ईश्वर प्राणिधान
व्यक्ति जब आध्यात्मिक रास्तें पर चलने का प्रयास करता है तो बहुत सारी कष्ट-कठिनाईयाँ उसको हैरान करती है। यहाँ तक की साधना के भी अनेकों मार्ग है कौन सा मार्ग उसके लिए उपयुक्त है यह चयन करना उसे कठिन जान पड़ता है ऐसी स्थिति में भगवान् श्री कृष्ण साधक को आश्वासन् देते हैं|
”सर्वधर्मान्परित्यजय मामेंक शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (18/66)
हे अर्जुन, भाँति-भाँति की इन धारणाओं में ना उलझ अपितु मुझे समर्पण कर, मेरी शरण में आ, मैं तेरे सभी पापों का श्मन करके तुझे मोक्ष प्रदान करूँगा। जब व्यक्ति असहाय होता है अंधकारमय होता है। अपने प्रारब्धों-पापों के कारण मुसीबत में होता है तरह-तरह के धारणाओं-उपायों के द्वारा उनसे छुटकारा पाने की कोशिश करता है परन्तु सही मार्ग नजर नहीं आता ऐसी स्थिति में उच्चतर शक्ति को अर्थात् भगवान् को अपना समर्पण कर दे। वह दिव्य सत्ता भाव की भूखी है जो भी कोई पुकारता है उसको सहारा देने आती है यह सब धर्म ग्रन्थ स्वीकार करते है और यही भगवत् गीता एवं ऋषि पतंजलि भी कहते है। श्री अरविन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि "समर्पण मेरे योग का प्रथम शब्द है और यही अन्तिम।"
संत कबीर ने सत्य ही कहा है-
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंप दिया, क्या लागे है मोर॥ (कबीर-1)
वो सावित्री में लिखते हैं-
"एक पहेली यह जग-जीवन, जिसकी कुंजी है भगवान्।
जिसने पाया इस कुंजी के, फिर न भटकता वह इन्सान"॥
समर्पण के उपरान्त व्यक्ति की चिन्ता, व्यक्ति का भटकाव थमने लगता है। समर्थ सत्ता धीरे-धीरे उसके जीवन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेकर उसका व्यक्तित्व ऊँचा उठाती चली जाती है उसके योगक्षेम का वहन करती है परन्तु यह तभी सत्य होता है जब व्यक्ति स्वयं के जीवन की बागडोर उस मंगलमय भगवान् के हाथ सौंप देता है। आप अपमान व परिस्थितियों से ध्यान हटाकर परमात्मा की प्रेरणा के अनुसार जीवन जीने का प्रयास करता है।
क्योंकि "जो पूर्ण रूप से प्रभु के होते हैं प्रभु उनके हो जाते हैं" एवं "पूर्ण समर्पित होने पर हम देखते हैं, उस स्थिति के आनन्द की समानता संसार की कोई वस्तु नही कर सकती।" व्यक्ति अपनी अल्प शक्ति व सीमित क्षमता के द्वारा कहाँ तक बढ़ेगा कैसे भवसागर पर करेगा, साधक को किसी भी मूल्य पर भगवत् कृपा प्राप्त करनी है। साधक के जीवन में भगवत्, मंगलमय कृपा को छोड़कर दूसरी कोई भी वस्तु मूल्यवान नहीं होती। जब हम पूरी सच्चाई के साथ विनित भाव में अपनी जीवन नैय्या को इस दिव्य पुरूष के हाथों में छोड़ देते है, तो हमारा जीवन, जीवन का हर क्षेत्र आनन्दमय हो जाता है। एक महानता हमारे अन्दर उद्घटित हो जाती है जो जीवन को पूर्णतः दूसरे स्तर पर एक अधिक विशाल, भव्य एवं माधुरय भरे आध्यात्मिक स्तर पर उठा देती है। एक आलौकिक क्षमता हमें प्रदान की जाती है जो साधना के सौपानों को पार करने में, जीवन मार्गों में चलने में सहायक होती है। जीवन पुष्प जब प्रभु चरणों में चढ़ जाता है हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है तब प्रभु आदेश पालन ही हमारा जीवन और उसका अर्थ रह जाता है। ऋषि पतंजलि का यह सूत्र साधक के भीतर इन्हीं भावों की उत्पत्ति करता है।
कुछ व्यक्ति इस बात पर टिप्पणी करते है कि भगवान् ने इस श्लोक में धर्मों को छोड़ने की बात क्यों कही। भगवान् अर्जुन को तरह-तरह के मार्ग समझा रहे हैं अब अर्जुन भ्रमित हो जाता है कि वह किस पर चले; इस पर वे अर्जुन को धैर्य प्रदान करते हैं कि वो भगवान् को समर्पण कर दे। इससे उसकी अशान्त स्थिति दूर हो जाएगी। शास्त्र कहते हैं धारणात् धर्मः अर्थात् जिसे हम धारण कर सकें, वह धर्म है। धारयत् इति धर्मः अर्थात् जो हमें धारण कर सकें, वह धर्म है। इससे स्पष्ट होता है कि अर्जुन को विभिन्न प्रकार की धारणाओं, मत-मतान्तरों में ना उलझने का संकेत किया गया है। आज का प्राणी भी विभिन्न प्रकार के टोने-टोटकों, ग्रह-नक्षत्रों, पितृ-दोषों, वास्तु-शास्त्रों देवी-देवताओं, मान्यताओं में उलझ कर अपनी शान्ति खराब कर रहा है। इससे बचने का एक ही उपाय है, प्रभु का सिमरण, उनको सम्पूर्ण व उन पर विश्वास।
संतोष
जिन परिस्थितियों में भी हमें रखा गया है जो कुछ हमें दिया गया है उससे हमें संतुष्ट रहना सीखना चाहिए। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमें अपनी दशा सुधारने का प्रयास नहीं करना चाहिए और इसका यह अर्थ नहीं है भाग्यवादी बनकर हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि जो कुछ है उसका होना अनिवार्य है। नहीं योग का समूचा दृष्टिकोण ही इसके विपरीत है। संतोष का अभिप्राय है- दूसरों की बराबरी करने के लिए उद्विग्नता, उत्तेजना और विक्षोभ से अभिभूत न होना। लोग दूसरों से होड़ लगाने के जोश में फंस जाते है। स्पर्धा के द्वारा सफलता की ओर आगे बढ़ने की कोशिश करते है। तो एक आध्यात्मिक जिज्ञासु से कहा गया है कि वह अपनी शक्तियों को व्यर्थ नष्ट न करें। उत्तेजना में स्वयं को खो न दे, ना कुछ उससे मिला है। उसे भगवान् के द्वारा निर्दिष्ट मान कर स्वीकार करें। श्री मां कहती है कि जो साधक इस बात में सच्चे विश्वास के साथ अपनी परिस्थितियों को स्वीकार करता है कि वे भगवान् के संकल्प के द्वारा निर्दिष्ट है। उसके आध्यात्मिक विकास के लिए वे अवश्य ही सबसे अधिक अनुकूल सिद्ध होती है। अतः जब पतंजलि संतोष की बात कहते हैं तो उनका आशय यही है कि अभाव, आत्म-हीनता, और कुढ़-भावना जो सभी चीजें आत्मा को धूमिल कर देती हैं- अपने भीतर नहीं आने देना चाहिए। हमें एक प्रफुल्ल स्वभाव का निर्माण करना चहियेऋ न तो सफलताओं पर हर्षोन्मित होना चाहिए और न असफलताओं पर व्यर्थ ही खिन्न होना चाहिए। सबसे पहले शांत-अचंचल बने रहकर जीवन बिताना हमारे लिए जरूरी है। कोई भी व्यक्ति शुरू से ही संतोष की वृत्ति धारण नहीं कर सकता यह बहुत ही कठिन है पहले हमें किसी हद तक उदासीनता के भाव का विकास करना चाहिए जिसे युनानी लोगों ने तितिक्षा कहा था चाहे कुछ भी आये चला जाये, हमें धीर-स्थिर बने रहकर उसकी उपेक्षा करनी होगी। आगे चलकर यह मनोवृत्ति समता या धृत्ति में विकसित हो जाती है। जो कुछ भी होता है, उसे हम अनुद्विग्न रहकर उससे अप्रभावित रहते हुए स्वीकार करते है। यह समता स्थापित होने के बाद अगला चरण है। संतोष।
जैसा कि हम कह चुके हैं कि प्रड्डति के द्वारा, प्रारब्ध के द्वारा परिस्थितियों के द्वारा जो कुछ हमें दिया गया है उसे उदासीन भाव से चुपचाप स्वीकार करना ही नहीं अपितु प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करना ही संतोष है। यह संतोष उस चीज का बीज है, जो आगे चलकर एक अविच्छिन्न अह्लाद में अस्तित्व के आनंद में विकसित हो जाता है। जीवन के सभी सुख- दुःखों के पीछे एक हर्ष, एक परमानंद एक आट्टाद विद्यमान है। संपूर्ण सृष्टि के मूल में यही आनंद मौजूद है। हम अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि के मुकुट मणि के रूप में इस आनंद का अनुभव कर सकते है। किन्तु उसका बीज यह संतोष ही है। यह एक वास्तविक मनःस्थिति है। जिसे स्वयं में स्वाभाविक बनाना हमें सीखना ही चाहिए।
तप
अतप्तततूर्न तदामो अश्नुते ॥ ऋग्वेद ९.८३.१॥
अर्थात तप में तपे बिना कुछ नहीं मिलता।
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