Friday, July 27, 2012

प्राणायाम का मनोचिकित्सीय पक्ष

प्राणायाम शब्द के सामने आते ही हमारे मन में एक ऐसे विशिष्ट यौगिक अभ्यास की छवि उभरती है जिसमें श्वास-प्रश्वास की क्रियाओं का मुख्यत: उपयोग होता है मूलरूप से प्राणायाम हठयोग की एक मुख्य पद्धति है जिसके द्वारा अभ्यासी सिर्फ शारीरिक तंत्रों की क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करता है, वरन शरीर की उन सुक्ष्म क्रियाओं पर भी नियन्त्रण स्थापित करता है जिस पर स्थूल क्रियाएं निर्भर रहती हैं।
शाब्दिक अर्थ में प्राणायाम का अर्थ होता है प्राण का विस्तार परन्तु यह विस्तार प्राण के आयाम का है जिसके माध्यम से अभ्यासी की चेतना सूक्ष्म जगत में प्रवेश करती है प्राणायाम के प्रभाव को ठीक ढंग से समझने के लिए आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम प्राण शब्द के अर्थ को जान लें योग में प्राण का अर्थ उस मूल एवं सूक्ष्म ऊर्जा से है जिसके माध्यम से इस शरीर, मन एवं बाह्य जगत की सारी क्रियाएं सम्पादित होती हैं यह ऊर्जा मनुष्य एवं समस्त चर एवं अचर जीवों में विद्यामान होती है। इस ऊर्जा की अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। बृहत् स्तर पर यदि इस सिद्धांत पर विचार करें तो हम पाते हैं कि प्राण ऊर्जा ही प्रकृति की सभी क्रियाओं में परिलक्षित (दिखाई देती) होती है
प्र्राणायाम एक ऐसा अभ्यास है जिसके द्वारा अभ्यासी इस प्राण ऊर्जा के विभिन्न आयामों (स्थूल से सूक्ष्मतम) के सम्पर्क में आता है एवं इस मूल ऊर्जा के नियन्त्रण एवं निग्रह द्वारा शरीर एवं मन की क्रियाओं पर नियन्त्रण स्थापित करता है इस सम्पूर्ण पद्धति में श्वास-प्रश्वास की विभिन्न विधियों का प्रयोग होता है।
मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्राणायाम के कई चिकित्सीय लाभ प्राप्त होते हैं इसका पहला कारण है श्वास-प्रश्वास की क्रिया पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण श्वास-प्रश्वास की विभिन्न विधियों का उपयोग आज शारीरिक-मनोवैज्ञानिक मानसिक रोगियों के उपचार में करते हैं शारीरिक मनोविज्ञान की शाखाएं जैसे, बायोएनर्जेटिक, एक्वा थेरेपी, प्राथमिक चिकित्सा आदि में श्वास-प्रश्वास की सही विधि का चुनाव कर रोगियों का ईलाज किया जाता है यह पाया गया है कि श्वास-प्रश्वास का हमारी मानसिक एवं भावनात्मक स्थितियों से सीधा संबंध रहता है हमारी मानसिक एवं भावनात्मक अवस्था में यदि परिवर्तन होता है तो यह हमारे सामान्य श्वास के स्वभाव में परिवर्तन लाता है उदाहरण के रूप में, उस स्थिति की कल्पना करें जब आप क्रोध की अवस्था में हों, तब आपके श्वास-प्रश्वास की अवस्था कैसी रहती है आप पाएंगे कि यह उखड़ी, असामान्य एवं लय विहीन होती है परन्तु इसके ठीक विपरीत शांत एवं स्थिर अवस्था में श्वास-प्रश्वास का स्वाभाव लयात्मक, गहरा एवं शान्त होता है इस तथ्य के आधार पर शारीरिक मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मानसिक एवं भावानात्मक अवस्थाएँ श्वास-प्रश्वास के स्वभाव में परिलक्षित होती हैं। यह एक और विचारणीय तथ्य है कि श्वास-प्रश्वास एक ऐसी प्रक्रिया है जो चेतन एवं अचेतन स्तर पर संचालित है और यदि हम चाहें तो इसे चेतन मन के द्वारा नियन्त्रित रख सकते हैं और इस क्रिया का संबंध शरीर की स्वाचालित प्रक्रियाओं जैसे, हृदय-स्पन्दन आदि से रहता है इस अनुभव के आधार पर ही योगियों ने प्राणायाम की विधि का विकास किया, जिसके माध्यम से उन्होंने शरीर की स्वचालित क्रियाओं एवं मन की अवस्थाओं पर नियन्त्रण कायम किया
अब इस तथ्य पर पुनर्विचार करते हैं कि श्वास-प्रश्वास की अवस्था मानसिक एवं भावनात्मक अवस्था से संबंधित है श्वास-प्रश्वास की अवस्था यदि मानसिक एवं भावनात्मक स्थितियों से प्रभावित हो सकती है तो यह भी संभव है कि श्वास-प्रश्वास के स्वभाव में चेतन स्तर पर परिवर्तन लाकर हम अचेतन क्रियाओं पर भी नियन्त्रण रख सकते हैं हम अपने मानसिक एवं भावनात्मक उन्माद की अवस्था में नियन्त्रण स्थापित कर सकते हैं।
शारीरिक मनोवैज्ञानिकों का आकलन
1. शारीरिक मनोवैज्ञानिकों ने यह पाया है कि तनाव, चिन्ता अन्य मनोस्नायविक रोगों से ग्रस्त रोगियों में श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया बाधित, लय-विहीन एवं अनियन्त्रित होती है एवं अधिकतर तनाव ग्रस्त व्यक्तियों में वक्ष श्वसन की क्रिया सम्पादित होती है जो शरीर मन में अतिरिक्त तनाव संचित करती है।
2. अधिकतर स्नायविक रोगियों में मॉंसपेशीय तनाव उदर एवं वक्ष प्रवेश में संचित रहता है जिसके कारण शारीरिक क्रियाओं जैसे पाचन के सफल क्रियान्वयन में बाधा पहुंचती है
अब दूसरे तथ्य पर विचार करें शरीर मन के पारस्परिक सम्बन्धों पर अध्ययन करने वाले मनोवैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष है कि भावनात्मक तनाव हम अपने शरीर में भी संचित करते हैं, क्योंकि शरीर एवं मन के बीच गहरा संबंध है-एक के प्रभावित होने पर दूसरा भी प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए आप विचार करें कि जब आप अत्यंत तनाव की स्थिति में रहते हैं तब आपकी मांसपेशियों की स्थिति कैसी होती है? आपने अनुभव किया होगा कि अत्यंत चिंता, परेशानी या तनाव की अवस्था में सम्पूर्ण शरीर तनाव ग्रस्त रहता है, जिसे आप अपने चेहरे एवं उदर प्रदेश की मांसपेशियों में सहजता से अनुभव कर सकते हैं
अब उस व्यक्ति की अवस्था के बारे में विचार करें जो प्रतिदिन अपना जीवन तनाव में काटता है ऐसे व्यक्तियों की आन्तरिक स्वचालित क्रियाएं तो प्रभावित होती ही हैं, साथ ही साथ हमेशा तनाव में रहने के कारण मॉंसपेशियां अवस्था बदल जाती हैं और उदर प्रदेश में अत्यन्त तनाव के संचित रहने के कारण मॉंसपेशियां कड़ी हो जाती हैं, जिसे मांसपेशीय गॉंठ कहते हैं मांसपेशियों का लचीलापन समाप्त होने के कारण उनकी श्वास प्रक्रिया भी निरन्तर प्रभावित होती रहती है श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया छिछली एवं तनावपूर्ण रहती है उदर की मांसपेशियों में संचित तनाव मध्यपट की स्वतन्त्र गति में बाधा पहुंचाता है, जिसके कारण व्यक्ति लंबे, गहरे, विश्रांत श्वास-प्रश्वास से वंचित रहता है एवं आन्तरिक मानसिक विश्रांति को अनुभव नहीं कर पाता है। हमारा सम्पूर्ण शरीर एक पुस्तक के समान है जिसमें हमारे जीवन के अनुभवों का संचय रहता है और यह प्रतिक्षण हमारी मानसिक एवं भावनात्मक स्थितियों से प्रभावित होता है
मानसिक रोगियों से संबंध में प्राणायाम का महत्त्व इसलिए भी बढ जाता है कि यह सिर्फ भावनात्मक में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है, बल्कि श्वास-प्रश्वास से स्वचालित तंत्रिका तंत्र से सीधे संबंध के कारण यह अत्यंव प्रभावशाली बन जाता है स्वचालित तंत्रिका तंत्र आन्तरिक शारीरिक क्रियाओं के संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तनाव की स्थिति में आन्तरिक शारीरिक क्रियाओं में सामंजस्य का लोप हो जाता है श्वास-प्रश्वास की सन्तुलित विधियों द्वारा इन क्रियाओं में पुन: सन्तुलन एवं सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है
अभी तक की चर्चा मनोवैज्ञानिक आधार पर हुई, परन्तु प्राणायाम का एक और आयाम भी है जो ऊर्जा का आयाम है प्राणायाम की क्रियाएं सिर्फ शारीरिक वरन् प्राणिक स्तर पर सूक्ष्म शरीर का शुद्धिकरण करती है एवं वहां संतुलन स्थापित करती है योग के अनुसार प्राण ऊर्जा शरीर में सुनिश्चित मार्गो से होकर प्रवाहित होती है जिन्हें नाड़ियां कहते हैं इनकी संख्या शरीर में लगभग बहत्तर हजार बताई जाती है इन नाड़ियों के माध्यम से ही ऊर्जा शरीर के प्रमुख अंगों तक पहुंचती है जिसके कारण जैविक क्रियाएं सम्पादित होती हैं यदि किसी कारणवश इन नाड़ियों के मार्ग में रूकावट आती है तो ऊर्जा के मार्ग में अवरोध उत्पन्न होता है जिसके परिणामस्वरूप जितनी मात्रा में ऊर्जा शरीर के एक अंग विशेष या क्षेत्र में पहुंचनी चाहिए, वह उपलब्ध नहीं हो पाती और अंतत: उसका परिणाम होता है शरीर की सामंजस्य की अवस्था में विक्षेप
नाड़ियों की शुद्धि का महत्त्व हठयोग में विस्तार से बताया गया है। उसके पीछे कारण यह है कि प्राण ऊर्जा ही हमारी समस्त शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक अभिव्यक्तियों का कारण है अत: इस जैविक ऊर्जा के प्रवाह के अवरोध से हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रभावित होता है शरीर में प्राण ऊर्जा का विस्तार एवं संकुचन हमारी मानसिक एवं भावनात्मक स्थितियों पर निर्भर रहता है इनके अलावा और भी कई कारण है जिनसे ऊर्जा प्रवाह प्रभावित होता है, परन्तु यहां हम मुख्य रूप से मानसिक एवं भावनात्मक तनाव के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे
जब हम भावनात्मक रूप से तनाव की स्थिति में होते हैं तब उस स्थिति में शरीर के तनाव के साथ ऊर्जा भी संकुचित या अनियन्त्रित रहती है जिसे हम शारीरिक स्तर पर अत्यधिक उत्तेजना या भाव शून्य की अवस्था के रूप में अनुभव कर सकते हैं इस स्थिति में प्राण का संचार शरीर में संतुलित अवस्था में होकर असंतुलित एवं अनियन्त्रित रहता है। कुछ मनोस्नायविक रोगों जैसे विषाद में रोगी के उदर प्रदेश में अत्यधिक मात्रा में तनाव संचित रखता है, जो सिर्फ श्वास-प्रश्वास की सामान्य गति को प्रभावित करता है बल्कि ऊर्जा की मात्रा भी इस तनाव संचय में प्रभावित होती है एवं इसके स्वतंत्र प्रवाह में शारीरिक तनाव अवरोध उत्पन्न करता है विषाद के रोगियों में श्वास-प्रश्वास प्राय: अनियन्त्रित एवं छिछला तथा ऊर्जा स्तर निम्न होता है
बायोएनर्जेटिक मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों में यह पाया है कि गहरे लम्बे श्वास-प्रश्वास की क्रियाओं के माध्यम से इन रोगियों की अवस्था में प्रभावशाली परिवर्तन लाया जा सकता है, क्योंकि जैसा पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि श्वास-प्रश्वास की क्रिया हमारी भावनाओं एवं मानसिक स्थितियों से संबंधित है, जिसके कारण ये एक-दूसरे से निरन्तर प्रभावित होती है जब हम अपनी भावना, संवेग या विचार आदि को दमित करते हैं तो श्वास-प्रश्वास के स्वतंत्र एवं स्वाभाविक प्रवाह की क्रियाओं का भी दमन होता है अत: यदि श्वास-प्रश्वास को अपनी स्वाभाविक स्थिति में ले आया जाए तो संवेगात्मक स्थिति को काफी हद तक नियन्त्रित किया जा सकता है। यही कारण है कि जब इन रोगियों को गहरी एवं लम्बी श्वसन क्रियाएं करवाई जाती हैं तो दमित संवेग भावनाएं एवं विचार भी मुक्त होते हैं, जिसके कारण दमित ऊर्जा स्वतन्त्र रूप से पुन: शरीर में प्रवाहित होना प्रारम्भ करती है इसके परिणामस्वरूप तनाव के कारण जो ऊर्जा पहले व्यर्थ नष्ट हो रही थी अब वह शरीर की अन्य निर्माणकारी क्रियाओं के लिए उपलब्ध हो पाती है।
प्राणयाम की विधियां शरीर एवं मन को प्रभावशाली ढंग से विश्रान्ति एवं सामंजस्य की स्थिति में लाती हैं भावनात्मक एवं संवेगात्मक स्तरों पर संतुलन एवं नियंत्रण स्थापित करती हैं प्राणायाम की विभिन्न विधियों की चर्चा हठयोग के ग्रन्थों में होती है जिनका प्रभाव अलग-अलग ढंग से शारीरिक, मानसिक एवं प्राण ऊर्जा की क्रियाओं पर पड़ता है परन्तु सभी विधियों में एक सामान्य बात यह है कि सभी क्रियाओं में श्वास-प्रश्वास पर सजगता, संतुलन, लयबद्धता एवं नियन्त्रण की बात होती है, जिसके माध्यम से व्यक्ति शरीर, मन एवं ऊर्जा की गतिविधियों पर नियन्त्रण रख पाता है अत: हठयोग में जब मन निग्रह की चर्चा होती है, उसमें प्राण निग्रह की बात पर विशेष जोर दिया जाता है क्योंकि मन:स्थिति प्राण ऊर्जा का संचार एवं श्वास-प्रश्वास एक-दूसरे पर आश्रित हैं इनमें से किसी भी एक अवस्था में परिवर्तन होने से अन्य स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती हैं
     मन की अलग-अलग अवस्थाओं, उत्तेजना में श्वास-प्रश्वास की अवस्था में भी परिवर्तन होता है उदाहरणस्वरूप, उत्तेजना की अवस्था में श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया द्रुत गति से प्रभावित होती है एवं उखड़ी होती है, विषाद में छिछली, भय की स्थिति में रूकी हुई या अत्यन्त ही अनियन्त्रित एवं ध्यान या विश्रान्त अवस्था में बिल्कुल शांत एवं लयबद्ध इस प्रकार मन के अनुकूलन द्वारा तथा श्वास-प्रश्वास के माध्यम से मन की अवस्था में परिवर्तन संभव है और मन के नियंत्रण के साथ अपने संवेगात्मक एवं भावनात्मक व्यवहार में भी संतुलन कायम रख सकते हैं

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