योगसूत्र में
नियम के पांच
भाग बताये गये
हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान।
आयुर्वेद भी इन
पर अपनी राय
व्यक्त करता है-
शौच-
आचार्य
चरक कहते हैं
कि उत्तम वैद्य
योगी भी होना
चाहिए-दाक्ष्यं शौचमिति ज्ञेयं वैद्ये गुणचतुष्टयम्
(चरक सूत्र
9/6)। शौच से
आयुर्वेद वही अर्थ
बताता है, जो योगी
बताते हैं- कायिक, वाचिक एवं
मानसिक शुद्धता।
इसे ही
योगी बाह्याभ्यतंर शुचि
कहते हैं। आयुर्वेद
कहता है कि
मनुष्य की बहिरंग
की शुद्धि के
लिए अंगप्रक्षालन, स्नान, दंतधावन, गंडूष (कुल्ला) आदि कर्म
हैं तो अंतरंग
शुद्धि का अर्थ
सामाजिक एवं मानसिक
स्तर ऊंचा उठना, धी, धृति, स्मृति का
ज्ञान आदि से
है, जो व्यवहार
में भी उतरे।
संतोष-
असंतोष को
आयुर्वेद कष्ट का
प्रमुख कारण मानता
है(चरक सूत्र 25 )। योगसूत्र (2/42)
कहता है,
संतोष सर्वोतम सुख है- संतोषात्
अनुत्तमसुखलाभ:।
इससे उत्तम दुनिया में कोई भी सुख नही है। चाहरहित होना अनंत सुख देता है, ऐसी पतंजली की मान्यता है। क्लेशमुक्त होना व्यक्ति को शांति देता है,
यह आयुर्वेद की मान्यता है। दोनों में कोई अंतर नही है।
तप-
योगसूत्र इस विषय में कहता है-’’तप के प्रभाव से जब अशुद्धि नष्ट हो जाती है,
तब शरीर और इंद्रियों की सिद्धि हो
जाती है’’-
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयापस: (2/43)
।
कष्ट सहन करना- शरीर को
इसका अभ्यास कराना, व्रत-उपवास आदि का
पालन तप माना गया है। इससे शरीर, इन्द्रिय एवं मन का
मलों का नाश हो
जाता है,
ऐसी पतंजली की मान्यता है। आयुर्वेद में आचार रसायन प्रसंग में कहा गया है कि प्रतिदिन जप,
शौच दान एवं तप
का अभ्यास करें तथा देवता,
गौ, ब्राहमण, आचार्य एवं गुरू की
सेवा में निरत रहें।
इसके अलावा स्थान-स्थान पर व्रत उपवास की महत्ता बताई गई है। आचार्य सुश्रुत कहते हैं-
त्रिपदा गायत्री का जप
करने से तप सधता है-
‘‘गायत्री त्रिपदा जपेत्’’
स्वाध्याय-
स्वाध्याय दिनचर्या
का एक महत्वपूर्ण
भाग है। योगसूत्र
में कहा गया
है कि अपने
जीवन का अध्ययनरूपी
स्वाध्याय करते रहने
से योगी जिस
इष्टदेव के दर्शन
की कामना करता
है, उसका दर्शन
करता है। यहां
आशय यह है
कि योगी साधक
का आत्मबोध शीघ्र
होता है और
निर्मल अंत:करण में
उसे वे सभी
अनुभूतियां होने लगती
हैं, जो इष्ट
का साक्षात्कार होने
पर होती हैं।
यदि हमारा इष्ट
परमेश्वर है तो
वह आदर्शों का
समुच्चय है। हमें
स्वाध्याय द्वारा उन्हीं
आदर्शों का बोध
होने लगता है।
शास्त्रों का निरन्तर
अभ्यास (पठन-मनन-पाठन), मंत्रजप एवं
जीवन में उनका
नियोजन- इन सब
समुच्चय स्वाध्यायरूपी नियम की
रचना करता है।
आयुर्वेद में स्थान-स्थान
पर अपनी दिनचर्या
में स्वाध्याय को
स्थान देने की
महत्ता चरक एवं
सुश्रुत बतलाते हैं।
ईश्वर प्रणिधान
से तात्पर्य
है कि ईश्वर
की शरणागति। इससे
योग साधना में
आने वाले सभी
विघ्नों का नाश
होता है। योगसूत्र
कहता है कि
इससे समाधि की
सिद्धि प्राप्त हो
जाती है। वस्तुत: यह उस भाव-अवस्था
की प्रगाढता है, जिसमें साधक स्वयं
को परब्रह्म परमेश्वर
के हाथों सौंपकर
स्वयं को कठपुतली
मान लेता है।
ऐसे साधक को
साधन के परिणाम
की चिंता नही
होती। सारे विघ्न ईश्वर के प्रति
शरणागति भाव से
सतत् दूर होते
रहते हैं। यही
बात योग सूत्र
में भी कही गई है। आयुर्वेद
में मानस दोषो
के निवारण के
लिए एक चिकित्सा
बताई गयी है- ईश्वर का ध्यान, यहां तक कि
ज्वर की चिकित्सा
में भी चरक
विष्णुसहस्त्रनाम पाठ सहित ईश्वर की शरण
में जाने की
बात लिखते हैं (2-310,311)।
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