नवनिर्माण के
लिए धन की
नितांत आवश्यकता है।
प्रचारात्मक, रचनात्मक और
संघर्षरात्मक विविध कार्यक्रमों
के हर मोर्चे
पर लड़ने के
लिए भावना, सूझ-बूझ और
प्रतिभा की तरह
पैसा भी चाहिए।
इसके लिए धन
का आह्वान किया
जाना चाहिए और
उसे दौड़कर आना
चाहिए। ऋषि विश्वामित्र
एक समय नई दुनिया बनाने में
निरत थे, उन्हें पैसे
की जरूरत पड़ी।
उनके प्रधान शिष्य
राजा हरिशचन्द्र ने
न केवल राजपाठ
ही सौंपा वरन्
अपने और पत्नी
तथा बच्चों के
शरीरों को बेचकर
भी उस आवश्यकता
की पूर्ति की।
संत सुदामा का
गुरूकुल लड़खडा रहा
था, भगवान कृष्ण
ने स्थिति को
समझा और धन
के कारण प्रस्तुत कठिनाई को दूर
कर दिया। राणाप्रताप
का स्वतंत्रता संग्राम
शिथिल पड़ता जाता
था, भामाशाह आए
और उसने अपनी
समस्त पूंजी उनके
सामने रख दी।
बुद्ध का मिशन
समस्त विश्व में
प्रकाश फैलाने के
लिए तत्पर था, पर प्रचारकों को
तैयार करने और
बाहर भेजने के
लिए धन की कठिनाई के कारण
गाड़ी रूक गई थी।
सम्राट अशोक
ने अपना सारा
साम्राज्य उस मिशन
को सौंप दिया।
उसी का फल
था कि बौद्ध
धर्म एक समय
समस्त एशिया का
सर्वमान्य धर्म बन
गया था।
जगद्गुरू शंकराचार्य
को वैदिक धर्म
की स्थापना के
लिए चलना था, इस प्रयोजन की
पूर्ति में राजा
मांधाता की सेना
और राज्यकोष की
धनराशि समर्पित की गई । जमुनालाल बजाज
को गांधी जी
ने धर्मपुत्र माना
और उन्होने अपनी कमाई का बहुत
बड़ा अंश गांधी
जी के कार्यों
के लिए प्रस्तुत
कर दिया। सुभाषचन्द्र
बोस को बर्मा
के भारतीयों ने
सोने से तोला
था ताकि आजाद
हिन्द फौज की
आवश्यकताओं में अवरोध
उत्पन्न न होने
पाये प्राचीन काल
में यह नित्य
की परम्परा थी।
राजा कर्ण अपने
बड़े वेतन से
न्यूनतम अंश निर्वाह
के लिए रखकर
शेष बचे हुए
का प्रात:काल ही
दान कर देते
थे। वाजिश्रवा हर
वर्ष सर्व मेघ
यज्ञ करते थे
और जो कुछ
जमा पूंजी होती
सारी खाली कर
देते।
अगला समय
सच्चे धर्म, सच्चे अध्यात्म
और सच्चे तप
साधन का होगा, इसमें पूजा पाठ
भले ही कम
हो जाए पर
हर व्यक्ति यह
अनुभव करेगा कि
हमारे मन, संस्थान तथा
कर्म प्रक्रिया का
प्रत्येक कण लोकमंगल
के लिए समर्पित
होगा।
व्यक्तिगत महत्वाक्षांए
समाप्त होंगी। लोग
स्वल्प साधनों में
सादगी और सज्जनता
का जीवनयापन कर
लेने को पर्याप्त
या संतोषजनक मान
लेंगे, उनकी महत्वाक्षांओं
का सारा केन्द्र
विश्वव्यापी सद्भावनों एवं
सत्प्रवृतियों के अभिवर्द्धन
केन्द्रि हो जाएगा
।
यह परिवर्तन
की प्रक्रिया अनायास
ही सामने आकर
खड़ी नही हो
जाएगी। जादू की
छड़ी घुमाकर कोई
संत, अवधूत या
अवतार यह सब
करके नहीं रख
पाएगा। इसके लिए
कोटि-कोटि जनता को
घेर प्रयत्न करना
होगा और हर
सजग आत्मा को
प्रस्तुत विपन्नताओं से
जूझने के लिए
रीछ, वानरों की
तरह दुस्साहसी बनना
पड़ेगा। इस महाभियान
का नेतृत्व करने
के लिए महाभागों
की आज अत्याधिक
आवश्यकता है, जो इश्वार्यी इच्छा युग की
आवश्यकता और विश्वव्यापी
सुख शांति के
लिए अपने क्षुद्र
स्वार्थो का बलिदान
करके नवनिर्माण की
ऐतिहासिक भूमिका सम्पन्न
करते हुए अपने
को धन्य बना
सकें ।
युग परिवर्तन की घडी तेजी से निकट आती चली आ जा रही है। यह समय प्रसव पीड़ा का है अग्नि परीक्षा का है इनमें सबसे अधिक परीक्षा उन समर्थ आत्माओं की होगी, जो संस्कार सम्पन्न समझी जाती है। उन्हें अपना जीवनक्रम ऐसा ढालना होगा, जिसको देखकर दूसरे भी वैसा ही अनुकरण कर सकें । चरित्र की शिक्षा वाणी से नहीं, अपना आदर्श प्रस्तुत करके ही दी जा सकती है। सो जिनमें भी मानवीय गरिमा और दैवी महानता के जितने अंश विद्यमान है, उन्हें उसी अनुपात से अपने दुस्साहसपूर्ण कर्तव्य को विश्व मानव के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए दृढतापूर्वक अग्रसर होना चाहिए।
No comments:
Post a Comment