Wednesday, July 18, 2012

जय भारत! जय बुद्ध!


छा जाता जग में अधियारा
तब पाने प्रकशन की धारा बुद्धा
आते तेरे द्वार, आते तेरे द्वार
जब-जब हम धरती पर अन्धकार के बादल मंडराने लगते हैं
चारों ओर पाप, पीड़ा, पतन, अव्यवस्था का ताण्डव होने लगता है
मनुष्य अपने ही बनाए मकड़जालों में उलझकर प्राणहीन हो जाता है
धर्म के नाम पर तरह-तरह के अन्धविश्वास, मूढ़ऋ मान्यताँए पनप जाती है
मानवीय मूल्यों का धरती से लोप होने लगता है, चारों ओर त्राहि-त्राहि मचने लगती है
तब-तब इस धरती पर कोई  कोई बुद्ध उठ खड़ा होता है इस दुर्दशा से सम्पूर्ण मानव जाति को परित्राण करने के लिए गौतम बुद्ध का अवतरण इस राष्ट्र की धरती पर ऐसे ही विषम समय में हुआ चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था धर्म के नाम पर बलिप्रथा, जातिवाद, कर्मकाण्ड इत्यादि बढ़ गया था
बालक सिद्धार्थ बचपन से ही विवेक और करूणा के भण्डार थे एक तरफ उनके सामने का राजसी वैभव तो दूसरी ओर सत्य की खोज के लिए उनकी अन्तरात्मा झकझोरती थी अन्त में विवेक जाग्रत हुआ अन्तरात्मा की विजय हुई अपना सम्पूर्ण राजसी वैभव के व्यागने का संकल्प उनके अन्तर में दृढ़ होता चला गया उनकी अन्तरात्मा की पुकार तीव्र से तीव्रतर होती चली गई और एक दिन ऐसा आया जब वो अपने सम्पूर्ण राजसी वैभव को लात मार कर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े उन्हें बहुत समझाया गया, मनाया गया, लुभाया गया परन्तु उनके अन्दर तो बस यही प्रश्न कोहराम मचाए हुए थे
ßजीवन का सत्य क्या है? क्या मृत्यु की जीवन का अन्तिम सत्य है अथवा कुछ ओर?Þ
ßक्या मानव को दु:खों से मुक्त करा पाना सम्भव है? क्या कोई ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर मानव अपने दु:खों से मुक्त हो सकता है?Þ
यदि कुछ ऐसा है तो उन्हें अपनी खोज करनी है वह पद प्राप्त करना है जिसके आत्मा की अमरता, निर्वाण, सम्पूर्ण दु:खों से मुक्ति की अवस्था कहा जाता है
उनकी आत्मा जाग चुकी थी, संसार का कोई भी प्रलोभन उन्हें लुभा नहीं सकता था, संसार का कोई भी बन्धन, दबाव उन्हें रोक नहीं सकता था उनका साधना काल प्रारम्भ होता है
कठिन तप की अग्नि में अपने एक-एक कुसंस्कारो को भस्म करता चला जाता है वह महामानव
उन्होंने अपनी अन्तरात्मा को ही अपना गुरु बनाया, प्रकृति ही उनकी संरक्षक बनी निरजना नदी के पवित्र तट पर उनकी आध्यात्मिक यात्रा बड़े वेग से आगे बढ़ती है उनका लक्ष्य था - व्यक्तित्व की सम्पूर्ण नीच प्रवृतियों से मुक्ति, उनका लक्ष्य था मृत्यु के भय से मुक्ति उनका लक्ष्य था आत्मज्ञान की मावन जीवन में अभिव्यक्ति। कहने को तो कोई भी आत्मज्ञान की बात कर सकता है परन्तु यह आत्मज्ञान कितने लोगों के जीवन में अभिव्यक्त हो पाता है, कितने उसके उपलब्ध कर पाते हैं
साधना के चरण में तप, त्याग, तितिक्षा की चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं शरीर सूख कर हड्डियों का ढांचा हो जाता है परन्तु उनका संकल्प अडिंग है उनके पिता महाराज उनको समझाते हैं कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा वापस लौटकर राजकाज सम्भाल लीजिए संकल्प के धनी गौतम कहते हैं कि क्या वहाँ मुझे मृत्यु नहीं आएगी? मृत्यु का ही जब सब जगह राज है तो फिर जंगल में या राजमहल में क्या अन्तर?
अपने संकल्प से वो पीछे नहीं हटे मृत्यु का वरण करना मंजूर था परन्तु सत्य की खोज उन्होंने नहीं छोड़ी परमात्मा-प्रकृति-देव सभी का सिंहासन डोल उठा विश्व का सर्वोत्तम उपलब्धि निर्वाण उन्हें प्राप्त हुआ सुजाता उनमें अचानक आए परिवर्तन को देखकर बड़ी आश्यर्य चकित होती है
नदी के तट पर शमशान में लाशें जलने के लिए आती है उनका चेहरा खिला का खिला रहता है सुजाता उनसे पूछती है कि अबसे पूर्व मृत व्यक्ति को देखकर उनके चेहरे पर उद्विग्नता के भाव उत्पन्न हो जाते थे परन्तु अब ऐसा नहीं होता गौतम सुजाता को कहते है कि उन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया है वो असमय हो गए है वो अजर-अमर है अविनाशी हो गये हैं सत, चित, आनन्द उनमें समा गया है उनको अपना लक्ष्य मिल गया है चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है
गाँव के ग्वाल बाल-देव गन्धर्व सब उन पर पुष्पों की वर्षो करते हैं प्रार्थना करते हैं स्वयं के उद्धार के लिए
यहाँ से प्रारम्भ होता है उनका परिव्राजक काल सत्य की, साहस की, करुणा की आत्मज्ञान की वो मूर्ति अब आत्मकल्याण के पश्चात् पकड़ती है रास्ता लोक कल्याण का
जहाँ-जहाँ उनके चरण पड़ते हैं वहाँ-वहाँ अज्ञान-पाप-पीड़ा से त्रस्त प्राणियों को राहत मिलती चली जाती है रास्ता दिखायी देने लगता है अपने कष्टों से मुक्ति का दिशा बोध होने लगता है अपने जीवन निर्माण का नारा गुँजने लगता है -
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघ शरणं गच्छामि ।।
और होता है - एक नए युग का सूत्रपात दुष्ट, चोर, डाकू, कातिल, अपनी उद्दण्डता छोड़ कर प्राचश्चित करने लगते है
वासनाओं वेश्यालयों के दलदल में फसे नवयुवक युवतियाँ अब कामदेव द्वारा भ्रमित होकर साधना, उपासना, अराधना का रास्ता अपनाते चले जाते हैं गौतम बुद्ध का मार्ग बड़ा ही सरल-सौम्य साधारण था
1-  अपनी आत्मा को जगाओ, अपनी आत्मा का आदर करो, जागृत आत्मा कही बौद्धिसत्व की प्राप्ति कर सकती है, आत्मज्ञान- आत्मकल्याण के पथ का वरण करो
2-  अपने आचरण पर पैनी दृष्टि रखो, ऊँचे आदर्शों सिद्धान्तों को अपनाओं, देवत्व को धारण करो यही धर्म है
3-  संघबद्ध होना सीखो, अन्यथा आसुरी शक्तियाँ उत्पन्न करके तुमको परेशान करती रहेगी
उन्होंने किसी से भी शास्त्रार्थ वाद विवाद नहीं किया वो अपनी वाणी से नहीं अपने    से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते थे
उन्होंने कभी किसी का विरोध नहीं किया
जब लोग उनसे साकार निराकार इश्वर के स्वरूप कर्मकाण्ड आदि के बारे में प्रश्न करते थे तो उनका उत्तर होता था कि उन्होंने जिस रास्ते को चुनकर निर्वाण प्राप्त किया है वही वो बताते हैं अन्य किसी भी विषय में वो उलझना नहीं चाहते
उनके जीवनकाल की एक घटना है एक बार बहुत सारे पशु जा रहे थे उन्होंने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से पूछा - ये पशु कहाँ जा रहे हैं
पशुबलि के लिए महात्मन आनन्द ने उत्तर दिया
परन्तु जीवहत्या तो मानवता के विरूद्ध है फिर क्यों ये लोग ऐसा कार्य कर रहे हैं
पशुबलि वेदों में वर्णित है इस कारण पशु बलि दी जाती है तत्कालीन सामाजिक मनुष्यता के अनुसार आनन्द ने उत्तर दिया
मैं ऐसे वेरों को नहीं मानता जो अनुचित बातों के समर्थक है गौतम ने उत्तर दिया
परन्तु वेद भगवान की वाणी है आनन्द बोले
मैं ऐसे भगवान को भी नहीं मानता जो इन्सानियत के खिलाफ आवाज लगाते है गौतम का दृढ़ स्वर गूंजा
वैदिकी हिंसा, हिंसा भवति
इस उक्ति का गलत अर्थ निकाल लिया गया
वैदिक परम्परा की स्थापना के लिए यदि हिंसा भी करनी पड़े तो वह हिंसा नहीं होती
अर्थात् मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए यदि शस्त्र प्रयोग करना पड़े तो पाप नहीं
यदि अपराध रोकने के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान रखा जाए तो यह भी गलत नहीं है
ऋषि परम्परा में अपनी बात को सूत्र रूप में कहने का प्रावधान था उनका सही अर्थ निकालना मुनियों का काम था मुनि अर्थात् मनन चिन्तन करने वाले
जब मनन चिन्तन करने वाले स्वार्थ अथवा दबाव में गए तो अर्थ निकलने लगा
इतने सुन्दर वैदिक वाड़मय को कलंकित करने, लाछित करने का अनेक बार प्रयास किया गया परन्तु सदैव निष्फल रहा पवन वेग से आकर विवेकानन्द जैसे राष्ट्र नायकों ने इन कलंक रूपी बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया और संस्कृति का सूर्य पुन: प्रकाशवान, ऊर्जावान होकर चमकने लगा स्वामी जी को अक्सर साधना के दौरान महात्मा बुद्ध दिखाई  देते थे स्वामी जी के बुद्ध बहुत प्रिय थे
हमारी संस्कृति की धरोहर सुरक्षित रह सके इनके समीप बैठकर हम उन महामानवों को याद कर सके, उनके बताए रास्ते को आत्मसात कर सके अपने संस्कृति की महानता से प्रफुल्लित हो सके और अपने जीवन के श्रेष्ठ दिव्य, महान बनाने का दृढ़ संकल्प ले सकें। यही मेरी प्रभु से प्राथना है
एक बाद आनन्द ने बुद्ध से पूछा - भगवान सभी लोग परलोक आदि के बारे में कुछ कुछ निश्चित बात कहा करते हैं पर आप कुछ नहीं कहते, यह क्या बात है?
इसके उत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा - देखों आनन्द, जंगल मं एक आदमी जा रहा था, उसको तीर लगा, जिससे बड़े जोर से खून की धारा बहने लगी खून की धारा देखकर उसका पहला कार्य क्या है? वह पहले खून की धारा बन्द करें या तीर किसने बनाया आदि बातों की खोज करें?                    पूरम पूज्य गुरुदेव
विष्या विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:
रसवजर् रसो·प्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।।
निराहारी (इन्द्रियों को विषयों से हटाने वाले) मनुष्य के भी विषय तो निवृत हो जाते हैं पर रस निवृत नहीं होता
परन्तु तो निवृत हो जाते हैं पर रस निवृत नहीं होता
परन्तु परमात्मतत्व का अनुभव होने से इस स्थितप्रज्ञ मनुष्य का रस भी निवृत्त हो जाते हैं अर्थात् उसकी संसार में रस बुद्धि नहीं रहती।
पाप कर ले, पीछे प्रायश्चित कर लेंगे- इस तरह जान बूझकर किए पाप का प्रायश्चित नहीं होता
मनुष्य अच्छे काम करें तो देवताओं से भी ऊँचा उठ सकता है और बुरे काम करें तो पशुओं से भी नीचा गिर जाता है

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