प्रज्ञा पुत्रों के नाम सन्देश
सब
कुछ
तो
मैं
तुझे
समझा
दिया, तू न
समझ
पाए
तो
मैं
क्या
करू?
कडी तपश्चर्या में
स्वयं
को
तपाकर
मार्ग
तुझे
बतलाया
है
।
कही प्रवचनों से
कहीं
लेखों
से
भांति-भांति समझाया
है
।
सोलह
आने
मैंने
किया
तू
एक
आना
भी
न
कर
पाए
तो
मैं
क्या
करूं?
अब भी
मान
ले
मेरी
बात
फिर
दो”ा
न
मुझको
देना
।
ये मुसीबतें
क्यों
आयी? फिर न
मेरे
आगे
रोना
।
तेरे
अन्तर
में
घुसकर
जगाता
रहा, तू न
जाग
पाए
तो
मैं
क्या
करूं?
धरा पर
छाती
काली
घटाएं, पर तू
अपनी
मस्ती
में
मस्त
है
।
वासना,
तृ”णा, अंह्मता के
बन्धनों
से
हो
पूरी
तरह
ग्रस्त
।
हर
भांति
जोर
मैंने
लगाया
तू
छूटना
न
चाहे
तो
मैं
क्या
करूं?
युग धर्म
को
न
अपनाने
का, परिणाम बड़ा
भयंकर
होगा
।
रोग शोक और
पीड़ा
पतन
से, जीवन तेरा
घिरा
होगा।
मैंने
तो
इतना
चेताय
तू
न
चेत
पाए
तो
मैं
क्या
करूं?
गुरु रूप
में
आकर
मैंने
अपना
फर्ज
निभा
दिया
।
स्वयं क”ट
सहकर
भी
तेरे
दुखों
का
दूर
किया
।
इतना सब कुछ करने पर भी तू न मान पाए तो मैं क्या करूं?
ßजब
तक
कोर्इ
साहस
न
दिखाए, सारा समूह
निस्तेज
पड़ा
रहता
है।Þ
ßआपत्तियों
से
डरकर
जीवन
के
महान्
दायित्वों
से
विमुा
नहीं
हो
सकता
।Þ
जीवन का क्या मतलब है?
ßगति
और
शक्ति, इन दोनों
से
संयुक्त
ही
जीवन
है
और
उसका
मतलब
है
-
सतत जागरूकता
।Þ
जिज्ञासा,
प्रयत्न, विचार और
त्याग
का
अविरल
प्रवाह
ही
जीवन
है।
इसमें
से
किसी
के
भी
मूर्छित
होने
का
मतलब
है
- जीवन
काी
रूग्णावस्था
।
इनकी
निवृति
में
मृत्यु
है
और
पूर्णता
में
मोक्ष
।
तुम
सबको
मोक्ष
की
ओर
बढ़ना
है
।
इनकी
पूर्णता
की
परिणति
है
- आनन्द
।
इस
आनन्द
की
अभीप्सा
ही
यथार्थ
जीवन
है
।
ßनियमितता
और
निरंतरता
अध्यात्म
मार्ग
में
सफलता
हेतु
बहुत
जरूरी
है
।Þ
ßजो
लोग
अपनी
साधारण
की
उपलब्धियों
का
ढिंढोरा
पीटते
नहीं
अघाते
वे
बालबुद्धि
ही
है, उन बरसाती
नालों
की
तरह
जो
थोड़ा
सा
पानी
गिरने
पर
ही
उफन
आते
हैं, जबकि सागर
हमेशा
अपनी
सीमाओं
में
शांत
और
सीमित
रहता
है
।Þ
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