गो-चिकित्सा पद्धति वह उपचार-पद्धति है, जिसके अन्तर्गत मानव अथवा मवेशियों की बीमारियों का उपचार गो-उत्पादों से किया जाता है, जैसे पंचगव्य। अर्थात् गाय से मिलने वाली पांच वस्तुएं दूध, घी, दही, मूत्र और गोबर। हमारे प्राचीन आयुर्वेद साहित्य में इसे पंचगव्य-चिकित्सा का नाम दिया गया। हालके वर्षो में विश्व के वैज्ञानिक समुदाय में भारतीय तकनीकी जानकारी के विकास या उसकी वैज्ञानिक वैधता स्थापित करने में रूचि पैदा हुई , ताकि एक वैकल्पिक उपचार-पद्धति या रोगनिवारक पद्धति के रूप में उसे स्थापित किया जा सके। आधुनिक ऐलोपैथिक उपचार, विशेषकर सूक्ष्म जीवाणुओं में प्रतिरोध क्षमता विकसित होने और आनुष्गिक प्रभावों (साइड इफेक्ट्स) की प्रवृत्तियों से स्पष्ट हुआ है कि वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति के अन्वेष्णपर न केवल भारत में, बल्कि विश्व-स्वास्थ्य-संगठनद्वारा भी ध्यान दिया जा रहा है। डब्ल्यू.एच.ओ. ने ऐसी पद्धतियों को मान्यता भी प्रदान की है। वास्तव में पश्चिमी जगत् में भी वैज्ञानिकों को जीवाणुओं में विभिन्न औषधियों की प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने, खाद्य-खला में एंटीबायोटिक अवशेष विद्यमान रहने और मनुष्य में सम्बद्ध एलर्जी तथा स्वत: रोगप्रतिरक्षण-विकृतियां पैदा होने की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के अनुसार 20वीं सदी की आश्चर्यजनक औषधियाँ-’एंटिबॉयोटिक्स’ सन् 2020 ई . तक प्रभावकारी नहीं रहेंगी और लगभग बेअसर हो जायेंगी, तब फिर संक्रमण यानी इन्फैक्शन्सपर नियन्त्रण करने के लिए मानव को वैकल्पिक उपचार-पद्धतियों पर विचार करना होगा। वास्तव में ज्यादातर एंटीबोयाटिक दवाओं का स्वरूप बैक्टीरियोस्टेटिक होता है और वे बैक्टीरियाकों मारती नहीं हैं, बल्कि उनकी बढ़ोतरी रोकती हैं या उस पर अंकुश लगाती हैं और बैक्टीरिया का अन्त शरीर के स्वयं के रक्षातन्त्र, जिसे ‘फैगोसिटिक सिस्टम’ कहा जाता है, के माध्यम से होता है। इसमें मैक्रोफैगस (रक्त के मोनोसाइट्स) की अहम भूमिका होती है।
पिछले कुछ वर्षो में यह देखा गया है कि पर्यावरण प्रदूषण और भोजन में कीटनाशकों, भारी धातुओं, फंगल टॉक्सिन्स आदि की मौजूदगी के कारण इन मैक्रोगफैगसकी सक्षमता में भारी कमी आयी है। इसकी वजह खेती में कृषि-रसायनों का भारी उपयोग और अनाज का संग्रह ठीक से न किये जाने को बताया गया है। मैक्रोफैगसकी कार्यप्रणाली में अक्षमता के कारण एंटीबोयाटिक दवाएं बेअसर हो रही हैं, बैक्टीरिया में प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो रहा है। इन्फैक्शन पुन: सक्रिय हो रहे हैं और किसी भी व्यक्ति की रोग-प्रतिरक्षण-क्षमता के स्तर में कमी आ रही है। हालके अनुसन्धों से पता चला है कि गो-मूत्र व्यक्ति की प्रतिरक्षण-क्षमता के स्तर को बढ़ाता है। उससे मैक्रोफैगसको सक्रिय बनाने और उनकी बैक्टीरिया निगलने और नष्ट करने की क्षमता बढ़ाने में मदद मिलती है। इस अनुसंधान से चिकित्सा विज्ञान में एक नये अध्याय का सूत्रपात हुआ और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद-सी.एस.आर्इ.आर. ने गोमूत्र के बॉयो क्षमता बढाने वाले गुणों और क्षयरोगियों उपचार में उसकी उपयोगिता के बारे में अमेरिका से पेटेण्ट हासिल किया है। क्षयरोग के उपचार की परम्परागत औषधियों के साथ-साथ अगर रोगी गोमूत्र का भी सेवन करे तो क्षयरोग-प्रतिरोधी दवा की मात्रा कम होने पर भी उसका असर बढ़ जाएगा। इससे उपचार की लागत में कमी आयेगी और रोगी को स्वस्थ होने में समय भी कम लगेगा।
हाल ही में अनुसंधानकर्ताओं ने यह पाया है कि एंटीबॉयोटिक के साथ गोमूत्र-पान करने से रोगाणुओं में प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं होती। यह माना जा रहा है कि गोमूत्र आर-फैक्टरको अवरुद्ध कर देता है। आर-फैक्टर एंटीबैक्टीरियल प्रतिरोध के विकास के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया के प्लैज्मिड जेनोम का हिस्सा है। सी.एस.आर.आर., अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, जी.बी.पंत विश्वविद्यालय, पंतनगर और भारतीय पशु-चिकित्सा अनुसंधान संस्थानसहित विभिन्न प्रयोगशालाओं और गैर-सरकारी संगठनों के कई वैज्ञानिक गौमूत्र के विभिन्न औषधीय गुणों पर अनुसंधान कर रहे हैं। वास्तव में गैर-सरकारी संगठनों के पास गोमूत्र से बनी कई औषधियों का विपणन भी कर रहे हैं और कुछ स्वैच्छिक संगठन तो इन दवाओं की मांग पूरी भी नहीं कर पा रहे हैं। यह देखा गया है कि गोमूत्र शरीर की रोग-प्रतिक्षण-क्षमता और संक्रमणों से लड़ने की प्रतिरोध क्षमता को बढ़ा देता है। गोमूत्र में एंटीऑक्सिडेण्ट गुण होते हैं और यह फ्री रेडिकल्सपर अनुक्रिया के जरिये शरीर में उत्पन्न ऑक्सिडेटिव स्ट्रेस को सामान्य बनाता है। यह भी सिद्ध हुआ है कि गोमूत्र से क्षतिग्रस्त डी.एन.ए. की मरम्मत होती है और इस तरह यह कैंसर के उपचार में कारगर है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि कीटनाशक बहुत कम मात्रा में लेने पर डी.एन.ए. के विखण्डन के जरिये रक्त और टिश्युओं के लिम्फोसाइट्स में अपोपटोसिस (सेल नष्ट होना) को अंजाम देते हैं और गोमूत्र लिम्फोसार्इट्स को आत्महत्या से रोकने और अपना अस्तित्व बनाये रखने में सहायता करता है। इसके अलावा गोमूत्र पोल्ट्री में पक्षियों की रोग-प्रतिरक्षण क्षमता बढ़ाता है और उन्हें बेहतर संरक्षण प्रदान करता है।
देश में कई गैर-सरकारी संगठन इस व्यापार में लगे हुए हैं। वे गोमुत्र का अर्क तैयार करते हैं, यानी 50-60 प्रतिशत गोमूत्र आसवन करते हैं। आधुनिक उपकरणों की सहायता से की गयी कैमिकल फिंगरप्रिटिंग से पता चलता है कि भारतीय गायों का मूत्र अधिक असरदार है और संकर गायों, विदेशी गायों, भैंसों आदि के मूत्र में ओषधिय गुण लगभग शून्य या अत्यन्त अल्प ही पाये जाते हैं। भारतीय गायों के मूत्र में रसायन-तत्व मौजूद हैं जो प्रतिरक्षण-प्रणाली को मॉडयूलेट करने और बायो तत्व बढ़ाने में मददगार हैं। केवल गोमूत्र ही आश्चर्यजनक उत्पाद नहीं है, बल्कि गायके दूध, घी, दही और अन्य उत्पाद भी विभिन्न बीमारियों के उपचार और अन्य कायोर में समान रूप से असरदार हैं। गोमूत्र और उसमें नीम की पतियां मिलाकर अद्भुत जैव कीटनाशक तैयार किया जा सकता है। ऐसे जैव कीटनाशक इस्तेमाल की दृष्टि से सुरक्षित हैं, जो भोजन-श्रंखला में एकत्र नहीं होते और वास्तव में रासायनिक कीटनाशकों की भांति नुकसानदायक भी नहीं होते । गायका गोबर बेहतरीन खाद का काम करता है और अगर उसे प्रोसेस करके वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया जाए तो एक बड़े खेत के लिए वर्मी कम्पोस्ट की थोड़ी सी मात्रा पर्याप्त रहती है। इसी प्रकार गाय के दूध, घी और दही से अनेक दवाईया तैयार की जाती हैं, किन्तु समस्या है इन उत्पादों की वैज्ञानिक वैघता सिद्ध करने की ।
इस्तेमाल करके फायदा उठाने वालों के दावे अनेक हैं, किन्तु उन दावों की वैज्ञानिक वैधता अपेक्षित हैं। एलोपैथी दवाओं के बोझ से तंग आये लोग गो-चिकित्सा पद्धति की औषधियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह वैज्ञानिक वैधता के बिना ही लोग इन उत्पादों का इस्तेमाल करके उनसे लाभ उठा रहे हैं।
No comments:
Post a Comment