Saturday, July 21, 2012

पात्रता और समर्पण



 "मेरा जीवन"
हे मेरे इष्ट आराध्य मेरे सर्वश्व मेरे गुरुदेव मेरा जीवन आपकी धरोहर है प्रभु! इसे आप जैसा रखना चाहते है वैसे रखिए जैसे चलाना चाहते हो वैसे चलाइए! हे प्रभु मैंने आपका वरण किया है! अब निज की इछाओं से क्या लेना देना अब मान अपमान का क्या अर्थ यह सब आपको अर्पित समर्पित! हे प्रभु मेरे अहं को समाप्त कर दीजिए! यह कठिन कार्य आपके आशीर्वाद से ही सम्भव हो सकता है
मैं समाप्त होता हूँ आप जीवन होइए!" यही मेरी आत्मा की पुकार है हे प्रभु इस पुकार को सार्थक कर दीजिए! मुझे धन्य कर दीजिए कृतार्थ कर दीजिए


सेवा                     सुमिरन                   समर्पण
 वास्तव में समर्पण एक भावनात्मक प्रक्रिया है जो कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए सर्वोपरि आवश्यक है। हमें सम्पण के साथ सेवा और सुमिरन करना है जिससे अहं का उदय हो सकें प्रत्येक भावपक्ष का एक क्रिया पक्ष भी होता है। हमें तीनों को साथ लेकर चलना है - भावपक्ष, विचार पक्ष, क्रिया पक्ष तभी हम अपनी चेतना के उध्र्वमुखी अंर्तमुखी कर उसे ईश्वरीय चेतना के साथ जोड़ सकते है जिसे योग कहा जाता है। इसके लिए हमें निम्न बिन्दुओं पर विचार करना होगा।
दुख व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिक उन्नति की इच्छा लेकर आता है। सर्वप्रथम हमारे भीतर आध्यात्मिक उन्नति की चाह उत्पन्न हो। जैसे हम अपने कैरियर के प्रति गम्भीर रहते है वसे ही आध्यात्मिक उन्नति के प्रति अपना बनाए।
यह सोचे कि धर्म कर्म मात्र वृद्धों के लिए है इसे Philosophy  के साथ स्वयं जुडे इससे जुड़ने के लिए पहले इसे समझना होना इस पर मनन चिन्तन करना होगा फिर इसे आत्मसात करना होगा। इसके लिए निम्न उपाय अच्छे रहते हैं-
    प्रतिदिन थोडा समय परमात्मा के पास बैठे उनसे भाव सम्बन्ध स्थापित ‘‘हे प्रभु मैं आपका बच्चा हूं आपकी शरण में आना चाहता हूं आप मुझे संरक्षण मार्गदर्शन करें जिससे मैं अपना जीवन आपके निर्देशों के अनुसार चला सकूं, हे प्रभु मुझे यह दिखाइए, मुझे आपका आसरा चाहिए, मुझे आपका सहारा चाहिए। हे मेरे मालिक आप हम पर इतनी कृपा करना कि -
1.   हम आपसे भाव सम्बन्ध जोडने लायक बन सकें
2.   हम आपके निर्देशों को सुनने लायक बन सकें
3.   हम आपकी प्रेरणाओं को ग्रहण करने लायक बन सके।
4.   हम आप पर श्रद्धा और विश्वास करने लायक बन सकें।
5.   हम आपके अनुसार अपना जीवन यापन करने लायक बन सके।
6.   हम आपके भक्ति और समर्पण करने लायक बन सकें।
7.   हम आपकी सेवा करने लायक बन सकें
8.   हम आपके वरेण्य स्वरूप को अपने अन्त: करण में धारण करने लायक बन सकें
9.   हम आपकी रक्षा में अपना रजा मानने लायक बन सकें
10.   हम अपनी मैं अपनी आरजू मिटाने लायक बन सकें
11.   हे प्रभु हम तुझ पर भरोसा करना सीख सकें
12.   हे प्रभु हम आप पर कुर्बान होना सीख सकें
     मैं समाप्त होता हूं, आप जीवित होते हैं।
     ‘‘हे मालिक बस तू ही तू रहें और तेरी रजा रहें
     बाकी मैं रहूं, मेरी आरजू रहें ।।
     हे परमात्मा तेरी इच्छा  पूर्ण हो
प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा की कृपा करने के लिए उपरोक्त आधार बना कर चलना होता है। इसे पात्रता कहा जाता है सुपात्र की ही आध्यात्मिक उन्नति होती है इसलिए हमें अपने भीतर पात्रता का विकास करना होता है।
1.    वीरवार या रविवार को अस्वाद व्रत रखे। नमक या चीनी एक चीज छोड़े एक भोजन आस्वाद उबला भोजन करें दो समय दूध फल लें ऐसे 40 व्रत रखें ऐसा अमावस्या या पूर्णिमा को भी कर सकते हैं व्रत वाले दिन 3 माता गायत्री मंत्र का जप अपश्य करें
2.   व्रत वाले दिन अपनी कमाई का एक प्रतिशत निकाले। वह परमात्मा के निमित्त मानव कल्याण के लिए प्रयुक्त करें। दान का सदुपयोग हो, वह सुपात्र तक पहुंचे, वह गुप्त रहें।
3.   प्रतिदिन अथवा दूसरे तीसरे दिन अथवा समय निकालकर अच्छी प्रेरणाप्रद आध्यात्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय मनन चिन्तन करें
4.   समय-समय पर अच्छे यज्ञों-सत्संगों ध्यान साधक तीर्थ आदि में सम्मिलित हों
5.   प्रतिदिन कुछ समय गायत्री मन्त्र का जप आज्ञा चक्र पर ध्यान करें
6.   स्वास्थ्य रक्षा के निमित योगासन-व्यायाम प्राणायाम आदि का क्रम अपनाए रहें
7.   सबको प्रतिदिन पूजा कक्ष में प्रणाम करने अवश्य जाना चाहिए जहां देवशक्तियों का वास रहता है।
8.   दिनचर्या नियमित करने का प्रयास करें आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रात:काल सूर्योदय के पूर्व उठने का अभ्यास करें।
9.   जीवन का सदुपयोग परमात्मा की प्रेरणा से किसी उंचे और अच्छे कार्य के लिए करेंगे
10.   ऋषियों ने जीवेम शरद: शतम् कहकर व्यक्ति की आयु 100 वर्ष निर्धारित परन्तु आज व्यक्ति की आयु मात्र 80 वर्ष हैं उसी आश्रम छोटे हो गए है
     ब्रह्मचर्य - 20 वर्ष
     गृहस्थ - 40 वर्ष
     वानप्रस्त - 40-60 वर्ष
     सन्यास - 60-80 वर्ष
     40 वर्ष के पश्चात मनुष्य को विविध प्रकार के भोग वासनाओं से उपर उठने का प्रयास करना चाहिए। यदि उसने 40 वर्ष उपरान्त स्वास्थ्य की अथवा आध्यात्मिक उन्नति पर ध्यान नही दिया तो व्यक्ति के अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है।
11.   अपनी प्रतिभा का उपयोग मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए करने का मन बनाएं क्योंकि राष्ट्र को आज मानवीय मूल्यों की सर्वोपरि आवश्यकता है। जब हम ऐसा करने की चाह बनाकर रखेंगे तो परमात्मा कोई कोई दिशा अवश्य देगा कोई कोई राह अवश्य दिखाएंगा।
12.   अब तक जो सफलताएं परमात्मा ने हमें दी है जो सुख सुविधाएं प्रदान की है उन सबके लिए भगवान का धन्यवाद करें उसके असहमतों को सदा याद रखें।
13.   धर्म और अध्यात्म के द्वारा दुनिया की प्रत्येक समस्या का समाधान सम्भव है। इस गूढ विधा पर शोध को आवश्यकता है। इसको खोजना आज के समय में बहुत आसान है। योगानन्द परमहंस, श्री अरविन्द, श्रीराम आचार्य, रामकृष्ण परमध्य जैसे realized souls के literature के द्वारा इस विधा को जानना जन-जन तक पहुंचाना है। इसको खोजने, जानने, अपनाने के लिए सदा प्रयासरत रहें परमात्मा की कृपा से सफलता अवश्य मिलेगी।


नवीन व्यक्तित्व

अपनी वार्ताओं में श्रीमाता जी हमसे जो मांग करती हैं, आज संसार को जिस चीज की आवश्यकता है, वह है एक नया व्यक्ति, एक नये प्रकार का व्यक्तित्व, जो नई चेतना के प्रति उद्घाटित हो, नयी चेतना की  द्रिष्ट से देखे, उसी के द्वारा सोचे विचारे और जगत में व्यवहार करे। वस्तुओं और घटनाओं के आंशिक सत्य से, उनके सही रूप से, बाह्य विवरण से संतुष्ट   हो। नये क्षितिजों की खोज में, नये अभियानों में जिसका स्वाभाविक चाव हो। जिसकी प्रकृति में अहंकार, उसकी ग्रंथियां, हठ और पेंच हों जैसा अंदर वैसा बाहर, मानों एक सरल-सीधा शिशु हो। ऐसे व्यक्ति को यह नर्इ चेतना चुनती और अपना यंत्र बनाती हैं। यह नर्इ चेतना अतिमानसिक चेतना है। श्रीअरविंद तथा श्रीमाताजी की संयुक्त तपस्या से इसका अवतरण पृथ्वी पर संभव हुआ है और मनुष्य तथा उसके जीवन को रूपांतरित करने में संलग्न है।
इस नई चेतना में जगत माया नहीं, आत्मा की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। जीवन का अभिप्राय भोग नही, आत्म-विकास है। उसका लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति नहीं, अंतस्थ आत्मा की प्राप्ति हैं। जीवन पथ के कष्टों को देखकर घबराना अथवा उसे त्यागना नहीं, वरन् त्याग की भावना के स्थान पर उसे परिवर्तित करने का भाव, ऊचे स्तर पर उठाने का संकल्प, अपने अंदर जगाना है। सांसारिक जीवन की क्षणभंगुरता, उसके नियमों की कठोरता देखकर पलायन अथवा संन्यास का भाव अपनाना नहीं, कारण, अगर हम जीवन क्षेत्र को इस प्रकार छोड़ देते हैं, तो इसका अर्थ होता है, अज्ञान और अंधकार की शक्तियों के लिए उनके शासन के लिए, उन्हें सुविधा प्रदान करना, उन्हें क्षेत्र सौंप देना, जहां वे स्वतंत्रतापूर्वक अपनी मनमानी कर सकें और पार्थिव वातावरण को बीभत्स बनाने में सफल हो सकें। इसके विपरित इसे दिव्य बनाने का प्रयास करना है। इसमें उच्च चेतनाओं का अवतरण संभव बनाना है इसके लिए यदि आवश्यक हो तो हमें सब प्रकार का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना है। यह ीवह है जिसकी मांग नई चेतना हमसे कर रही है। श्रीमाता जी के शब्दों का यही भाव है।

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