Saturday, July 21, 2012

धर्म क्या है?


धर्म के विषय में आप क्या सोचते हैं? क्या धर्म लोगों की स्वार्थपूर्ति का एक माध्यम है अथवा धर्म आत्मोन्नति का एक मार्ग है? आज के सन्दर्भ में यह एक विचारणीय प्रश्न है।
     लेगों ने धर्म को मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति का एक माध्यम बना कर रख दिया है कुछ मूर्खलोग अपनी तरह-तरह की अनावश्यक मनोकामनाएं, इच्छाएँ भगवान पर लादने-थोपने के लिए उसके दरबार में जाते हैं। जो देवी देवता जितने लोगों को मनोकामना पूर्ति कर दें वह उतना ही महान है अन्यथा वह बेकार हैं। कुछ चतुर लोग धन कमाने के लिए धर्म का मार्ग अपनाते हैं तरह-तरह के स्वांग रचकर, भेष भरकर जनता के सामने अपने को योगी, सिद्ध पुरुष आत्मज्ञानी-ब्रह्मज्ञानी प्रदर्शित करते हैं। येन केन प्रकारेण जनता से धन वसूलकर उससे अंदर ही अंदर भोग विलासिता अध्याशी का जीवन जीना ही उनका असली धर्म है। प्रति वर्ष ऐसे लोगों की पोल खुलती है परन्तु पांच लोगों की दुकान बंद होती है तो पचास नए लोगों की दुकान खुल जाती है। कुछ अमीर अहंकारी लोग अपना नाम-यश के ताने के लिए धर्म को एक माध्यम बनाते हैं। वो ऐसी जगह दान देते हैं जहां देने पर उनकी प्रसिद्धि होती है। ऊँच बडे भाग भव्य मंदिरों की स्थापना, अपने नाम के पत्थर लगवाना, फोटो खिंचवाना, समाचार पत्रों में नाम का यशोग्पन यही उनका असली धर्म है। कुछ राजनैतिक लोग वोट बैंक बनाने के लिए धर्म की शरण में जाते हैं। जिस संत के जितने अनुयायी उससे उतना बडा वोट बैंक बन सकता है। धर्म को माध्यम बनाकर व्यक्ति अपना-अपना उल्लू सीधा करने की सोचता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि क्या धर्म लोगों की स्वार्थपूर्ति, इच्छापूर्ति का एक माध्यम भर है अथवा इससे उपर की कोर्इ विद्य है?
     वास्तव में धर्म आत्मोन्नति, आत्मकल्याण का एक पवित्र मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलना चाहें उन्हें धर्म के सही स्वरूप को खोजना चाहिए। अन्यथा व्यर्थ पाखण्ड़ों को ढोते-ढोते व्यक्ति समाज अवसाद की स्थिति में डूबता जा रहा है। धर्म आत्मा के उद्वार का, आत्मा के उत्थान की एक सुव्यवस्थित पद्धति है जिसका अनुसरण कर हम एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकते हैं।
     बडे दुख की बात है कि स्वार्थ भोग्यवाद की तेज आंधी में पूरा समाज बहा जा रहा है कितनी दूर कहां जाकर रूकेगा कुछ पता नहीं। जिनको भगवाने ने थोड़ा सा भी विवके दिया हो या आत्मबल दिया हो वो तुरन्त सावधान होकर आत्म निरीक्षण करें। अपने पैर दृढ़तापूर्वक धर्म के मार्ग पर बढ़ाने का प्रयास करें अन्यथा मूढ़ मान्यताओं के तेज दरिया में सब कुछ बह जाएगा नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा।
     जिनकी मनोकामना पूरी करनी हो मनोकामना पूरी करने की सोचें। जिनके धन बटोरना हो धन बटोरे जिनके पैर पुनवाने हो पैर पुनवाएं, जिनको प्रतिष्ठा चाहिए प्रतिष्ठा की सोचे। जिनको पेट पालना हो पेट पाले, नशाखोरी करनी हो करें
     परन्तु जिनको आत्मा की उन्नति करनी हो वह गीदड़ो के घुले मिले नहीं अलग से सनातन धर्म की स्थापना के लिए संघबद्ध हों, र्इश्वर की पुकार को सुनें अपनी अन्तरात्मा की आवाज को पहचानें, साहस का अवलम्बन करें और संघबद्ध होकर पूरे विश्व के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करें

               
भगवान कहते हैं:
आत्मैव ह्यात्मनो बंधु: आत्मैव रिपुरात्मन:
 मनुय स्वयं ही अपने आपका मित्र है और स्वयं ही अपने आपका शत्रु जो मनुष्य इन दोषो को निकालकर अंत:करण को निर्मल करता जाता है उसका ध्यान प्रगाढ होता जाता है और जो इन दोषो को निकालने में लापरवाह रहता है वह अपने आपका शत्रु हो जाता हैक भगवान बुद्ध कहते थे: ‘‘अप्प दीपो भव। अपना दीया आप बनो।’’
         
         साधना के : विघ्न
निद्रा, तंद्रा, आलस्य, मनोराज, लय और रसास्वाद-ये : साधना के बड़े विघ्न हैं। ये विघ्न आयें तो हर मनुष्य भगवान के दर्शन कर ले।
जब हम माला का जाप करने बैठते हैं तब मन कहीं से कहीं भागता है। फिर मन नही लग रहा...’ ऐसा कहकर माला रख देते हैं। घर में भजन करने बैठते हैं तो मंदिर याद आता है और मंदिर में जाते हैं तो घर याद आता है। काम करते हैं तो माला याद आती है और माला करने बैठते हैं तब कोर्इ कोर्इ काम याद आता है यह एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है।
दो दोस्त थे आपस में उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन वे खेत में घूमने के लिए निकले और विचारने लगे कि: हम एक बड़ी जमीन लें और भागीदारी में खेती करें...’
एक ने कहा: ‘‘मैं टै्रक्टर लाऊंगा। तू कुऑं खुदवाना।’’ दूसरा: ‘‘ठीक है। टै्रक्टर खराब हो जाये तो मैं बैल रखूंगा।’’
पहला: ‘‘अगर तेरे बैल मेरे हिस्से के खेत में घुस जायेंगे तो मैं उन्हें खदेड़ दूंगा।’’
दूसरा: ‘‘क्यों? मेरे बैलों को क्यों खदेड़गा?’’
पहला: ‘‘क्योंकि मेरी खेती को नुकसान पहुंचायेंगे।’’
इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी हो गर्इ और बात बढते-बढते मारपीट तक पहुंच गर्इ दोनों ने एक-दूसरे का सिर फोड़ दिया। मुकदमा हो गया।
दोनो न्यायालय में गये। न्यायाधीश ने पूछा: ‘‘आपकी लड़ार्इ कैसे हुर्इ?’’
दोनों बोले: ‘‘जमीन के संबंध में बात हुर्इ थी।’’
‘‘कितनी जमीन और कहां ली थी?’’
‘‘अभी तक ली नहीं है।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
एक: ‘‘मेरे हिस्से में टै्रक्टर आता था, इसके हिस्से में कुऑं और बैल।’’
न्यायधीश: ‘‘बैल कहां हैं?’’
दूसरा: ‘‘अभी तक खरीदे नहीं हैं।’’
जमीन ली नही है, कुऑं खुदवाया नहीं है, टै्रक्टर और बैल खरीदे नहीं हैं फिर भी मन के द्वारा सारा बखेड़ा खड़ा कर दिया है और लड़ रहे हैं
इसका नाम मनोराज है माला करते-करते भी मनोराज करता रहता है यह साधना का बड़ा विघ्न है
कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है आत्मा का दर्शन नही होता किन्तु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया। ध्यान में से उठते हैं तो जम्हार्इ आने लगती है। यह ध्यान नही, लय हुआ। वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किन्तु लय में ऐसा नही होता है।
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है। साधना करते-करते थोड़ा-बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है।
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते हैं तो नींद नही आती। यह भी साधना का एक विघ्न है।
तंद्रा भी एक विघ्न है। नींद तो नही आती किन्तु नींद जैसा लगता है। कितनी मालाएं घूमीं इसका पता नही चलता। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है
साधना करने में आलस्य आता है। अभी नही, बाद में करेंगे...’ यह भी एक विघ्न है।
इन विघ्नों को जीतने के उपाय भी हैं
मनोराज और लय का जीतना हो तो दीर्घ स्वर से ...’ का जप करना चाहिए।
स्थूल निद्रा को जीतने के लिये अल्पाहार और आसन करने चाहिए। सूक्ष्म निद्रा यानि तंद्रा को जीतने के लिये प्राणायाम करना चाहिए
आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा। प्राणायाम और आसन भी आलस्य को दूर करने में सहायक है
रसास्वाद से भी सावधान रहो एवं अपना विवेक सतत बनाये रखो सदैव सजग और सावधान रहो साधना के विघ्नों को पहचानकर उचित उपाय से उनका निराकरण करो और अपने लक्ष्य पथ पर निरन्तर आगे बढते रहो।
जो मनुष्य इसी जन्म में  मुक्ति प्राप्त करना चाहता है उसे एक ही जन्म में हजारों वर का काम कर लेना होगा उसे इस युग की रफ्तार से बहुत आगे निकलना होगा। जैसे स्वप्न में मान-अपमान, मेरा-तेरा,अच्छा-बुरा दिखता है और जागने के बाद उसकी सत्यता नही रहती वैसे ही इस जाग्रत जगत में भी अनुभव करना होगा। बस... हो गया हजारों वर्षो का काम पूरा। ज्ञान की यह बात हृदय में ठीक से जमा देने वाले कोर्इ महापुरूष मिल जाये तो हजारों वर्षो के संस्कार, मेरे-तेरे के भ्रम को दो पल में निवृत कर दें और कार्य पूरा हो जाय।    (’जीवन रसायन पुस्तक से)

जो लोग देव शक्तियों के दर्शन मर्म को जीवन में उतारने का प्रयास नही करते, अपितु पुण्य धर्म लाभ हेतु देवमूर्तियों के दर्शन करते घूमते रहते हैं, वे केवल अपना समय धन दोनों बर्बाद करते हैं।    -राजेश
जिन व्यक्तियों का सहस्त्रार जाग्रत होता है वही केवल संयासी की भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि सहस्त्रार की जागृति ही व्यक्ति को इतनी अन्तर्मुखी बना सकती है कि उसमें स्थायी परिपक्व वैराग्य पैदा हो सके

भारतवर्ष की समस्त जनता के लिये मंगलमय भगवान का संदेश-
1-     क्या हम वास्तव में भगवान से प्यार करते हैं?
2-     क्या हमारा प्यार एक तरफा है अर्थात सदा भगवान से कुछ मांगने के लिये है?
भगवान ने हमको इतने अनुदान वरदान दिये हैं क्या हमने कभी यह जानने का प्रयास किया कि वो हमसे क्या चाहता है?
क्या हम भगवान से केवल पाना चाहते हैं या उसकी इच्छापूर्ति के लिये भी कुछ करना चाहते हैं?
भगवान सनातन धर्म का पुनरूत्थान, पुनरूद्वार इस धरती पर करना चाहता है। क्या भगवान की इस योजना में आप भाग लेना चाहेंगे? अपनी अंतरात्मा में भगवान की आवाज को सुनिये। मंगलमय भगवान को आज 24000 आत्मदानी, जीवनदानी समर्पित व्यक्ति चाहिए जो अपना अहं, अपनी इच्छाएं, अपनी वासनाएं नियंत्रित मर्यादित कर भगवान की इच्छापूर्ति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सके
भगवान को 24 लाख सहयोगी चाहिए जो इस दिव्य योजना में भगवान कर सके इसके लिये अंशदान (आय का 1 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक), समयदान (समय का 1 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक) देने के लिये संकल्पित हो। 24 करोड़ समर्थक चाहिए जो इस योजना का समर्थन करें समय समय पर इसमें अपनी भागीदारी निभाएँ।
अपने प्रिय साथियों के लिए -
 हे भगवान हमें इतने समय तक ऊर्जा देता रहा है। इसके बदले हमने उसे क्या दिया? संसार में सर्वत्र ळपअम - जंम (एक हाथ दो एक हाथ लो) का सिद्धांत काम करता है हम भगवान के लिये समयदान अंशदान निकालें।
सनातन धर्म के मुख्य आधारभूत सिद्धान्त (सत्य, सेवा, सहयोग, सुमिरन, समर्पण)
सदगुरू के स्वर

मेरे विचारों में मेरे साहित्य में मेरी इच्छाओं को ढूंढो। इन शिक्षाओं का अनुसरण करो जो मेरे गुरू ने मुझे दी थी और जिसे मैंने तुम्हें दिया है। सदैव अपनी दृष्टि लक्ष्य पर स्थिर रखो अपने मन को मेरे विचारों से परिपूर्ण कर लो। मेरी इच्छा और विचारों के प्रति जागरूकता, स्थिरता और भक्ति में ही शिष्यत्व है।
             -महर्षि श्री राम, अखण्ड ज्योति नवबंर
भक्ति योग
   ‘‘भावों की शुद्धि, भावों की भगवान में विलिनता, भगवन्मय जीवन यही भक्त के लक्षण हैं।
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति।।
‘‘भक्ति के तत्व को जानने वाला उन्मत हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है और आत्मा में रमण करने वाला हो जाता है।’’
‘‘भावों की परिशुद्धि के साथ जब ऊर्जा का ऊध्र्वगमन होता है और यह जीवन का रूपांतरण करती हुई, परमात्म ऊर्जा में लय होती है, तभी इस सूत्र का अनुभव होता है।
सामान्य भाव चेतना तो अपनी अशुद्धियों के  कारण परमात्मचेतना की अनुभूति कर ही नही सकती पर रूपान्तरित होने के बाद एक नवीन अनुभूति होती है। कुछ ऐसी जैसी कि प्याली में सागर उमड़ आये। जीवात्मा में परमात्मा के उमड़ते ही एक अद्भूत सात्विक-आधात्मिक उन्माद छा जाता है, फिर नही बचती लोकरीति की लकीरें, नही बचती जीवन की क्षुडताएं। होती हैं तो बस, विराट-व्यापकता में विलीनता। ऐसी मस्ती छाती है कि मन रूकता है तन। जीवन झूम उठता है और गूँजता है भक्ति का भाव संगीत, जो किन्हीं भी सात सुरों का मोहताज नही होता, बल्कि इसमें तो सभी सुर-ताल लय हो जाते हैं।’’
‘‘जो भक्ति पथ पर चलना चाहते हैं, उनसे मेरा यही कहना है कि इस पथ पर पहले तो पीड़ा होगी बहुत, विरह भी होगा। मार्ग में कांटे भी चुभेंगे, आंसू भी बहेंगे, पर भक्त को बिना घबराये आगे बढना है, क्योंकि जो मिलने वाला है वह अनमोल है। जिस दिन मिलेगा उस दिन भक्त उन्मत्त हुए, स्तब्ध हुए, आत्मारात हुए बिना रहेगा।
उसकी एक एक आस पर हजार-हजार फूल खिलेंगे। उसकी एक-एक पीडा हजार-हजार वरदान लेकर आएगी।
लघु कथा
जब र्इसा येरूशलम से वापस लौटे तो उनके शिष्यों ने उनके आवभक्त की और अपनी-अपनी मनोभावनाएं उनके सामने रखीं।
शिष्यों में से दो प्रमुख थे- जेम्स और योहन्ना। उन्होंने कहा-’’प्रभु। यदि हमें प्यार करते हैं तो हमारा पद अपने समान की ऊंचा कर दीजिए। र्इसा गंभीर हो गए और कहा- ‘‘बच्चो। हर कोर्इ स्वर्ग के राज्य में अपने ही प्रयत्नों से प्रवेश करता है। दूसरा कोर्इ दूसरे के लिए कुछ नही कर सकता, ऊंचा बनने के लिए मत ललचाओ, छोटे बनकर रहो। विनीत बनो और प्रेम भरी सेवा को अपनी धर्म साधना बनाओ। जो नीचा-छोटा बनता है, वही तो ऊंचा पद पाता है।’’
आज समय कुछ इस प्रकार का है कि चहुं ओर मात्र अर्थ का ही बोलबाला है। लोगों ने अर्थ की ताकत को समझा और पहचाना है तथा उसी के पीछे अंधाधुंध भाग रहे हैं। परंतु धर्म अर्थ से कहीं अधिक शक्तिशाली है। शीघ्र ही ऐसा समय रहा है जब लोग धर्म की ताकत को पहचानेंगे और धर्म की शरण में जाना पसंद करेंगे।
मंगलमय मांगकन की प्ररेणा से 24,000 प्रबुद्ध आत्माओं की एक विशाल सेना इस कार्य के लिये तैयार की होने जा रही है। जिनको आत्मिक प्रगति-आत्मोन्नति की चाह हो वो आगे बढें उनका इस महान कार्य में स्वागत है। धर्म की रक्षा उत्थान के लिए इस सेवा में सम्मिलित होने के लिए निम्न सूत्रों को हृदयंगम करें।
आत्मोन्नति, आत्मजागृति, बोधिसत्व की राह पर चेत
(बुंद्ध शरंण गच्छामि)
धर्म को सर्वोपरि महत्व दें (धम्म शरंण गच्छामि)
संगठित होना, सहयोगी होना, संधबद होना सीखे
(सघ शरंण गच्छामि)
     जनसामान्य में धर्म चेतना के जागरण के लिए इस पुस्तक का लेखन-संकलन किया गया है। आशा है आप सभी को पसंद आएगी सबके लिए लाभप्रद होगी
     धर्म और अधर्म के बीच एक देवासुर संग्राम सन 2011 से प्रारम्भ होने जा रहा है। अधर्म कितना भी ताकतवर व्यापक नजर आता हो। परन्तु जीत अन्तत: धर्म की ही होगी। जो अधर्म का पथ अपनाएगा भले आज कितना ऊँचा चढ़ गया हो परन्तु आने वाले महाभारत में रणभूमि में मृतकशैष्य निराशा हताश अपने गलत कमोर् का प्रायश्चित करता नजर आएगा।
जो इच्छा कीरहौ मन माहीं
हरि प्रसाद कहु दुर्लभ नाही ।।’’
     आर्यवर्त का निवासी जब तक सिद्धान्तवासी था तब तक आत्मोन्नति करता रहा परन्तु जब से वह स्वार्थवादी हुआ उसकी आत्मा अवसाद में डूबती गयी। भगवान गीता में कहते हैं कि अर्जुन तू अपनी आत्मा का स्वयं ही उद्वार कर सकता है वह स्वयं ही उसको अवसाद में ले जा सकता है। तू स्वयं ही अपनी आत्मा का शत्रु है स्वयं ही मित्र हो सकता है।
     विश्वामित्र यह शपथ लेता है कि वह अपने में सदा सिद्धान्तवादी बना रहेगा, स्वार्थवादी नहीं।
     स्वार्थवादी व्यक्ति धीरे-धीरे अनेक दुर्गणों का भण्डार होता है। वह तरह-तरह के लोभ-लालच में अक्सर उलझ जाता है। धूर्त लोगों ने व्यक्ति के इस स्वार्थवादी दृष्टिकोण का लाभ उठाया पूर्ण गुरु का चोला पहनकर धर्म के बाजार में स्वयं को रंगारंग करके प्रस्तुत किया।
     शरण में आने पर लोगों के कष्ट दूर करेंगे उनको दुखों से परिक्षण कर मोक्ष का परम आनन्द दिलाएंगे। यह माया का जाल फैलाया। स्वार्थी अनजान जनता इनके चक्रव्यूह में फंस गयी। वह संगठन सिद्धान्त दोनों ही महत्वपूर्ण सूत्रों से दूर होकर चापलूस निकम्मी होती गयी।


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