समुद्र
मंथन
के
समान
ही
कुण्डलिनी
मंथन
होता
है
।
कुण्डलिनी
जागरण
के
साथ
प्रारम्भ
होता
है
सम्पूर्ण
व्यक्तित्व
का
मंथन, आमूलचूल परिवर्तन
।
व्यक्ति
कामना, तृष्णा,
वासना, अहंन्ना,
ममता
में
उलझा, बन्धनों में
बंधा
जीवन
व्यतीत
करता
है
।
महाशक्ति
कुण्डलिनी
को
यह
मंजूर
नहीं
है
कि
परमात्मा
का
सुपुत्र भ्वब्न्ध्नो में
बंधा
दुर्गति
सहता
रहें
।
वह
शक्ति
जोर
लगाती
है
उसको
उन
बन्धनों
से
पार
जाने
के
लिए
।
दूसरी
ओर
व्यक्ति
जन्म
जन्मातरों
के
कुसंस्कारों
में
बुरी
तरह
उलझा
होता
है
।
रस्साकस्सी
प्रारम्भ
हो
जाती
है
व्यक्ति
के
जीवन
में
।
एक
ओर
परमात्मा
की
देवीय
शक्ति
दूसरी
ओर
कुसंस्कार
व
उनके
संरक्षक
सूक्ष्म
जगत
में
विराजमान
आसुरी
तत्व
।
व्यक्ति
यदि
कुसंस्कारों
से
मुक्त
होने
लगे
तो
असुरों
का
सिंहासन
डोलने
लगता
है
अत: वो व्यक्ति
को
भ्रमित
करते
हैं
।
1- समुद्र
मथन
के
उत्पन्न
विषय
स्वयं
ग्रहण
करते
हैं
साधन
के
विषय
के
प्रभाव
से
बचाते
हैं
।
अमृत
देवताओं
में
बाँटते
हैं
कुण्डलिनी
रात्रि
द्वारा
उत्पन्न
ऊर्जा
का
सदुपयोग
दैविक
प्रयोजनों
में
होना
आवश्यक
है
।
यह
खतरा
लगातार
बना
रहता
है
कि
अमृत
असुरों
के
हाथ
न
लग
जाए
अर्थात्
कुण्डलिनी
शक्ति
की
विद्युत
द्वारा
कुसंस्कार
ने
बढ़ने
लगे
।
यदि
ऐसा
हुआ
तो
अनर्थ
हो
सकता
है
।
योगी
पथ
भ्रष्ट
हो
जाता
है
व
आसुरी
प्रभाव
उस
पर
अधिकार
जमाने
लगता
है।
2- व्यक्ति
अपने
आपको
शुद्ध, सरल,
सात्विक, सत्यप्रिय,
पवित्र, दिव्य इश्वर के
लिए
समर्पित
बनाने
का
प्रयास
करें
जितने
अधिक
उसमें
दिव्य
गुण
होंगे, उतनी अधिक
सरलता
से
कुण्डलिनी
महाशक्ति
का
आरोहण
व्यक्ति
के
भीतर
हो
सकेगा
।
अत: लम्बे समय
तक
धैर्य
पूर्वक
व्यक्ति
को
मानवीय
सद्गुणों
के
विकास
की
ओर
जाग्रत
रहना
चाहिए
।
कुण्डलिनी
साधना
में
व्यक्ति
मनोविकारों
से
जितना
रहित
होगा, उसकी उन्नति
उतनी
शीघ्र
होगी
व
साधना
कम
कष्टकारी
होगी
।
यदि कोई एक
मनोविकास
कुण्डलिनी
शक्ति
की
ऊर्जा
को
पीकर
पुष्ट
होने
लगे
तो
वह
बड़ी
समस्या
उत्पन्न
कर
देता
है
।
अनेक
प्रकार
के
झूठे
प्रलोभन, भय,
भ्रम
उत्पन्न
होने
लगते
हैं
। कई बार
तो
व्यक्ति
यह
जानते
हुए
भी
कि
वह
इन
सब
परिस्थितियों
में
उलझ
गया
है
बाहर
निकलने
में
स्वयं
को
असमर्थ
पाता
है
।
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