Saturday, July 21, 2012

भगवान की अन्तर्वेदना


एक बार मैं एक प्रसिद्ध मंदिर में गया बहुत भीड़ थी मैं थोड़ा हटकर मंदिर में ध्यान करने लगा। मेरे अंदर भगवान की वाणी गूंजी जो कुछ निम्न प्रकार थी-
‘‘तुम भी आए हो मंदिर में किसलिए- घूमने फिरने, पिकनिक करने, लोगों को देखने, देवमूर्तियों के दर्शन करने, मनोकामनायें प्रकट करने, धागा बॉंधने, धागा खोलने, प्रसाद चढाने, प्रसाद लेने, घण्टा बजाने आदि-आदि। क्या तुम भी इनमें से किसी प्रयोजन को पूरा करने आए हो? लोग मुझे कहते तो स्वामी हैं परन्तु समझते नौकर हैं इसीलिए मुझ पर तरह-तरह की अपनी इच्छायें लादते हैं। यदि वास्तव में वो मुझे स्वामी समझते तो मुझसे पूछते ‘‘बताइये स्वामी हमारे लिये क्या आज्ञा है?’’, कोई भी व्यक्ति मुझसे प्रेम नही करता मात्र अपनी मनोकामनाओं से प्रेम करता है। क्या किसी ने मुझसे पूछा है कि मुझे क्या चाहिए। इंसान अपनी इच्छा से बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण किये चले जा रहा है। मेरी मूतिर्यों के ऊपर सोने चॉंदी के छत्र चढाता चला जा रहा है। किसलिये? केवल अपने अहं को संतुष्ट करने के लिये। मेरे मंदिरों की भव्यता दिनों दिन बढ रही है। परंतु मेरी बनायी सृष्टि की स्थिति दिनोंदिन गिरती जा रही है। क्या वो मॉं-बाप आतिशान महलों बंगलों में रहना पसन्द करेंगे जिनके बच्चे भूख, नंगे, अशिक्षित, बीमार, दुखी पीड़ित अज्ञानता में भटक रहे हों?’’
भगवान ने मुझसे कहा-
‘‘क्या तुम भी इस भीड़ की तरह सामाजिक मान्यताओं को पूरा करोगे अथवा मेरी अन्तर्वेदना को सुनना चाहोगे। नरेन्द्र नामक एक बालक ने मेरी अन्तर्वेदना को सुना था विवेकानन्द बन गये। श्री राम मत ने मेरी अन्तर्वेदना सुनी तो युग ऋषि श्री राम बना गए। भगतसिहं, चन्द्रशेखर, राजगुरू, रामप्रसाद, अश्फाक उल्लाह जैसे अनेकों बच्चे मेरी पीड़ा सुनकर जवानी में त्याग और बलिदान की सारी सीमाएं पार कर गए।’’
‘‘क्या तुम भी इस स्वार्थ्री भीड़ की तरह एक नयी मनोकामना मुझ पर लादने वाले हो?’’
मैंने भगवान से कहा-
‘‘नही भगवान आपने मुझे बहुत कुछ दिया है, जन्म से लेकर आज तक मेरी बहुत सहायता की है मेरी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति की है। मैं आपका बड़ा ऋणी हूँ आपने भगतदगीता में वायदा किया है कि आप अपने भक्तों के योगक्षेम का वहन स्वयं करते हैं आपने रामचरित मानस के माध्यम से संदेश दिया है’’
‘‘जेहि विधि होय नाथ हित मोरा, करॅंहु सो बेगि दार मैं तोरा’’ जो मेरे हित में है वह आप स्वयं जानते ही हैं मैं अपनी तुच्छ बुद्धि से क्या समझ सकता हूं कि क्या मेरे हित में है और क्या मेरे हित में नही है। जो कुछ भी आपने मुझे दिया है उससे मैं पूर्ण संतुष्ट हूं।’’
मैंने भगवान से कहा-
‘‘अब मैं बड़ा हो रहा हूं मुझे बताइए मैं अपनी क्या सेवा कर सकता हूं। सदा मुझे अपनी प्ररेणा, अपना मार्गदर्शन देते रहिएगा।   जो सेवा भाव प्रेम हनुमान जी के अंदर आपके प्रति था उसका एक अंश मेरे अंदर भी प्रतिस्थापित कर दीजिए। जो निष्काम कर्म थोडा का संदेश आपने परावाणी से अर्जुन को दिया था, उसका एक अंश मेरे अंदर भी स्थापित कर दीजिए। जो वैराग्य विवेकानंद में आया उसका एक अंश मेरे भीतर भी जाये। जो साहस जो त्याग बलिदान मातृभूमि के लिए शहिदों ने किया उसका एक अंश मैं भी धारण कर सकूं। प्रभु क्या ऐसा संभव होगा?’’
भगवान ने कहा-
‘‘तथास्तु! सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी असफल नही होती। तुम अपना इस प्रकार का मन मंदिर से बाहर निकलने पर भी बनाये रखने का प्रयास करना। मंदिर से बाहर जाकर घर गृहस्थी में उलझ कर रह जाना। समाज में बह रही भोगवाद, भौतिकवाद की आंधी में बह जाना।’’
मैंने भगवान से कहा-
‘‘प्रभु मैं इस दिव्य मन का जिन्दा रखने का पूरा प्रयास करूंगा। क्या इसके अतिरिक्त मुझे और भी कुछ करना है’’
भगवान ने कहा-
‘‘हां समय-समय पर मेरी प्ररेणा तुम्हारे अंत:करण में गूंजती रहेगी। अभी तुम इस मन को परिपक्व करो साथ-साथ मेरे बच्चों से प्रश्न करो- ‘‘क्या वो वास्तव में मुझसे प्यार करते हैं?’’
‘‘क्या वो मेरी प्ररेणा लेना चाहते हैं?’’
‘‘क्या वो निष्काम कर्मयोग के सिद्धान्त का अनुसरण करना चाहते हैं? ऐसे लोगों का संगठन विनिर्मित करो जो विशुद्ध मेरे लिये समर्पित होकर काम करना चाहें।’’
मैंने पुन: भगवान से कहा-
  ‘‘यदि आपकी कृपा से ऐसे कुछ लोगों का संगठन तैयार हो जाये तो क्या करें?’’
भगवान ने कहा-
‘‘उनके सहयोग से (अंशदान-समयदान) से
1-     अच्छे विद्यालयों की स्थापना करो ।ऐसे विद्यालय जिनमें उच्च श़िक्षा के साथ-साथ उच्च संस्कार भी दिए जाएं।जो विद्यार्थी उनमें पढे वो (IAS/PCS)  बडे-बडे पदों पर जायें पर उनमें इतना आत्मबल हो कि किसी भी स्वार्थ दबाव के आगे झुकें नही।
2-    अच्छे प्राकृतिक चिकित्साओं की स्थापना करो जहां हर प्रकार की चिकित्सा पद्धति से लोगों का ईलाज किया जाये जैसे- आसन, प्राणायाम, सूर्य चिकित्सक। गौमूत्र चिकित्सा, मिट्टी,  जल, वायु चिकित्सक आदि-आदि।
3-    गौशालाओं की स्थापना करो। गौमूत्र से कुटीर उद्योग चलाओ, विभिन्न प्रकार के उपयोगी पदार्थ बनाओ।
‘‘मैं अपनी और से पूरा प्रयास करूंगा भगवन्।’’
भगवान ने कहा-
‘‘मैं तुम पर प्रसन्न हूं मांगो क्या मांगते हो?’’
‘‘यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वचन दीजिये कि मेरे साथ-साथ मेरा पूरा परिवार विशेषकर मेरे बच्चे आपकी सेवा के लिये अपना जीवन समर्पित करें। हम सभी अहंकार रहित हों आपकी सेवा में आजीवन संलग्न रहें।’’ भगवान ने तथास्तु कहा अन्तध्र्यान हो गये।

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