हर जगह धन और चापलूसी दो का ही राज नजर आ
रहा हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे-अनचाहे इन दोनों का सहारा लेने को मजबूर हो जा रहा
है। क्योंकि समाज में आदर्शों पर चलने वालों का, मेहनत करने वालों का, गलत को गलत
कहने वालों का उभर पाना दुर्भर होता जा रहा है। अच्छे और सच्चे व्यक्तियों के पास
न तो ज्यादा साधन ( Resurcis) हैं न ही कोर्इ संगठन हैं। वो बेचारे हर स्थान पर
मारे-मारे फिरते है और घुटन भरा जीवन जीने के मजबूर है। एक कठिनार्इ और
है-बुरे-बुरे व्यक्ति एकदम एक दूसरे को पहचान जाते हैं व एकजुट हो जाते है। परन्तु
अच्छे व्यक्तियों को यह पता करना कठिन हो जाता है कि कौन सही है? कौन गलत है? भारत
में हर व्यक्ति ब्रह्म-ज्ञान व वैराग्य की बात करता है परन्तु छोटे-छोटे स्वार्थ के आगे ही अपने घुटने टेक देता है। अत: सही व्यक्तियों के संगठन में अधिकतर
गुड़-गोबर मिल जाता है। जहाँ व्यक्ति के पद, प्रतिष्ठा, सुख-वैभव का प्रलोभन दिखा
उसने अपना पाला बदला। इस विडम्बना से उभर कर एक उच्चस्तरीय संगठन खड़ा कर पाना
अत्यन्त कठिन कार्य है। प्रचण्ड आत्मबल सम्पन्न महामानव ही ऐसा करने में समर्थ हो सकेगें।
हमारे पतन का दूसरा कारण है हमारे धर्म को
गलत रूप से जनता के सामने परोसा गया। माँ के दर्शन कर लो मन्नत पूरी हो जाएगी।
लाइन तोड़ो, धक्का मुक्की करो। पता नहीं मन्नत पूरी होगी या नहीं, हाँ आपका मूड़ व
दिन जरूर बिगड़ जाएगा। कर्इ बार व्यक्ति एक अजीब सा तनाव लेकर तीर्थ में जाता है
कि पता नही भीड़ में कितनी दुर्गति होने वाली है। लेकिन वह एक लक्ष्य बनाकर चलता
है कि हर वर्ष उसे वैष्णों देवी जाना ही है क्योंकि उसने बोल रखा है। केदारनाथ की
घटना तो यह सिखाती है कि यदि आप दुरगामी तीर्थ पर अनावश्यक जाएँगे बार-बार जाएँगे
तो भगवान प्रसन्न होने की बजाय रूष्ट हो जाएगा। क्यों सब लोग वैष्णों देवी ही
भागते है?
क्या पड़ोस में कोर्इ देवी देवता का अच्छा
मन्दिर नही है? नहीं साहब वहाँ की बड़ी मान्यता है परमपूज्य गुरुदेव सर्वप्रथम ऐसे
राष्ट्र सन्त हुए जिन्होंने घोषणा की ‘परमेश्वर का प्यार केवल सदाचारी और
कर्त्तव्य-परायण के लिए ही सुरक्षित रहता है।’ सर्वप्रथम आप सदाचारी और
कर्त्तव्य-परायण बनिए, भगवान आपकी सुनेगा। अन्यथा घूमते रहिए तीर्थो में, डालते
रहिए सजल श्रद्धा, प्रखर प्रज्ञा, अखण्ड दीपक पर अपनी पर्चिया उससे कुछ निकलने वाला
नही है। तीर्थ सेवन एक आवश्यक परम्परा है परन्तु उनके लिए जो अपनी आध्यात्मिक
उन्नति के लिए वास्तव में प्रयत्नशील है।
किसी भी जाग्रत तीर्थ में सोच समझकर जाएँ,
सोच समझकर रहें, सावधानी पूर्वक रहें। यदि तीर्थ में आपसे गलतियाँ हुयी तो 13 गुना
अधिक पाप का भागी बनना पड़ेगा। जितना बड़ा ऋषि, जितना बड़ा सिद्ध-पुरुष वह नैतिक
नियमों से उतना अधिक प्रेम करता है। वह बड़ा कठोर शिक्षक होता है। श्री अरविन्द इस
विषय में अत्यत: गम्भीर थे। बड़ी कठिनार्इ से अपने आश्रम में लोगों को आने देते
थे। क्योंकि उन्हें पता था कि श्रमहीन व्यक्ति उनसे कोर्इ लाभ नही ले पाएगा उल्टा
आश्रम का वातावरण गन्दा अवश्य करेगा। केवल वही व्यक्ति प्रवेश पाते थे जो साधना के
लिए समर्पित होते थे वह साधना में एक ( Threshold ) पार कर चुके होते थे। परन्तु आज सभी
गुरुओं का जोर भीड़ इकट्ठी करने में है। मंचो पर बढ़िया-बढ़िया बोला जाता है कि
हमसे पाँच करोड़ लोग जुडे़ है। यदि हम भीड़-भाड़ इकट्ठी करते रहे व उसके अनुशासित,
संगठित करने की ओर ध्यान नहीं दे पाए तो अनुशासनहीनता होगी व भगदड़ मचेगी। क्यों
सभी ( quantity ) के पीछे पड़े है ( quality ) क्यों नहीं ला पाए?
जिस दिन भारत के लोग यह समझ जाएँगे कि देव
शक्तियाँ नियम, संयम, पवित्रता, नि:स्वार्थता पसन्द करती है व मात्र ऐसे ही लोगों
की सहायता करती है। उस दिन लोग गलत कार्यो से डरेंगे। आज लोगों के अन्दर
बुरार्इयों के प्रति भय समाप्त हो गया। अभी तो भारत की जनता यह समझती है कि
कपाल-भाति से सारे रोग दूर हो जाएँगे। परन्तु उन्हें यह नहीं पता कि यदि
ब्रह्मचर्य पालन में उनकी भावना नही है तो यही कपाल-भाति उनके लिए जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है। इसलिए ऋषियों ने योगाभ्यास को ( systemetic ) बनाया था। परन्तु अपने हिसाब से बहुत कुछ तोड़ मरोड़ दिया।
योगाभ्याम के लिए सर्वप्रथम पाँच यम बताए थे
अर्थात् ये अनिवार्य अनुशासन है जिनका कोर्इ बचाव ( excuse ) नहीं है। यदि ये नहीं
अपनाए तो योगाभ्यास के अगले चरणों में लाभ नहीं मिलने वाला वरण घातक भी सिद्ध हो
सकते है। अनेक व्यक्ति जो भौतिकवादी मनोभूमि के थे, प्राणायाम ध्यान करते हुए
कुण्डलिनी जगा बैठे और मानसिक रूप से विकृत हो गए। अत: जीवन में पाँच बातों अमल में
अवश्य लावें व प्रयास करें - ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, एवं अस्तेय।
योगाभ्यास अथवा अध्यात्म के मूलभूत सिद्धांतों को छोड़कर हम क्रियाकलापों अथवा कर्मकाण्ड में उलझ गए। यदि हम
दुर्भावना, द्वेष, झूठ-फरेब को पाले रहे तो हमारा हृदय व नर्वस सिस्टम कमजोर पड़ता
चला जाएगा। यदि हम भोगवाद व भौतिकवाद में उलझे तो डिप्रेशन, डायबिटीज जैसे रोग
पनपते चले जाएँगे।
भारत में इतने बाबा, धर्म-कर्म मन्दिर, आश्रम
जगह-जगह दिखायी पड रहे है। परन्तु स्थिति बिगड़ती जा रही है। उसका एक मात्र कारण
यही है कि अध्यात्म मूलभूत सिद्धांतो के प्रति श्रद्धा का अभाव। बहुत से बाबा अपने
को आध्यात्मिक दिखाने के कपट में माहिर है। साधुओं जैसा वेश, श्रृंगार, मुख में
बढ़िया राम नाम, जनता को मूर्ख बनाने के लिए सुन्दर टोटके। परन्तु भीतर एक ही ललक
है कि कैसे आश्रम बढे़, भीड़ बढ़े, आश्रम में सम्पत्ति बढ़ें। इन बाबाओं की भी आदर्शो व सिद्धांतो में श्रद्धा नहीं है वैसे ही आम जनता में भी नहीं है। सभी अपनी
अपनी दुकानें चलाने के चक्कर में भाग दौड़ कर रहे है।
बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी है। किसी भी
क्षेत्र में कोर्इ मजबूत आदर्श नजर नहीं आ पा रहा है। न राजनीति में, न धर्म
तन्त्र में, न समाज में। अधिकाँश लोगों ने बड़े सुन्दर-सुन्दर पर्दे लगा रखे है।
उनको देख जनता उनकी ओर दौड़ती है कि शायद उनकी समस्याओं का कहीं कोर्इ हल निकले।
परन्तु चारों ओर स्वार्थ नजर आता है। और यदि सुनहली दुकानों के पर्दे के पीछे
मीडिया वाले या अन्य झाँकने का साहस करें तो उन्हें खरीद लिया जाता है। कभी-कभी
बिन बिकाऊ भी पल्ले पड़ जाते है। उन्हें मरवाने की धमकी दी जाती है अथवा मरवा दिया
जाता है।
बड़ी दयनीय स्थिति है मेरे भारत की। कैसे
त्यागी तपस्वी लोग एक ओर एकत्र हो पाएँ। यद्यपि राहु-केतु जैसे असुर वेश बदल उसमे
भी घुस पड़ते है। कैसे यह संगठन उभर कर एक विराट आन्दोलन का रूप लें। कैसे राजनीति
और धर्म तन्त्र में काले नागों के ऊपर से सफेद पोश उतरे? यह बड़ा कठिन कार्य है।
कभी-कभी असुर आपस में लड़ मरते है तभी लोगों की पोल पट्टियाँ खुलती है व पर्दे के
भीतर क्या खिचड़ी पक रही थी यह जनता के सामने आ पाता है।
भारत की स्थिति तभी ठीक हो सकती है जब यहाँ
की जनता जितना प्रेम बाबाओं, धर्म गुरूओं, देवी देवताओं से करती है उतना ही प्रेम
अध्यात्म के मूल सिद्धांतो से करें। लोग सदाचारी व कर्त्तव्यनिष्ठ बनें। त्याग,
तप, तितिक्षा से जुड़े। अच्छे लोग जहाँ भी हो संघबद्ध हो। भले ही छोटे हो लेकिन
मजबूत समूह उभरें व समाज के अनीति, अन्याय व अनाचार से लोहा लेने के लिए छुट-मुट
प्रयास अवश्य करें।
एक और विचार भारत की जनता के लिए बड़ा दु:खदायी
होता है। लोग भावना में आकर शीघ्र ही इस आशा से दीक्षा ले लेते हैं कि गुरु उनके
कष्ट दूर कर देगा। परन्तु कुछ वर्षो बाद उनको पता लगता है कि ऐसा तो कुछ नहीं हुआ
परन्तु जिनको वो गुरु माने थे उनकी कुछ कमियों को वो हजम नहीं कर पा रहे है। कुछ
कहें तो शास्त्र का भय न कहें तो आत्मा नहीं मान रही। भारत में व्यक्ति का जीवन
इन्ही उधेड़बुनों में अधिक खराब हो जाता हैं व्यक्ति मुफ्त में पाने के चक्कर में,
मुफ्त में पाप अथवा प्रारब्ध कटाने के चक्कर में कहीं तात्रिकों, कहीं
ज्योतिषियों, कहीं पाखण्डियों और कहीं पण्डितों के भंवर में फंस कर तड़फता रह जाता
है।
प्रारब्धों को काटने के लिए, पापों के शमन के
लिए हमें त्याग और तप के मार्ग पर ही चलना पडे़गा। दुनिया का कोर्इ गुरु किसी के
पाप प्रारब्ध नहीं काट सकता। हाँ इसके भुगतान में व्यक्ति की सहायता अवश्य कर सकता
है। राजा दशरथ को श्रवण कुमार के माता पिता ने श्राप दिया। जिसके चार-चार बेटे
भगवान् के अंश हो वह तड़फ-तड़फ कर मरा। क्यों नहीं उन्होंने उसके श्राप को रोक
दिया।
पाण्डव अपनी ध्र्रुतक्रीड़ा की मूर्खता से
अपना सब कुछ गँवा बैठे। कृषण स्वयं भगवान् होकर भी उसको नही रोक सके। भगवान् कहता
है मैने मनुष्य को विवेक बुद्धि दी है क्यों नही उसका सदुपयोग करके जीवन के श्रेष्ठ
बनाता।
एक बात में और स्पष्ट करना चाहूँगा कोर्इ भी
असली गुरु किसी गलत व्यक्ति की मदद कभी नही करता। गलत व्यक्ति को गलत गुरु ही
टकरेगा। और यदि कोर्इ व्यक्ति सही है अपनी आध्यात्मिक उन्नति का वास्तव में इच्छुक
है तो असली गुरु उसकी सहायता अवश्य करेगा भले ही वह उसका शिष्य न हो। परमब्रह्म तक पहुँचे ऋषि इन छोटी बातों में भेद नहीं करते कि यह मेरा है यह तेरा है। इस तरह के
भेदभाव तो छोटी मानसिकता के लोग व गुरु ही करते फिरते है। औलाद अगर लायक है तो
अपने आप माँ-बाप, चाचा-ताऊ, मामा आदि सब उससे प्यार करेंगे उसके लिए व्यवस्था
करेंगे। परन्तु नालायक से सभी दूर रहना पसन्द करते है।
एक और बात धर्म का स्वरूप बिगाड़ देती है।
व्यक्ति अपना मत, अपनी चाह को धर्म पर आरोपित करना चाहता है। यदि व्यक्ति को हलवा
पसन्द है तो वह कहेगा झटका मार्इ को सवा किलो हलवे का प्रसाद लगाओ व बंटवाओ। यदि
व्यक्ति को माँस-मदिरा पसन्द है तो वह देवी देवताओं पर बलि चढ़ाने को धर्म में
बढ़ावा देने लगेगा। विश्व में अलग-अलग स्थानों पर लोगों की रूचियाँ स्वभाव अलग-अलग
है वहाँ धर्म के स्वरूप भी उसी प्रकार के देखने को मिलते है। समाज यदि चापलूसी
पसन्द है तो देवी देवताओं की भी बड़ार्इ व चापलूसी जमकर कर की जाती है जिससे वो
प्रसन्न हो सकें। इसी कारण समाज में धर्म का स्वरूप विकृत हो जाता है। कभी-कभी
कोर्इ दिव्य महापुरुष धरती पर आते है वो धर्म को सही रूप में परिभाषित करते है।
लोगों को अपनी रूचियों, अपने धन्धों, अपनी मान्यताओं पर हो रहा आघात सहन नहीं होता
ओर वो दिव्य पुरुषों को दण्डित करने अथवा मारने की मूर्खता भी करते है।
अधिकतर लोग मोह व भय के वशीभूत होकर ही सारे
काम करते है मोह के कारण ही दुनिया के अधिकाँश देवी देवताओं के इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है कि वो भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी करते है। किसी को धन का मोह है,
किसी को बेटा चाहिए, किसी को बड़ा घर आदि जिसके लिए मन्दिरों में भटकते है। शनि का
भय, काल सर्प योग, पितृ दोष आदि अनेक भय समाज में व्याप्त है। इसलिए शनि मन्दिरों
की स्थापना, शनि जागरण आदि समाज में प्रारम्भ हो गए है। जबकि वास्तव में असली धर्म
व अध्यात्म का उद्देश्य व्यक्ति को इतना मजबूत बनाना है कि वह मोह व भय से ऊपर उठ
सके।
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