Thursday, January 2, 2014

साधना समर - चुनोतियां एवं समाधान (प्रारम्भ प्रयोजन-4)

  यद्यपि जन्म से प्राप्त दुर्बल व रोगी शरीर, विपरीत पारिवारिक परिस्थितियाँ एवं कालेज के कार्यो का दबाव मुझको पुस्तक लिखने की अनुमति नहीं दे रहा है। परन्तु जगद्गुरु शंकराचार्य जी का आदर्श मुझे बहुत प्रेरणा एवं साहस प्रदान करता है कि जब तक तन में प्राण है, शक्ति है धर्म की स्थापना के लिए चलते रहो, रुको मत। शंकराचार्य जी भंगदर जैसे कष्ट साध्य रोग से पीड़ित थे, उस समय सुविधा साधनों का अभाव था, तान्त्रिकों ने अपना मकड़जाल बुन रखा था परन्तु उन्होंने आजीवन संघर्ष किया व एक आदर्श हमारे सम्मुख छोड़ गए। मुझे आचार्य युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्यजी का आदर्श प्रेरणा देता है जिनकी आँखों में लिखते- लिखते खून उतर आता था। स्वामी शारदानन्द रामकृष्ण परमहंस जी के लीला प्रसंग लिख रहे थे। दिनभर लिखते थे। अधिक बैठक से उनको गठिया हो गया, पीड़ा बढ़ गर्इ। परन्तु उनका कहना था कि जब वो लिखते हैं तो उनको समाधि सुख की अनुभूति होती है वे पीड़ा भूल जाते हैं। परन्तु वहीं लीला प्रसंग भक्तों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन गए। मुझे उन क्रान्तिकारियों व सिक्ख गुरूओं का आदर्श प्रेरणा देता है जिन्होंने राष्ट्र व धर्म की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने का दु:साहस किया।
       मेरे राष्ट्र के सवा सौ करोड़ में से 24 लाख उस आदर्श के लिए अपने जीवन की आहुति दे दें यही प्रार्थना हम प्रभु से करते है। पिछले दो हजार वर्षों की गन्दगी का सफाया कर धरती पर धर्म की स्थापना करना, सतयुगी वातावरण विखनमित करना निश्चित ही दुष्कर कार्य है। पिछले दिनों अनेक अवतारी चेतनायें जैसे श्री अरविन्द, श्री लाहिड़ी जी एवं श्री रामकृष्ण परमहंस हुए। युग-ऋषि श्रीराम शर्मा आचार्यजी 24 कलाओं के पूर्ण अवतार के रूप में धरती पर आए। परन्तु अब महावतार होने जा रहा है। परमात्मा का ऐसा दिव्य अवतरण जो 24 लाख लोगों की विशाल सेना के माध्यम से काम करेगा। युग सैनिक मर जाएँगे, मिट जाएँगे परन्तु किसी भी परिस्थिति में अन्याय, अनीति, अधर्म को बर्दाश्त नहीं करेंगे। ऐसा महावतार जो युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा, जिसकी गाथा इतिहास, वेद पुराण सब गाएँगे। धर्म क्रान्ति, कर्म क्रान्ति, साधना क्रान्ति इसके लिए हम अपना सब कुछ न्यौछावर करने की शपथ लेते हैं।
       हे भारत उठ, जाग, अभी तक कृषण की बांसुरी सुनी, बाल लीलाएँ गायीं परन्तु अब पांचजन्य शंख का उद्घोष सुन, गीता का सन्देश सुन व कायरता को छोड़, मोह बन्धनों को तोड़ युद्ध कर। अपने कु:सस्कारों से लड़, देवसेना को संगठित कर आसुरी शक्तियों के विरुद्ध मोर्चे पर डट जा। यों डर कर मरने से अच्छा है युद्ध में वीरगति पाएँ। गौ, गंगा, गीता, गायत्री, गुरु की दुर्गति कब तक सहेगा। हजारों गाय भारत में प्रतिदिन कट रही हैं, गंगा का अस्तित्व खतरे में है, गायत्री से प्रज्ञा, श्रद्धा ज्ञान प्राप्त करने की जगह लोग गृह नक्षत्रों, पितृों, ज्योतिषियों के जंजाल में उलझे पड़े हैं। नकली गुरु जनता के धन से अय्याशियाँ कर रहे हैं।
       लोगों ने गीता को कायरों का ग्रन्थ बना दिया जो हो रहा है अच्छा, जो होगा अच्छा, जो नहीं होगा अच्छा, तू क्यों चिन्ता करता हैयह सब अन्धकार युग की बातें है। अब प्रकाश का युग आ रहा है। भगवद् गीता वीरों का ग्रन्थ बनने जा रहा है जिसमें व्यक्ति समाज को राष्ट्र को मानवता को ऊँचा उठाने के लिए युद्ध करेगा युद्ध। इधर उधर के, व्यर्थ के उपदेशों में समय नष्ट नहीं करेगा मन नहीं बहलाएगा। साधना के द्वारा प्रतिभाशाली बनेगा, प्रखर बनेगा, वीर एवं साहसी बनेगा एवं अपने प्राणों का मोह छोड़कर युग निर्माण के इस महायज्ञ में अपनी आहुति देगा। मित्रों इसी भाव के साथ आप पुस्तक पढ़ना, ऐसी सामथ्र्य की कामना अपने इष्ट, आराध्य से करना। हम बहुत रो चुके, बहुत कुछ खो चुके अब प्राणवान बनो, सशक्त बनो, संयमी बनो, तपस्वी बनो, निर्भय बनो और भारत माँ के लिए अपना लहू अपना शीश प्रस्तुत करो। ऐसी आग उत्पन्न करो, ऐसा ब्रह्मवर्चस जगाओ कि आसुरी शक्तियों का दिल दहल जाए भारत भूमि से उनका पलायन हो जाए।
       पुस्तक का शीर्षक साधना-समर इसलिए दिया गया क्योंकि उच्चस्तरीय साधनाओं को साध पाना एक प्रकार का समर है, युद्ध है। जैसे युद्ध में वीरता, साहस, धैर्य, सहनशीलता, जागरूकता चाहिए वैसे ही साधना में भी ये गुण चाहिए। साधक व योद्धा  में काफी समानता होती है। अन्तर केवल इतना है कि सैनिक बाहर के मोर्चे पर लड़ता है, साधक भीतर लड़ता है। साधक अपनी वृत्तियों से संघर्ष करता है, परिस्थितियों से जूझता है व प्रारब्धों की मार झेलता है। यह किसी युद्ध से कम नही है। जो इस पथ पर चल रहे हैं मात्र वही यह जान पाते है।
        यह पुस्तक हर वर्ग के लिए लाभप्रद होगी जो साधना में रूचि रखते हैं उनके लिए भी व जो एक श्रेष्ठ सुखी जीवन जीना चाहते हैं उनके लिए भी, ऐसा हमारा विश्वास है। पाठकों से निवेदन है कि इस पुस्तक के साथ हमारी पहली पुस्तक सनातन धर्म का प्रसादभी पढ़ें इससे विषय की उचित जानकारी मिलेगी। हमारी यह पुस्तक अनेक लोगों के लिए लाभप्रद सिद्ध हुर्इ। निश्चय ही र्इश्वर के प्रसाद (कृपा) से दारूण दु:खों का अन्त सम्भव है। हमें केवल उस विज्ञान को जानना समझना हैं। भगवद् गीता कहती है-
प्रसादे सर्व दु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्न चेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥  (2/65)
       र्इश्वर का प्रसाद अर्थात् "कृपा मिलते ही सब दु:खों का अन्त होने लगता है व मन में रस अर्थात् उल्लास उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार चित्त की प्रसन्नता से व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है।"
       यह पुस्तक भी साधकों के कष्टों रूकावटों को दूर कर उनका मनोबल, आत्मबल बढाएँ यही हमारी कामना है। अनुभवी साधक लेखक का मार्गदर्शन करें यह विनती है जिससे पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाया जा सके।
       यह तो हम सभी जानते हैं कि अपने बलबूते पर साधना मार्ग में कुछ भी उपलब्धि नहीं कर सकते। मार्ग में इतने गडढ़े हैं, इतनी फिसलने हैं कहीं-न-कहीं हम उलझकर तड़प रहे होते। यदि हमें कुछ अच्छा प्राप्त हुआ, हमसे कुछ अच्छा बन पाया तो हम अपनी गुरुसत्ता के, अपने भगवान् के ऋणी हैं जिन्होंने हमें यह विद्या, कला अथवा साधना दी है। इसलिए दी है कि हम इसका सदुपयोग कर अपने भार्इयों की मदद कर सकें। जो मुसीबत में है उनको रास्ता दिखा सकें। कुछ प्राप्ति पर हमारा अहंकार न बढ़े बल्कि उस परमात्मा की ही याद आए-
       ‘कुछ त्याग नहीं अपना, बस कर्ज चुकाते है
       पुस्तक के माध्यम से कुछ अच्छा लगे तो उस परमात्मा को याद कर लेना, यह मान लेना कि यह उसी का संदेश है जो उसने इस माध्यम से अपने बच्चों तक पहुँचाया है।
       मैं लेखक होने के साथ-साथ आपसे विनम्र निवेदन करता हूँ कि मैं एक सामान्य गृहस्थ हूँ, आपका भार्इ हूँ। मेरा इतना पुरूषार्थ नहीं कि मैं किसी का मार्गदर्शन कर सकूँ अथवा किसी का भला कर सकूँ। बस एक ही कामना है कि उनके चरणों में पड़ा रहूँ उनकी शरण में बना रहूँ। कोर्इ अहं, कोर्इ माया का झोंका मुझे मेरे आराध्य से दूर न कर दे। क्योंकि उनकी कृपा के बिना तो जीवन का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। पुस्तक लिखने पर यह अवश्य प्रतीत होता है कि कभी कभी जीवन में परमात्मा का माध्यम बनने का सुयोग मिलता है जिसको खोना नहीं चाहिए। प्रकाश, प्रेम, आनन्द, ज्ञान और शक्ति के वो पल अविस्मरणीय हो जाते हैं। देव सत्ताओं से निवेदन है कि हमारी पात्रता इतनी विकसित हो कि हम अपने लक्ष्य में सफल हो सकें व मानव जीवन के सार्थक कर पाएँ।
   



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