प्रतिदिन दस
पंद्रह मिनट अपने
दोनो भौहों के
बीच उगते हुए
(स्वर्णिम) सूर्य का
ध्यान करें, भावना करें
कि सूर्य देव
हमारे जीवन के
अन्धकार व निराशामय
को समाप्त कर
हमको प्रकाशमान व
तेजवान बनाता रहे
।
प्रार्थना करें
कि हे सूर्य
देव हमें इतनी
शक्ति देना, इतना आत्मबल
देना कि हमें
अपने व्यक्तित्व को
तेजस्वी व प्रभावशाली
बनाकर मानवता, भारतमाता, धरतीमाता की
सेवा कर सकें
। निश्चित रूप
से भारत के
युवाओं की आत्मा
जागेगी व स्वामी
विवेकानंद के इन भविष्य कथनों को साकार
करेगी -’’मैं अपने दिव्य
नेत्रों से देख
रहा हूँ कि
21वीं सदी में
भारत माता स्वर्णिम
सिहांसन पर विराजमान
है।’’
एक महाविद्यालय में छात्र और छात्राएँ साथ-साथ अध्ययन करते थे । एक छात्र और एक छात्रा में परस्पर स्नेह हो गया । समान लोगों का सतत् सम्मिलन एक-दूसरे को आकर्षित करता ही है । परिचय को प्रेम में बदलते देर नहीं लगती । हुआ भी ऐसा ही । उन दोनों ने जीवन में पति-पत्नी के रूप में साथ-साथ रहने का संकल्प कर लिया, कसमें खा ली कि शादी करेंगे तो आपस में ही करेंगे, अन्यथा...नहीं । कसमें तो खा ली, पर अपने इस संकल्प को अपने-अपने माँ-बाप को बताने का साहस न जुटा सके और दिन-रात यों ही बीतने लगे ।
यद्यपि इस बात
की
चर्चा
उन्होंने
किसी
से
भी
नहीं
की, तथापि ‘चंचल नैन
छुपें
न
छुपाये’ की नीति
के
अनुसार
बात
छुपी
न
रह
सकी, उनके माँ-बाप तक
भी
यह
बात
पहुँच
ही गई ।
माँ-बाप समझदार
थे
।
वे
यह
अच्छी
तरह
जानते
थे
कि
यदि
हमने
कुछ
किया
तो
होने-जाने वाला
तो
कुछ
है
नहीं, हाँ,
हम
खलनायक
अवश्य
बन
जायेंगे
।
न
केवल
इसलिए, अपितु जोड़ा
भी
तो
श्रेष्ठ
था, अत:
उनके
चित
को
भी
यह
बात
सहज
स्वीकृत
हो गई ।
लड़के के पिता
ने
लड़के
को
बुलाकर
कहा
- सुनो, जरा ध्यान
से
सुनो, हमने तुम्हारी
शादी
करने
का
निर्णय
लिया
है
।
हम
चाहते
हैं
कि
इसी
वर्ष
तुम्हारी
शादी
हो
जावे
।
पिता से शादी
का
प्रस्ताव
की
बात
सुनकर
भी
पुत्र
अपने
हृदय
की
बात
न
कह
सका
और
कहने
लगा
- ‘अभी मैंने
शादी
के
बारे
में
सोचा
नहीं
है
।
अभी
तो पढाई पूरी
करनी
है, उसके बाद
काम
पर
भी
तो
लगना
है
उसके
बाद... ।
वह अपनी बात
पूरी
ही
न
कर
पाया
कि
पिता
ने
कहा
- ‘हमने अमुक
व्यक्ति
की
अमुक
लड़की
से
तुम्हारी
शादी
करने
की
बात
सोची
है
।’
जिसे वह जी-जान से
चाहता
था, पिता के
मुख
से
उसी
का
नाम
सुनकर
वह
हक्का-बक्का रह
गया, उसके मुख
से
कुछ
भी
न
निकला
।
पिता ने अपनी
बात
को
आगे
बढ़ाते
हुए
कहा
- ‘मैं चाहता
था
कि
तुम
भी
उसे
देख
लो, मिल लो, मुझे विश्वास
है, तुम्हें वह
पसन्द
आयेगी
।’
अभी-अभी उसने
शादी
करने
से
इन्कार
किया
था
- यह
बात
न
जाने
कहाँ
चली गई और
वह
अत्यन्त
विनम्रता
से
कहने
लगा
-
ßजब आपने
देख
लिया
है
तो
मुझे
क्या
देखना? आपकी अनुभवी
दृष्टि
के
सामने
मैं
समझता
भी
क्या
हूँ? आप जो
कुछ
भी
करेंगे, वह ठीक
ही
होगा
।Þ
वह अपनी बात
पूरी
भी
न
कर
पाया
था
कि
पिताजी
कहने
लगे
- ßये
तो
ठीक
हैं, पर एक
निगाह
तुम
भी
डाल
लेते
तो
ठीक
रहता
...।Þ
ßनहीं,
नहीं, मुझे कुछ
भी
नहीं
देखना
हैÞ
जब
पुत्र
ने
यह
कहा
तो
पिताजी
कहने
लगे
-
ßसुनो,
अभी
दो-चार दिन
में
ही सगाई पक्की
कर
देंगे।Þ
ßठीक हैं।Þ
ßठीक है
नहीं, पूरी बात
सुनो
। सगाई तो
अभी
कर
देंगे, पर शादी
चार
माह बाद मई -जून में
ही
हो
पायेगी
।Þ
ßठीक है, जब आप
ठीक
समझे
।Þ
ßपर,
हमारी
एक
शर्त
है
कि
जब
तक
शादी
न
हो, तब तक
तुम
दोनों
एक-दूसरे के
घर
के
चक्कर
नहीं
लगावोगे
।Þ
ßठीक है
।Þ
ßऔर भी
सुनो, चिट्ठी-पत्री
भी
नहीं
चलेगी।Þ
ßठीक है, ठीक है, कोई बात
नहीं
।Þ
ßएक बात
और
भी
है
कि
तब
तक
तुम
एक-दूसरे के
बारे
में
सोचोग
भी
नहीं, एक-दूसरे
को
ध्यान
में
भी
नहीं
लाओगे, क्योंकि यदि
तुम्हारा
चित
एक-दूसरे में
उलझ
कर
रह
गया
तो
पढ़ाइ-लिखाइ चौपट
हो
जायेगी
।Þ
व्यग्र होते हुये
लड़का
बोला
-ßजो
भी
हो, पर आपकी
यह
बात
नहीं
मानी
जा
सकती
।Þ
ßक्यों?Þ
ßक्योंकि
यह
बात
हमारे
हाथ
में
नहीं
है
।
जिससे
अपनापन
हो
जाता
है, स्नेह हो
जाता
है, वात्सल्य हो
जाता
है, जिसके प्रति
रुचि
जाग्रत
हो
जाती
है, उसका ध्यान
आये
बिना
नहीं
रहता
।
प्रयत्न
करने
पर
भी
यह
संभव
नहीं
है
कि
उसका
ध्यान
ही
न
आवे
।Þ
उक्त कथा
का सार इतना ही है कि जिसका परिचय हो, जिससे
अपनापन हो, जिससे
राग हो, स्नेह
हो गया हो, जो
अपना सर्वस्व लगने लगे; उसके
प्रति तो सर्वस्व सर्मपण हो ही जाता है, हो
ही जाना चाहिए; उसका
ध्यान करने के लिए प्रयत्न नही करना पडता। उसके लिए किसी प्रेरणा की आवश्यकता नही पडती, उसका
प्रशिक्षण भी नही लेना पडता, सब
कुछ सहज ही होता है।
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