Thursday, January 2, 2014

साधना समर (ऋशि परम्परा-ज्ञान, तप, एंव योग)

    यदि हम ऋषि परम्परा को पुनर्जवित करना चाहते है तो हमे तीन कार्य करने होंगे -
1. व्यापक ज्ञानार्जन करना होगा, उस ज्ञान को समाज में फैलाने के प्रयास करना होगा।
2.  अपने व्यक्तित्व को तपस्वी स्तर का बनाना होगा, जिससे प्रेरणा लेकर दूसरे भी तप के मार्ग पर चलने का प्रयास करें। बहुत से व्यक्ति बाते तो ज्ञान की करते है परन्तु तप के मार्ग पर नहीं चल पाते, जिस कारण उन्हें अपने व्यक्तित्व को छुपाकर रखना पड़ता है। इसी कारण मीडिया वाले उनकी पोल खोलने का प्रयास करते है। जबकि पहले साधु, सन्त, योगी, तपस्वी परिप्रज्या करते थे व अपने तपस्वी व्यक्तित्व से लोगो को इस मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देते थे। परन्तु आज भोगवाद के चलते तप के मार्ग पर कौन बढ़े? कैसे बढ़े? यह साधको के लिए चुनौती बनी हुयी है।
3.  योग का अर्थ है जो उच्चस्तरीय शक्ति का स्त्रोत विश्व ब्रह्माण्ड़ में व्याप्त है उससे सम्पर्क बनाकर एक शक्ति पुँज के रूप में उभर कर आना। यों तो कहने के लिए बहुत योगी समाज में है परनतु इस परिभाषा पर कितने खरे उतरते है यह निर्णय कर पाना बड़ा ही कठिन है।
     सर्वप्रथम हमें अपने ज्ञान के कोष को बढ़ाना है, आध्यात्मिक ज्ञान विज्ञान को ठीक से जानना समझना है, यह कदम जितना व्यापक होगा उतना हमें जीवन में लाभ मिलेगा, भगवद् गीता भी कहती है-न हि ज्ञानेन सश पवित्र महि विद्यते
     दूसरे नम्बर पर हमें तप के मार्ग पर चलना है इसके लिए हम ज्ञानार्जन के द्वारा उचित भूमि का निर्माण कर चुके है। बिना तप के कोरे ज्ञान से काम चलने वाला नहीं है। यदि हमें केवल ब्रह्मचर्य की महिमा का पता है, पालन नहीं कर पाते तो उस महिमा से क्या लाभ? साधक के लिए ऐसा वातावरण ऐसी मनोभूमि हो कि वह तप के मार्ग पर अनवरत चले। ज्ञान ओर तप के द्वारा व्यक्ति अपना सुधार, आत्म कल्याण तो कर सकता है परन्तु जन कल्याण नहीं कर सकता। भवसागर में स्वयं को डूबने से तो बचा सकता है परन्तु दूसरे किसी डूबते हुए भार्इ को सहारा नहीं दे सकता। अपने जीवन की गाड़ी तो खींच सकता है परन्तु यदि कोर्इ ओर भी अपना डिब्बा उसके साथ जोड़ दे तो उसे नहीं घसीट सकता। इसके लिए तीसरा अवलम्बन योग का चाहिए। योग मार्ग पर चलकर व्यक्ति इतना प्रकाश, इतनी शक्ति उत्पन्न उत्पन्न कर सकता है कि अन्य लोगो को सन्मार्ग पर चला सके। इसलिए श्री कृष्ण अर्जुन को बार-बार कहते है कि तपस्वी से योगी श्रेष्ठ है इसलिए हे भरत तू योगी बना।
     परन्तु क्या कोर्इ सीधा योगी बन सकता है? यह प्रश्न ठीक ऐसा है जैसे यदि हम कहें कि क्या कोर्इ बिना दसवी किए बारहवी पास कर सकता है? जिनके पास पूर्व जन्मों की ज्ञान ओर तप की पूँजी पर्याप्त मात्रा में रही हो वही कर्इ बार सीधे योग मार्ग में घुस सकते है। इस सन्दर्भ में लाहिडी महाशय का वृतान्त बड़ा ही सटीक है। लाहिडी जी सामान्य गृहस्थ थे व लिपिक के पद पर कार्यरत थे। उनका तबादला ;जतंदेमितद्ध रानी खेत हो जाता है। अपना कार्यालय ;व्पिबमद्ध ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वो कहीं पहाडी पर भटक रहे होते है। निर्जन सुनसान में उन्हें एक आवाज सुनार्इ देती है लाहिडी’ ‘लाहिडीउनके मुँह से अचानक निकलता है कौन है? क्या कोर्इ मुझे मेरे व्पिबम का पता बता सकता है? अचानक उनको अश्य अंग्रेजी भाषा में उत्तर मिलता है।
श्व्पिबम पे इतवनहीज जव लवन ीमतमण् ल्वन ंतम दवज वित वपिबमश्ण्
     लाहिडी जी आश्चर्य चकित हो हो जगल में अंग्रेजी के वाक्य बोलने वाले को खोजते है। तभी बाबा जी उनके सामने आ जाते है। बाबा जी के आते ही उनके पूर्व जन्मों की स्मृतियाँ जाग उठती है व उनके नेत्रों से अश्रु प्रवाह बहने लगता है। बाबा जी उनको दीक्षा देकर सीधे योग मार्ग पर बढ़ा देते है। यही लाहिडी महाशय अल्प समय में योग की समस्त ऋषियों सिद्धियों पर एकाधिकार कर लेते है। इनकी प्रेरणा से सैकड़ो साधक क्रिया योग के उच्चस्तरीय पथ पर चलकर आत्मज्ञान ब्रह्मज्ञान की भूमिकाओं में प्रवेश पा जाते है। इन्हीं के एक शिष्य युक्तेश्वर गिरि जी के शिष्य योगानन्द परमहंस अमेरिका में योग साधना का परचम लहराते है।
(लाहिडी जी को विस्तार से पढ़ें- श्रनदम 2012 ठसवह से) 
     एक व्यक्ति को योग की उच्चस्तरीय भूमिका में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम ज्ञान ओर बुद्धि का सही नियोजन करना होता है जिसको बुद्धियोगभी कहा जा सकता है। भगवद् गीता कहती है कि भगवान जिसके प्यार करते है सर्वप्रथम बुद्धियोगदेते है-
पृष्ठ 1.94
     ज्ञान साधना के बाद तप साधना का क्रम बनता है। बिना तपाए कैसा लोहा गलकर उपयोगी बन सकता है। सोना बिना तपाए कैसे विकार रहित हो सकता है। तप के द्वारा हम अपने कमण्डल को रगड़-रगड़ कर साफ करते है जिससे योग का मधुर सोम रस उसमें भर सके इसको शास्त्र मधु विद्या कहते है योग द्वारा अमृतपान व्यक्ति समाज का एक बहुमूल्य रत्न बन जाता है। वह पूर्ण हो जाता है तथा समाज को एक दिशा देने में समर्थ होता है बिना योग में सफलता पाए व्यक्ति समाज को अधूरे ज्ञान अथवा अधूरे व्यक्तित्व से गुमराह भी कर सकता है। पथ भ्रष्ट भी हो सकता है इसलिए योग मार्ग पर चलकर पूर्णता पाना हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है।

ऋषियों की समाज को देन चंहम 1ण्95 अंदहउंल 31 इींहूंज हममजं ूंसं
ज्ञान प्रसार की ऋषि परम्परा
     ऋषियों की परम्परा ज्ञान साधना की रही है। आज हमारे सामने ज्ञान का जो अथाह भण्डार सुरक्षित है वह उन्हीं की देन है। व्यास, वशिष्ठ, भारद्वाज गौतम, कपिल, जैमिनी, पंतजलि आदि ऋषियों ने न केवल ज्ञान की साधना और खोज की वरन् सीमित सादा जीवन बिता कर ज्ञान के प्रसार के लिये भी कार्य किया। महर्षि चरक, सुश्रुत ने आयुर्वेद के क्षेत्र में बहुत सी खोज और अनुसंधान करके मानव समाज को रोग मुक्त एवं स्वस्थ बनाने की दिशा में बहुत बड़ा काम किया। देवर्षि नारद स्वयं न केवल एक भक्त और ज्ञानी व्यक्ति ही थे वरन् उनका ज्ञान प्रचार और लोगों को सत्प्रेरणायें देने का काम और भी महत्वपूर्ण था। वे सदैव कीर्तन भजन गाते हुये लोगों में सद्विचार और सद्ज्ञान का प्रचार करते रहे। उन्होंने कर्इ गिरें हुओं को उठाया पापियों को शुभ मार्ग में लगाया। अधिकारी पात्रों को ज्ञान की दीक्षा देकर आत्मविकास की ओर अग्रसर किया। महर्षि कणाद के बारे में प्रसिद्ध है कि वे खेतों में उपेक्षित छोड़ दिये जाने वाले अन्न के दानों को बीनकर उनसे अपने परिवार का जीवन निर्वाह करते थे और अपना अधिकांश समय ज्ञान साधना में लगाते थे। वे चाहते तो धन अर्जन करके सुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते थे। किन्तु वे अधिकाधिक समय अपनी ज्ञानोपासना में लगाना चाहते थे। स्वयं ज्ञानवान बनना और दूसरों को ज्ञानवान बनाना उन्हें संसार में सर्वश्रेष्ठ सत्कार्य प्रतीत हुआ। इसलिये जीवन की आवश्यकताओं को कम महत्व देकर महर्षि कणाद ने संसार को ज्ञान का एक बहुत बड़ा कोष प्रदान किया।
     इसी तरह महर्षि पिप्पल पीपल वृक्ष के छोटे छोटे फलों से जीवन निर्वाह करते थे। इन्होंने अमूल्य मानव जीवन को केवल जीवन निर्वाह के लिये ही लगाना श्रेयस्कर न समझा। उनके सामने ज्ञान साधना का महत्वपूर्ण कार्यक्रम था जिसके लिये उक्त मार्ग अपनाया। शुकदेव जन्म से ही ज्ञान की खोज में निकल गये थे। वे सांसारिक प्रलोभनों में नहीं आये और जीवनोद्देश्य की पूर्ति में नितान्त आवश्यक आत्म ज्ञान की खोज में जुटे रहे। आजीवन त्यागी अपरिग्रही रह कर शुकदेवजी ने ज्ञान की साधना की। इन्हीं ने महाराजा परीक्षित को भागवत की कथा सुनार्इ थी। राजा जनक से जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया था उसे सारी मानव जाति में वितरित किया। महा मनीषी चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य के मंत्री थे। उसी के प्रयत्नों से मौर्य साम्राज्य का विस्तार हुआ। लेकिन यह सब कुछ करते हुये भी चाणक्य ने अपने विद्या प्रेम को नहीं छोड़ा। वरन् राजकीय वातावरण से दूर एक कुटिया में रह कर चाणक्य ज्ञान की साधना करते थे। चन्द्रगुप्त ने उनके लिये अच्छे भवन और सुख सुविधायुक्त साधन जुटाये लेकिन उन्हें स्वीकार न करते हुये चाणक्य अपनी कुटिया में सरस्वती की आराधना किया करते थे। इससे अध्ययन और अध्यापन दोनों ही कार्य चाणक्य के जीवन के अभिन्न अंग थे। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र के रूप चाणक्य की बहुत बड़ी देन उसकी ज्ञान साधना का ही परिणाम है।
     प्रत्येक ऋषि के आश्रम में एक गुरुकुल रहता था। वे तपश्चर्या के साथ साथ ज्ञानोपासना को भी अपना परम पवित्र एवं अनिवार्य धर्म कर्तव्य मानते थे। उन दिनों देश भर की सारी शिक्षा व्यवस्था ऋषियों ब्राह्मणों और सन्तों के जिम्मे ही थी वे छोटे बड़े अगणित विद्यालय चलाते थे। नालंदा और तक्ष शिला जैसे विश्व विद्यालय उन्हीं के प्रयत्नों से इतने विकसित हुये थे कि सारे संसार के छात्र उनमें विविध विषयों की शिक्षा प्राप्त करने के लिये आया करते थे और यहाँ की संस्कृति को समस्त विश्व में फैलाया करते थे। जगद्गुरु शंकरचार्य जी ने न केवल तपस्या ही की वरन् ज्ञान की बहुत बड़ी साधना की थी। उनके आत्म तेज और विद्वता दोनों के समक्ष विजातियों को अपनी हार माननी पड़ती थी। उनके शास्त्रार्थ विजय से पता चलता है कि वे कितने विद्वान थे। प्राचीन ग्रन्थों का उन्होंने बड़ा सरल और विद्वता पूर्ण भाष्य किया और स्वयं नर्इ रचनायें भी की। बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण कर लिया था।
     गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामचरित मानस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जो नीति, धर्म, जीवन शास्त्र की महत्वपूर्ण शिक्षाओं से भरा हुआ है। सन्त कबीर, नानक, सूर, मीरा आदि के पदों में जीवन शिक्षा का बहुत बड़ा सार भरा हुआ है। सन्त तुलसी दास ने तो घर से निकलने के बाद बहुत समय तक अध्ययन चिन्तन मनन में लगाया था। सूरदास ने भक्ति भावना से सूखे और नीरस हृदयों को सरस बनाने के लिये सूर सागर की रचना की। उनके पदों का भक्ति साहित्य में बड़ा स्थान है। सन्त एकनाथ, सन्त ज्ञानेश्वर, चैतन्य महाप्रभु समर्थ गुरु रामदास आदि न केवल सन्त और साधु ही थे वरन् परम ज्ञानी विचारक और विद्वान भी थे। सन्त एकनाथ ने भागवत की अभूत पूर्व टीका की है ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी गीता और तुकाराम के अभंग प्रसिद्ध हैं। चैतन्य महाप्रभु न्याय, धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। समर्थ गुरु रामदास का दास बोध आज भी महाराष्ट्र में आदर की ष्टि से देखा जाता है। इन सन्तों ने भक्ति के प्रसार के साथ साथ ज्ञान का भी बहुत प्रसार किया।


No comments:

Post a Comment