Friday, July 27, 2012

आत्म-कल्याण

 जागृति
हे अमरता के अभीप्सु ! परम सत्य के पुजारी! उठ! शास्त्र अध्ययन में मन लगा। उस अमृतमय वाचा को हृदयंगम कर। तुझे पथ प्राप्त होगा। तू आत्म-चेतना में उठेगा। आत्म-सत्य में जागेगा। आत्म-उपलब्धि रूपी पीयूष-सिंधु पर तेरा अधिकार होगा।
तू शरीर रूपी इस पिंजरे से सोचने विचारने वाला प्राणी मात्र नही है। तेरे इस मृण्मय शरीर में अमर आत्मा का, एक दिव्य पुरूष का निवास है। वह तेरे अस्तित्व का सच्चा अस्तित्व है। उसे ढूंढ। आंतरिक खोज को जीवन लक्ष्य के रूप में चुन। अगर तू अपनी खोज में सच्चा रहेगा, अगर तेरी अभीप्सा में इंद्र्रियों की लालसा, प्राणों की चाह और मन की कामनाओं का मिश्रण नही है तो तू अवश्य सफल होगा और देखेगा कि यह अमर आत्मा, यह दिव्य पुरूष स्वयं तू ही है। इसे प्राप्त करने के पश्चात् तू असहाय-सा प्राणी होकर पृथ्वी पर नही भटकेगा। सब प्रकार की अकिंचनताएं तेरे मन से झड़ जाएंगी। विचार तेरे दिव्य स्वभाव के अनुरूप हो उठेंगे इंद्रियां तेरा आदेश पालन करेंगी तेरा शरीर एक शुद्ध समर्पित यंत्र के रूप में कार्य करेगा। तू अपने आपको आज की भॉंति अपनी प्रकृति के दास के रूप में नहीं वरन् इसके स्वामी के रूप में पायेगा। एक बार जहां आत्मा का साक्षात् हुआ, अंतस्थ सत्ता से तादात्म्य स्थायी बना, तू क्षुद्र प्राणी की जगह अपने आपको भूमा, विराट अनंत दिव्य पुरूष के रूप में अनुभव करेगा। वही तेरी सत्य और नित्य स्थिति है और इसके साथ ही समझेगा कि यह सब जो तेरी असहाय अवस्था थी, केवल एक नाटक था। सृष्टि मंच पर तेरा एक अभिनय था, जो तुने जग स्वामी की प्रसन्नता के लिए स्वीकार किया था।

हमने मन और इंद्रियों को अंतर्मुख नही किया, इसीलिए सच्चे सुख से दूर रहे। चित्त्त को  आंतरिक नीवरता में एकाग्र नहीं किया, इसलिए प्रकृति से पृथक्करण संभव नही हुआ। हृदय की गहराई में डुबकी नही लगाई, इसलिए आत्म-दर्शन लाभ नही कर सके। प्रभु को समर्पण नही किया, उनकी शरण ग्रहण नही की, इसलिए जीवन असफल रहा।

इच्छाएँ सबके अंदर हैं कुछ सुखी होना चाहते हैं, कुछ भोगों में लिप्त। कुछ ऊँचा उठना चाहते हैं, कुछ स्वर्ग की प्राप्ति। किन्तु जब आंतरिक खोज का, आत्म-उपलब्धि का प्रश्न आता है तो बा कुछ और ही हो जाती है। जीवन सामान्य स्तर से उठकर आध्यात्मिकता का रूप ले लेता है। जिसकी पहली शर्त ही है, सब इच्छाओं का त्याग। चाहे हमारी इच्छा, हमारी दृष्टि में कितनी भी ऊँची अथवा महत्वपूर्ण क्यों हो, आध्यात्मिक जीवन में सब प्रभु की इच्छा के अनुसार, आत्मिक विधान पर आधारित होना चाहिए। अपने ढंग से, मनोनिर्मित किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक कही जानेवाली अभिव्यक्ति, चाहे वह सता के किसी भी भाग में हो, इस मार्ग में सहायक होने की बजाय, बाधक ही सिद्ध होती है। समर्पण से बाहर होकर, समर्पण को भुलाकर, उसे एक ओर रख कर, साधक को अपने आत्म-कल्याण की बात नहीं सोचनी चाहिए। यह एक खतरा है, पतन है, गलत राह है। कारण, हमारा आत्म-कल्याण किस वस्तु में है, हमारा मन नहीं जानता। आत्म-कल्याण की परिभाषा, उसकी धारणा, हमारा मानसिक अहं अपने ही ढंग से प्रदर्शित करता है। वह सही नहीं होती सीमित, आंशिक, एकपक्षीय होती है। वह ठीक वही चीज नहीं होती, जो हमारे अंतस्थ प्रभु ने इस जीवन में हमारे लिए नियुक्त की है। इस तथ्य की सूक्ष्मता को जो साधक समझने की कोशिश नहीं करते अथवा इस सूक्ष्मता को समझे बिना, पथ का चुनाव अपने हाथों में ले लेते हैं और अपना आत्म-कल्याण स्वयं अपने ढंग से करना चाहते हैं, वे ही प्राय: एक गुरू से दूसरा गुरू, एक आश्रम से दूसरा आश्रम खोजते और बदलते रहते हैं। स्पष्ट है कि इन्होंने तो समर्पण के भाव की गहराई को समझा है और आत्म-कल्याण के सही अर्थ को।
     जब तक हम विचार के स्थान पर भीतर डुबकी लगाना और चुनाव के स्थान पर अंतस्थ पुरुष की शरण ग्रहण करना नहीं सीख लेते, जीवन-मार्गो पर हमारी भटकन बनी रहेगी।
     अगर हम गंतव्य को सीधे सहज ढंग से प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें हर कदम सचेतन होकर उठाने का अभ्यास करना होगा। अंदर और बाहर विद्यमान उपस्थिति के प्रभाव में रहना होगा। जीवन-स्वामी के संपर्क में रहते हुए हर कर्म उनकी अनुमति से, उनके लिए करना होगा।
     विश्वासी बन! विश्वास रख! विश्वास गया तो सब गया।
     श्रद्धा को मत छोड, मत छूठने दे, दृढ़तापूर्वक पकड़े रह।
     जब तक श्रद्धा है सब कुछ है, सब कुछ सुरक्षित है, सब
     संभव है। श्रद्धावान बिना नाव के सप्त-सिंधु लांघ जाता है।
     जहां श्रद्धा वहीं भगवान; जहाँ भगवान का हस्क्षेप, उनकी सहायता, उनकी कृपा, वहां सब कुछ।

सच्ची युवावस्था
     सुख की इच्छा, सुख की आशा हमारी चेतना का पतन है। सुख और शांतिमय जीवन बिताने का अर्थ है, प्रगति के लिए अभिप्सा का रहना। आत्म-विकास के उद्देश्य को एक ओर रख देना। उत्कर्ष की संभावनाओं को स्थगित कर देना। उन्नति की बात को भुला देना। आत्म-विजय, आत्म-उद्धार के सपनों का स्वाहा कर देना। जिसे कहा जा सकता है, हमने अकर्मण्यता में डूबे रहने के विचार को स्वीकार कर लिया है। यह निष्क्रियता है, जो तमोगुणी प्रकृति की देन होती है। अर्थात् हमारी चेतना का तमोगुण में पतन, और जिसे सहज भाव में एक प्रकार की मृत्यु, मृत्यु जैसी स्थिति कहा जा सकता है। निष्क्रियता को जब हम स्वीकार कर लेते हैं और प्रगति की ओर से अपना ध्यान हटा लेते हैं, केवल सुख-शांतिमय जीवन के सपने सजाने लगते हैं, चाहे हमारी आयु जो भी रही हो, हमारा नाम उन व्यक्तियों में जाता है, जिनके बारे में श्रीमाताजी कहती हैं कि मैंने बीस वर्ष के बूढ और अस्सी वर्ष के जवानों को देखा है। यहां यह बात भी स्पष्ट हो जाती है, जिसका उल्लेख उन्होंने अन्यत्र किया है, कि आयु प्रगति में कभी बाधक नहीं होती। जहां तक हमारा संकल्प दृढ़ हैं, हमारे भीतर अभीप्सा और आत्म-विश्वास है, प्रभु-कृपा में हमारी श्रद्धा अटूट हैं, हम प्रगति करते हैं।

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