Saturday, July 28, 2012

चार वर्ण व उनका विभाजन

गुण-कर्म के आधार पर विभाजन
       गीता में भगवान कहते हैं-
        चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:
        तस्य कर्त्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।
अर्थात् ‘‘गुणों और कर्मों के आधार पर चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना मेरे द्वारा ही की गई है। यद्यपि मैं उनका रचयिता हॅ, तथापि तू मुझे अविनाशी परमेश्वर को वास्तव में अकर्ता और अपरिवर्तनशील ही जान।’’
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार,’’ ऐसा व्यक्ति जिसमें सा​त्त्विक भावनाएं प्रबल हों, ब्राह्मण कहलाता है । इस श्रेणी में भावनाशील, बुद्धिजीवी, विचारक, वैज्ञानिक और अन्वेष्क आते हैं।’’ रजागुण गतिशीलता-सक्रियता का प्रतीक है। जब यह प्रधान हो, तमोगुण पर्याप्त हा किन्तु सत्वगुण न्यून हो, तो  उन्हें वैश्य कहा जाता हैं। इनमें व्यापारी आदि आ जाते हैं। मंद और निम्न वासनाओं की प्रबलता तामसिक गुणों में गिनी जाती हैं। जब तमोगुण की प्रधानता हो, तो शूद्र कहे जाते हैं। इनमें कारीगर, मजदूर, श्रमिक आदि आते हैं। जब रजोगुण प्रधान, सत्वगुण पर्याप्त एवं तमोगुण न्यून हों, तो उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है। इनमें कर्मठ सक्रिय लोग, राजनीतिज्ञ आदि आते हैं।’’
जन्म से नहीं, कर्म से
     चारों वर्णों का कारण जन्म विशेष नही है। आज जो जातिवाद की समस्या एक विष की तरह चारों ओर असमानता के रूप में बढती दिखाई दे रही है, यह हमारे, मनुष्यों के निहित स्वार्थों के कारण पैदा की गई है। भगवान कहते हैं कि चारों वर्ण  वासनाओं के स्वरूप (गुण) और कर्मों के प्रकार (कर्म) पर ही आधारित है। ‘‘वर्ण व्यवस्था मानव जाति का वैज्ञानिक, सार्वभौमिक, प्राकृतिक, मानसिक वर्गीकरण है, लेकिन तोड़ा-मरोड़ा, उलझा हुआ वर्ण धर्म और अनैतिक विकृतियां ये सब हमारे मन की कुरूपताएं हैं।’’ यह स्वामी चिन्मयानंद जी की मान्यता है।
यजुर्वेद संहिता के पुरूष सूक्त1 की एकादशी ऋचा मे आया है--
ब्राह्मणोस्य मुखम्आसीत्, बाहू राजन्य: कृत:
ऊरूतदस्य यद् वैश्य:, पद्भ्यां शुद्रोअजायत।।
अर्थात ‘‘उस परम पुरूष बह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहुओ से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरो से शूद्र का जन्म हुआ।’’ इसका आशय यह है कि ब्राह्मण ज्ञान, धर्म और कर्म की शिक्षा देते हैं, इसी कारण वे मानव समाज का मुख स्वरूप हैं। जो लोग बाहुबल से समाज की रक्षा करते हैं, वे क्षत्रिय हैं और समाज के बाहुस्वरूप हैं। जो लोग समाज के अन्न वस्त्र आदि का प्रबन्ध करते हैं वे वैश्य है और समाज  के उदर या उरूस्वरूप हैं। जो लोग समाज गतिशील रखते हैं, वे समाज के पैरो के समान हैं चारो में से किसी को भी नीचा या ऊँचा ऋषि ने नही कहा है। हाँ एक विकास की यात्रा कही है, जो श्रम प्रघान जीवन से आरम्भ होकर ज्ञान प्रघान, तप प्रघान जीवन पर समाप्त होती है। चारो वर्ण ही समाज की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु सभी समय समाज में बने रहते हैं। इनमें से कोई भी छोटा नही है। सबकी अपने स्थान पर अपनी उपादेयता है।


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