अदालत
में
उन
पर
मुकदमा
चला
।
उन
पर
तीन
आरोप
लगाये
गये
-
1- सुकरात
ने
राष्ट्रीय
देवताओं
की
अवहेलना
की
है
।
2- उन्होंने
राष्ट्रीय
देवताओं
के
स्थान
पर
कल्पित
जीवन
देवता
को
स्थापित
किया
है
।
3- उन्होंने
एयेन्स
के
युवकों
को
पथ
भ्रष्ट
किया
है
।
उनसे
कहा
गया
कि
यदि
वे
अपनी
गलती
के
लिए
मॉफी
माँगे
और
भविष्य
में
ऐसी
गल्ती
न
करें
तो
उन्हें
माफ
किया
जा
सकता
है
परन्तु
उन्होंने
ऐसा
नहीं
किया
।
परिणाम
में
उन्हें
मृत्यु
दण्ड
दिया
गया।
अपराध
और
दण्ड
दोनों
पर
सुकरात
हँस
पड़े
।
फिर
उन्होंने
बड़ी
शांति
से
कहा
- ‘ऐ निर्णय करने
वालो! जब तुम्हें
मृत्यु
लेने
आए, तब तु
भी
उसे
उसी
साहस
के
साथ
स्वीकार
करना
जैसे
कि
आज
मैं
कर
रहा
हूँ
और
यह
हमेशा
याद
रखना
कि
एक
सच्चे
इन्सान
पर
न
जीवन
में, न मृत्यु
के
बदा
ही
कभी कोई आपत्ति
आती
है
।
परमेश्वर
उसके
भाग्य
की
ओरसे
कभी
उदासीन
नहीं
होते
।
जिस दिन उन्हें विष दिया जाना था, प्रात: ही उनके शिष्य उनसे मिलने पहुँचे । वे बड़ी निश्चिंतता से गाढी नींद ले रहे थे । नियत समय पर कर्मचारी विष का प्याला लाया । उसे देखकर वे हिरत और उत्साहित हो उठे, बोले - लाओ-लाओ! फिर उन्होंने शिष्यों से कहा - तुम लोग मेरे पास बैठो । हमेशा मैंने तुम्हें अपने जीवन के अनुभव सुनाएँ है आज मृत्यु का अनुभव सुनाऊँगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने विष का प्याला पी लिया और शरीर में धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तनों को एवं अपनी मानसिक स्थिति में धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तनों को एवं अपनी मानसिक स्थिति को बताने लगे कि अब उनका शरीर शनै:-शनै: प्राणहीन एवं निश्चेष्ट होता जा रहा है, परन्तु मन में आनन्द का दैवी प्रकाश फैलता जा रहा है । अन्त में उन्होंने कहा - ‘अहा! मैं स्वगीय प्रकाश में प्रकाश रूप में अवस्थित हो रहा हूँ । शरीर की मृत्यु और इसके लिए दिया गया विष मुझे तनिक भी आघात नहीं पहुँचा सका । फिर उन्होंने प्लेटो की ओर देखते हुए कहा - मेरे इस अन्तिम प्रयोग के निषकर्ष के बारे में सभी को यह बताना कि जीवन देवता की अपने सद्गुणों से,अपने ज्ञान से पूजा-अर्चना करने वाले लोग न केवल अपने जीवन में शोक-संताप मुक्त रहते हैं, बल्कि मृत्यु के बाद, उससे भी कहीं उन्नत अवस्था में स्वर्गीय प्रकाश राज्य में आनन्दमय होकर रहते हैं । इसी के साथ उन्होंने आँखें मूंद ली ।
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