गीता
में
कहा
गया
है
- ßमन
ही
मनुष्यों
के
बंधन
और
मोक्ष
का
कारण
है
।Þ
व्यक्ति
का
मन
उगर
भव
बन्धनों
अर्थात्
काम
क्रोध
मद-लोभ,
दभ-दुर्भाव,
दोष
आदि
पर
विजय
प्राप्त
कर
लेता
है
तो
वही
मोक्ष
की
स्थिति
होती
है
।
तभी
बन्धनों
से
व्यक्ति
छुटकारा
पा
जाता
है
।
हमारा
मन
ही
बन्धन
का
कारण
है
क्योंकि
हमारे
मन
में
दूषित
विचारों
का
बाहुल्य
हो
तो
शरीर
भी
अवांछनीय
कार्यों
को
करेगा
और
फलस्वरूप
दु:ख भोगने पड़ेंगे
।
शरीर
मन
की
प्रेरणा
से
ही
कार्य
करता
है
।
मनुष्य
सशक्त
मन
के
द्वारा
शरीर
से
हर कठिनाई का
सामना
कर
लेता
है
।
मन
में
जिस
तरह
के
विचार
उठते
हैं
शरीर
पर
उनका
ही
प्रभाव
पड़त
है
।
मन
रोगी
है, तो शरीर
भी
रोगी
हो
जाता
है
।
भावी
संकट
की
कल्पना
मात्र
से
मनुष्य
इतना
भयभीत
हो
जाता
है
कि
उसकी
सारी
शक्तिया
शिथिल
पड़
जाती
है, यह सब
उसके
मन
की
दुर्बलता
का
द्योतक
है
।
मन
की
दुर्बलता
ही
व्यक्ति
के
शारीरिक
स्वास्थ्य
एवं
सुख
का
नाश
करती
हैं
।
विपत्ति
जितनी
ज्याद
भयानक
नहीं
होती
उससे
अधिक
मन
की
अस्तव्यस्तता
हमें
दु:खी एवं
असन्तुष्ट
बना
देती
है।
मनुष्य
जो
कुछ
भी
अच्छा
बुरा
कार्य
करता
है, वह सब
सूक्ष्म
शरीर
की
अकथनीय
एवं
अज्ञात
शक्ति
से
प्रेरित
होकर
ही
करता
है
।
मन में उत्पन्न शक्ति से ही शरीर कार्य करता है । शरीर में कभी कोई कष्ट होता भी है, किन्तु मन उत्साह एवं प्रसन्नता से पूरित होता है, तब शारीरिक कष्ट भी थोड़ी देर के लिए विस्मृत हो जाते हैं । हम उस अमोध शक्ति का नाश करते जा रहे हैं, जो दु:खों, रोगों एवं विपत्तियों में भी धैर्यपूर्वक सामना करने की हमें प्रेरणा देती है । यह शक्ति जब मन से प्रस्फुटित होती है, तभी शरीर उसके सहारे कार्य कर दिखाता है । व्यक्ति चिंतित रहता है और इसका असर उसके शरीर पर पड़ता है । मन खिन्न है तो शरीर पर उसका शरीर पर असर अवश्य पड़ेगा । आवश्यकता इस बात की है कि शरीर और मन के अविच्छिन्न संबंध के विषय में ध्यान रखते हुए मन को शुद्ध एवं सन्तुलित रखें । तभी हम स्वस्थ रह सकेंगे । और मन की दिव्य शक्ति के सहारे प्रगतिशील बन सकेंगे ।
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