा होगा वह ज्यादा दिन नहीं टिकेगा, ढह जाएगा। पहले मन्दिरो के द्वार व आकार छोटे होते थे कि झुकना सीखो तब प्रेवश मिलेगा। अर्थात मन्दिर में आएँ तो सेवा की भावना से आएँ, बडप्पन के भाव से न आएँ। सभी अमीर गरीब भगवान के भक्त है उनके प्यारे है उनमें भेदभाव क्यों? अमीर धन से सेवा करता है तो गरीब तन से सेवा करता है मोल किसी का भी कम नहीं है यदि हम कुछ बातों का ध्यान रखे, कुछ सिद्धातों को अपनाएँ तो मन्दिरो को राजनीति के अडडे बनने से रोक सकते हैं। अन्यथा मन्दिर तो बहुत बड़ा है परन्तु जहाँ दस बीस लोग एकत्र हुए आपस की तू तू मैं मैं शुरू हो गयी। जो दो चार लोग साधना करना चाहते है वो भी यह माहौल देख अपने घर भाग गए। कहने का तात्पर्य यह है कि कुण्डलिनी साधना में श्रेष्ठ वातावरण का बहुत महत्व है। Library में बच्चे पढ़ते है। सबका मन लगता है इसी प्रकार जहाँ एक समय बैठकर लोग साधना करते हैं वहाँ सबका मन लगता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि धनवान का अथवा नेता का सम्मान न करें उनका उचित सम्मान करें, महत्व दें परन्तु एक सीमा से अधिक उनका हस्तक्षेप न हो यह भी ध्यान रखें। यह लक्ष्मण रेखा हमें बड़ी समझदारी से बनानी होती है।
कुण्डलिनी
साधना की शक्ति व भक्ति से परिपूर्ण एक लाख विश्वमित्रों की शीघ्र आवश्यकता है जो सृष्टि के नवनिर्माण में अपनी भूमिका अदा कर सके। जो साधक जहाँ भी साधना कर रहे हों, 24-24 नए साधक तैयार करने का प्रयास करें, अपने बडप्पन अथवा अंह को त्यागकर एक ज्योति नयी ज्योतियाँ प्रज्वलित करे। सुनते हैं एक असुर रक्त बीज से बूँदे टपकती थी तो नए रक्तबीज पैदा होते थे। ऋषियों ने अपना रक्त निकालकर एक घट में रखा व भगवती सीता का अवतरण हुआ। आज के युग में साधना करना अपना रक्त निचोडने जैसा है। हम भी अपना रक्त, अपना तेल, अपना तप, अपने साधन दूसरे नए साधक तैयार करने में जुटाँए। इतने में ही सन्तोष न कर लें कि हम तो साधना द्वारा आत्मकल्याण कर ही रहे है। क्योकि यदि धरती पर देवत्व जीवित रहा तभी व्यक्ति साधना कर पाएगा इसलिए अपना संघ तैयार करें। छोटे-छोटे साधको के समूह जहाँ वहाँ उभरे व असुरता से लोहा लेने के लिए साहस व शक्ति अर्जन करें। संघ बद्ध होकर आगे बढ़े इससे असुरता से रक्षा करना सरल होगा। मात्र ज्ञान दान से काम नहीं चलने वाला, अच्छी बातों को समझाने भर से युग निर्माण नहीं होने वाला यह हम लगभग पिछले 40
वर्षो से कर रहे है। सब तो शक्ति के प्रयोग की आवश्यकता आन पड़ी है। देवात्मा हिमालय ने इसीलिए विश्व कुण्डलिनी जागरण का प्रयोग किया जिससे साधक शक्ति सम्पन्न होकर फैले असुरत्व से मोर्चा ले सके। पहला चरण ज्ञान दान का प्रचार प्रसार का सन् 2011 शताब्दी समारोह के साथ पूर्ण हो गया था। अब शक्तियों से खेलने का समय प्रारम्भ हो चुका है। हम शक्ति चरण में प्रेवश कर रहे है। शक्ति चरण युद्ध भूमि है जहाँ लापरवाही, असावधानी नहीं चलती, पीछे हटना भी सम्भव नहीं होता। एक लाख जिन साधको को परमात्मा ने इस चरण के लिए चुना है वो साधना मार्ग के अनुशासनों का ठीक से पालन करें, अपनी मनोभूमि का वैसा निर्माण करें जो अनिवार्य है। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध देखा देवात्मा हिमालय से लोगो पर शक्तिपाल हो रहा है जो उन्हें साधना के शक्ति खण्ड में जबरन धकेल रहा है। न वो पीछे हट सकते है न युद्ध को रोक सकते हैं अत: हे अर्जुन अपने आन्तरिक व बाहृय शुत्रओं से युद्ध कर व शक्तिमान बन।
No comments:
Post a Comment