Thursday, January 2, 2014

साधना समर - चुनोतिया एवं समाधान (आभार)

   कर्इ बार लोग शिकायत करते है कि मै अक्सर कड़वी भाषा का प्रयोग करता हूँ   परन्तु भार्इ साहब क्षमा करियेगा जिस देश में एक लाख से अधिक गाय प्रतिदिन कटती हों 30 हजार से अधिक बूचड़ खाने हों, गऊ माता दाना-पानी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रही हो, भगवती गंगा प्रदूषण युक्त होकर अपने आस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हो। दूसरी ओर लोग ब्रह्मज्ञानी, महामंडलेश्वर के ताज पहने सम्मान समारोह में शामिल होते हैं यह कैसी विडम्बना है? जब तक इस राष्ट्र में एक भी गाय का कत्ल होता हो हमें अपनी डिग्रीयाँ, अपनी ताजपोशियाँ उठा कर नदी में बहा देनी चाहिएँ। तब तक हमें ना किसी माला पहनने का अधिकार है ना किसी शाल औढ़ने का अधिकार है, ना अपनी अथवा अपनी संस्था की किसी प्रकार की प्रंशसा करने का अधिकार है।
       जहाँ गऊ माता पीड़ित है कैसे देवशक्तियाँ आलीशान मन्दिरों में सोने के सिंहासन पर विराजमान रह सकती हैं। यदि हम सच्चे हिन्दू हैं राष्ट्र भक्त हैं तो बड़े-बड़े मन्दिर आश्रम बना कर अपने अहं को पुष्ट करने की बजाय संस्कृति की रक्षा के लिए एक देवसेना तैयार करें। चाणक्य ने शिखा खोलकर प्रण किया था कि जब तक विलसिता के प्रतीक नंदवंश का सत्यानाश नही कर देगा तब तक अपनी शिखा नही बांधेगा हम भी संकल्प लें कि जब तक भारत की भूमि पर गऊ, गंगा, गीता, गायत्री, गुरु की मान मर्यादा को स्थापित नही कर देंगे, तब तक चैन से नही बैठेंगे।
आभार
यह title मुझे देते हुए थोडा संकोच हो रहा है क्योंकि आभार सदा दूसरो का व्यक्त किया जाता है अपनो का नहीं। जिन देव पुरुषों से मैंने प्रेणाए ली है, जिनको मैंने पढ़ा है, व जिन्होंने मेरे प्रारब्धों का काटकर मुझे साधना पथ पर चलाया है उनको में अपनी आत्मा के समान प्रेम करता हूँ। यहाँ तक सोचता हूँ कि यह पुस्तक का लेखन उन्हीं का संकल्प है उन्हीं का कार्य हैं फिर कैसे उनको मैं आभार व्यक्त करूँ। सदा लेखन कार्य मैं इस भाव के साथ प्रारम्भ करता हूँ ‘‘ मैं समाप्त होता हूँ आप जीवित होते हैं ‘‘
फिर भी लोकव्यवहार हेतु मैं अनेक देव पुरुषों जैसे युग ऋषि श्री राम जी, महाऋषि अरविन्द, स्वामी योगानंद परमहंस जी, स्वामी रामकृषण परमहंस जी के लिए कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। अनेक श्रेष्ट मिशनों से भी मैंने बहुत ज्ञान प्राप्त किया है। निरोग जीवन पाया उनका भी मैं आभारी हूँ। इनमें विशेष रूप से दिव्य ज्योति जागृति संस्थान, भारतीय योग संस्थान, शांतिकुंज हरिद्वार, बाबा रामदेव जी का योग व आयुर्वेद संस्थान, इस्कान, राष्ट्रिय सव्य सेवक संघ से समय-समय पर लाभान्वित होता रहा हूँ।
इसके पश्चात मैं अपने कालेज NIT कुरूक्षेत्र के लिए आभारी हूँ जहाँ बैठकर पुस्तक की  editing, setting का कार्य पूर्ण होता है। मेरे सहयोगी अध्यापक (Professors) मुझे सदा सहयोग व प्रोत्साहन देते रहे हैं। मैं अपने परिवार के लिए आभारी हूँ जिनके सहयोग के बिना यह कार्य सम्भव नहीं हो सकता था।
   अनेक ऐसे भी लोग रहे हैं जिन्होने मुझे समय-समय पर श्रेष्ट लेखन  के लिए मनोबल प्रदान किया। इनमें शांतिकुंज हरिद्वार के कार्यकर्ता श्री इन्द्रजीत शर्मा जी का मैं आभारी हूँ जिन्होंने साधना समबन्धी विषयों में मेरा मार्गदर्षन किया। मेरे परम मित्र श्री अशोक राठी जी ने हिन्दी की मेरी त्रुटियों का संशोधन कर पुस्तक को सही रूप देने में हमेशा की तरह मेरी सहायता की। जय गांव के श्री अरविन्द प्रसाद जी ने पुस्तक लेखन में बहुत सहयोग किया। इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक व्यक्ति है जिनका नाम मैं संकोच वश नहीं दे पा रहा हूँ जिन्होंने मेरी पूर्व पुस्तको को पसन्द किया व उनके प्रचार प्रसार में सहयोग किया।
      कुछ ऐसी विभूतियाँ भी मेरे जीवन में आयी जिनके अच्छे प्रारब्ध देख देवात्मा हिमालय ने उन पर शक्तिपात किया। कुछ वर्षों तक वो साधना की उच्च अवस्था में पहूँचे अनेको को इस दिशा में चलाया। परन्तु ऊर्जा को न सम्भाल पाने के कारण बाद में विवादास्पद हो गए। अपनी जिज्ञासाओं के चलते मैंने उनसे भी सम्पर्क बनाया व इन विषयो पर गम्भीर वार्तालाप किए। मैंने उनसे भी बहुत कुछ सीखा अत: भगवान से उनके हित की भी प्रार्थना करता हूँ कि उनको भी सही दिशाधार प्रदान करे उनकी आत्म का भी कल्याण हो।
      मेरा अपना दृष्टिकोण है कि यदि व्यक्ति कहीं भटक रहा है तो उसे दुत्कारो मत अपितु स्नेहपूर्वक उसको सुधारने का प्रयास करो क्योंकि दुत्कार तो उसे सब जगह से मिल ही रही हैं। कालेज में अनेक भटके विद्यार्थियों को सही दिशा देने में मुझे सफलता मिली है। यद्यपि ऐसे कुछ बिगडे व्यक्तित्वो से मुझे नुकसान भी पहुँचता रहा है परन्तु सदा ऊँचा आदर्श सामने रखकर अपने कर्तव्य पालन का प्रयास किया है। आज भी यदि मुझे पता लगे कि किसी भी मिशन का कोर्इ व्यक्ति अच्छी साधना कर रहा है मैं उसकी पूरी जानकारी लेने का प्रयास करता हूँ यदि कोर्इ साधक भटक भी गया है उसके जीवन का भी निरीक्षण होना चाहिए कि वह कहाँ चूक गया। यह जानकारी दूसरे साधको के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। क्या हम उन भटके साधको के भी आभारी नहीं हैं जिनके भटकने से दूसरो को सही राह पर चलने कीअधिक सावधान रहने की प्रेरणा मिलीएक व्यक्ति पहाड़ की चोटी पर चढ़ाफिसल गया उससे हमें नाजुक स्थानो का पता लगा कि यहाँ अधिक सावधानी से चढ़ना है। इसलिए मैं खुले हृदय से सभी का आभार प्रकट करता करना चाहता हूँ।
    अंत में मैं अपने पाठको का आभारी हूँ जो देश-विदेश में ज्ञान सन्देश का प्रसार करते हैं। मैं उनके उज्जवल भविष्य, मंगलमय जीवन व आत्मिक प्रगति के लिए शुभकामना व प्रार्थना करता हूँ।

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