Friday, July 20, 2012

धर्म के नाम पर मजाक एवं खानापूर्ति-Part-1

चारों पुरुषार्थों में ऋषियों ने धर्म को प्रथम स्थान पर रखा है शास्त्रों ने धर्म को समस्त सुखों जीवन का मूल आधार घोषित किया है प्रश्न उठता है कि क्या धर्म के मामले में हम गम्भीर है विभिन्न प्रकार के मुद्दों को लेकर हम बड़े जागरूक रहते हैं।जैसे धन कमाने के मामले पर हम बहुत जागरूक रहते है बच्चो की पढाई और भविष्य  को लेकर हम बहुत जागरूक रहते है ।  इस विषय में हर प्रकार की उचित जानकारियाँ भी प्राप्त करते हैं परन्तु जब धर्म की बारी आती है तो आँख बन्द कर कुछ भी उल्टी सीधी मान्यताओं द्वारा खानापूर्ति करने लगते हैं जब सृष्टि की प्रत्येक चीज तर्क, सिद्धान्त एवं विज्ञान पर आधारित हैं तो धर्म क्यों नहीं? सनातन धर्म भी पूर्ण सैद्धान्तिक तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है क्या हमने कभी उस दृष्टिकोण से खोजबीन करने का प्रयास किया? यदि हम धर्म को ठीक से सोच सके, समझ सके, जान सके तो हम इस परिणाम पर पहुंच पाएंगे कि धर्म मानव जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण भाग है जिसको हम अब तक चूकते (miss) चले रहे हैं आइए देखते हैं कि समाज का व्यक्ति धर्म के नाम पर क्या कर रहा है?
हम रोज पूजा पाठ करते है किसलिए? हम ऐसा मानते हैं कि इससे भगवान प्रसन्न होगा हमारी मनोकामनाएं पूरी कर देगा यह बात सत्य है कि पूर्णत: निष्काम भक्ति अथवा निष्काम कर्म योग करना बड़ा कठिन है इसके लिए बहुत परिपक्व मानसिकता चाहिए जब तक वह मानसिकता नहीं बन पाती वैराग्य की वह अवस्था नहीं प्राप्त होती तब तक मिश्रित भक्ति मिश्रित कर्म योग के द्वारा आव्मोन्नति करनी होती है मिश्रित का अर्थ है रूकाम निष्काम दोनों का मिश्रण निष्काम भक्ति अथवा निष्काम कर्म योग की पूर्णता तक पहुंचना साधना की अन्तिम स्थिति है उस स्थिति पर पहुंचे व्यक्ति के लिए यह पुस्तक नहीं लिखी जा रही है क्योंकि उनकी तो आत्मा इतनी सशक्त हो जाती है कि वह स्वयं व्यक्ति का मार्ग दर्शन करने लगती है यह साधना ही उन्नत अवस्था है परन्तु भारत वर्ष की अधिकांश जनता साधना की सामान्य माध्यम अवस्था में है यदि हमारी भारत वर्ष की .01प्रतिशत जनता भी साधना की उन्नत अवस्था में होती (अर्थात् 1 अरब का .01प्रतिशत ¾ 1 लाख) तो यह भारत विश्व का जगत गुरु होता अब यह प्रयास हिमालय की देवात्माओं के द्वारा किया जा रहा हैसाधना की ऊँचा को वही छू पाँएगे जिनका आधार मजबूत है जो धर्म आध्यात्म के सिद्धान्तों को ठीक से समझते हैं
पहली गलती जो व्यक्ति करता है वह भगवान के स्वरूप को लेकर करता है वह सोचता है कि भगवान चापलूस है इसकी चापलूसी करो तो वह प्रसन्न हो जाएगा कुछ आरती, चालीसा पढ़ो तो वह मनोकांमनाएं पूरी कर देगा यह मान्यता हमारे धर्म में कहां से आयी? इतिहास के मुगल काल उससे पूर्व चारों और चापलूसों का जमाना है ताकि लोग राजाओं अन्य गणमान्य व्यक्तियों की चापलूसियां गुणों का बखान करते फिरते थे राजा गणमान्य व्यक्ति अपनी प्रशंसा के गीत सुनकर उन पर उपहार की वर्षा करते थे लोगों ने भगवान को भी उसी श्रेणी का समझना प्रारम्भ कर दिया गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है ßजाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूर्त दिखे तिन तैसी लोगों की भावना चापलूसी प्रधान रही तो लोगों को भगवान भी चापलूस दिखने लगा इसी कारण बहतु सारी इस प्रकार की मान्यताओं से समाज भरता चला गया कि यह पाठ करने पर यह फल मिलेगा यह करने पर यह मिलेगा आदि-आदि परन्तु क्या यह मान्यता सिद्धान्तत: सही है? क्या यह मान्यता तर्क सम्भत है? क्या श्वर वास्तव में चापलूसी पसन्द करता है? आप अपनी अन्तरआत्मा को टटोलिए इसका क्या उत्तर पाते हैं हाँ में या ना में
जब मैं (लेखक) 18-20 वर्ष की आयु का था, इंजीनियरिंग कर रहा था, बहुत पूजा पाठ किया करता था दुर्गा जी, हनुमान जी, भगवान श्री राम की भक्ति आरती, चालिसा, भजन कीर्तन, जागरण, रामचरित मानस, दुर्गा सप्तशती आदि अनेक माध्यमों से करता था उस समय मैं भक्ति इसलिए करता था कि मेरा स्वास्थ्य सही रहे मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त करूँ एक बाद अचारन मेरे मन में प्रश्न उठा क्या भगवान चापलूस है?’ मैं अन्र्तद्वन्द्व की स्थिति में चला गया आज उसके 15-20 वर्षो के अन्तराल के पश्चात् विशद् अध्ययन मनन चितन्तन साधना के उपरान्त में अन्तरात्मा की गहरार्इयों में उस प्रश्न का उत्तर खोजने में सफल हुआ हूँ अपने अनुभव आपसे बाँटना चाहता हूँ
अंग्रेजों के प्रति चापलूसी की भावना को समाप्त करने के लिए महात्मा गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया था अंग्रेजों के जो भी कार्य भारतवासियों के हित में नहीं है उन्हें स्वीकार नहीं किया जाएगा उन नीतियों का असहयोग किया जाएगा चाहे इसके लिए हमें लाठियां खानी पडें अथवा जेल जाना पडे परन्तु जो गलत है वो गलत है उसका बहिष्कार किया जाएगा हम आंख बुद्धि बन्द करके अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानते रहे उनके प्रत्येक कार्य की प्रशंसा कर स्वयं अपने राष्ट्र के बरबाद होते देखते रहे यह सहन नहीं किया जाएगा अंग्रेजों को आखिरकार भागना पड़ा हमने भारत माँ को बन्धन की बेड़ियों से मुक्त कराने में सफलता पायी
क्या धर्म के क्षेत्र में भी इस प्रकार की क्रान्ति सम्भव है? जो मूर्खतापूर्ण मान्यताएं हमारे धर्म क्षेत्र में घुस आयी है हमें कमजोर कायर बना रही हैं क्या हमें उनका असहयोग नहीं करना चाहिए? जो आश्रम जो धर्म के ठेकेदार इस प्रकार की मान्यताओं को फैला रहे हैं उनको तुरन्त रोका जाना चाहिए जो साहित्य इस प्रकार की मनगढ़ंत मूर्खतापूर्ण मान्यताओं के आश्रय देता है उसको जला देनी चाहिए आगे छपार्इ बन्द होनी चाहिए मांगने वाले से लेकर उच्च पद पर बैठे व्यक्ति तक (प्रत्येक नहीं) धर्म की दुहार्इ देकर लोगों का मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं मांगने वाला दान की महिमा बताकर अपने पेट नशे का जुगाड़ कर रहा है उच्च पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति (प्रत्येक नहीं) दान की महिमा बताकर लाखों, करोड़ों की सम्पत्ति एकत्र कर रहा है एक आश्रम कुरुक्षेत्र में है, एक दिल्ली में, एक मुम्बर्इ में क्या करते हैं साहब? हफ्ते में एक दिन कैसेट चलाकर सत्संग करते हैं और कभी दो चार माह में कोर्इ एक पदाधिकारी आकर सत्संग अथवा ध्यान आदि करा जाते हैं यह कार्य तो किसी अन्य मन्दिर, धर्मशाला अथवा स्कूल के हाल में भी किया जा सकता था सभी विद्यालयों में हाल होते हैं रविवार को छुट्टी होती है यदि यही करना था तो केवल एक हाल ही क्यों नहीं विनिर्मित किया उसके लिए लाखों-करोडों की जमीन पर क्यों कुण्डली मारकर सर्प की तरह बैठे हुए हैं अच्छा होता कि उसमें गरीब बच्चों के लिए विद्यालय, स्वावलम्बन केन्द्र चलाया होता जिससे लोगों के दिए हुए दान का कुछ सदुपयोग होता यहाँ भी चापलूसी सिखायी जाती है हमारे गुरु तो बहुत बड़े सिद्ध पुरुष, अवतारी पुरुष है उनके दर्शन मात्र से ही मनोकामनाएं पूरी होती है पाप कट जाते हैं आदि-आदि गुरु के प्रति स्नेह, अविश्वास, सात जन्मों तक नकर भोगना पड़ेगा इसका लाभ उठाकर अनेक छोटे, मध्यम, उच्च सभी दर्जों के कालनेमि (असुर) धर्म के मंच पर घुस आए हैं धर्म के मंच पर इतना भ्रष्टाचार अब से पहले कभी देखने को नहीं मिला किसी सन्यासी के वासनात्मक सम्बन्धों का पता चला रहा है, किसी के ऊपर हत्याओं का आरोप लग रहा है क्या ऐसे युग में व्यक्ति को जागरूक रहने की आवश्यकता नहीं है? प्रत्येक स्वयं को सिद्ध पुरुष, र्इश्वर प्राप्त, बारह वर्षीय हिमालय साधक घोषित कर रहा है यह क्या मजाक है? जो कुछ तन्त्र-मन्त्र करते हैं वह भी र्इश्वर प्राप्त, जो कथा करते हैं वे भी र्इश्वर प्राप्त जो आसन प्राणायाम करते हैं वह भी र्इश्वर प्राप्त, जो नाचते गाते हैं वह भी र्इश्वर प्राप्त, जो अच्छा बोलना जानते हैं वह भी र्इश्वर प्राप्त प्रत्येक बड़ा सन्त अपनी एक मासिक पत्रिका निकालता है अपने जीते जी अपने बड़े-बड़े कारनामों के, चमत्कारों के बड़े-बडे लेख छपवाता है विज्ञापन के इस दौर में अपना नाम चमकाने की हर किसी को होड़ लगी हुर्इ है क्या यही सनातन धर्म वे संस्कृति कहती हैं? अब से पूर्व जितने भी सिद्ध पुरुष हुए है, सभी जीते जी एकान्त पसन्द करते थे, अपनी सिद्धियों, शक्तियों को गुप्त रखते थे, उनका ढोल नहीं पिटवाते थे यहाँ भी चापलूसी का ही बोलबाला है जो अपने चारों और जितने चापलूस   कर सकने में सूख्म हुए हैं वह उतने ही बड़े सिद्ध पुरुष है होना यह चाहिए था कि निज की प्रशंसा शक्ति का ढोल पिटवाने की जगह सनातन धर्म के सिद्धान्तों की महिमा का बखान किया जाता, जिससे लोगों में सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा, विश्वास उमड़ता।
सनातन धर्म के सिद्धान्तों के बारे में जब हम बात करते हैं तो पहली बात है कि इस विश्व ब्रह्माण्ड में एक ऐसी शक्ति है जो पृथ्वी वासियों से अधिक शक्तिशाली है वो लोगों की सहायता करती है उनको देव शक्तियों के नाम से जाना जाता है देव शक्तियां किन लोगों की सहायता करती है क्या आशा अपने मन्त्रों  से करती है यह जानना आवश्यक हैं हम विभिन्न प्रकार के स्त्रोतों से देव शक्तियों की वन्दना करते हैं यह इसलिए नहीं करते कि उनको चापलूसी पसन्द है वरण इसलिए उनकी वन्दना की जाती है कि हम उनके प्रति सम्मान की भावना अपने हृदय में उत्पन्न करते हैं यदि किसी के कार्य नीच है तो वह तिरस्कार का पात्र है और यदि उच्च है तो वह सम्मानीय है यह सृष्टि का नियम है जब भी कोर्इ महान् पुरुष के पास जाते हैं तो उसका सम्मान करना हमारा धर्म है। देवशक्ति की श्रेष्ठता, महानता का बखान करके हमने उनका सम्मान किया यह कार्य अधिकाँश जनता करती है अब दूसरा चरण है उनसे मार्गदर्शन लेना, उसकी इच्छा के अनुरूप जीवन जीना, उनके द्वारा बताए अथवा स्थापित किये गए सिद्धान्तों को अपनाना यह दूसरा चरण कोर्इ पूरा नहीं करना चाहता क्योंकि यह कष्टमय है प्रत्येक व्यक्ति जीवन अपने अनुसार जीना चाहता है एक बच्चा अपने माँ बाप का सम्मान करता है, प्रेम करता है, चरण स्पर्श करता है, मधुर-मधुर बातें करता है परन्तु उनके द्वारा दिए गए निर्देशों की अवहेलना करता है क्या ऐसे में माँ बाप प्रसन्न हो पाएँगे? क्या ऐसी स्थिति में बच्चा अपने जीवन में सफलता प्राप्त करेगा? यह तो ऐसी स्थिति है जैसे एक बच्चे ने माँ बाप के पेर हुए टाफी चाक्लेट मांगी यदि मां बाप टाफी चाकलेट बच्चे को देते रहे उसी के अनुसार उसकी इच्छाएं पूर्ति करते रहे तो बच्चे का पेट खराब हो जाएगा विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म बच्चे के भीतर हो जाएगा। यह गलत दर्शन है कि सम्मान किया, गुणों का बखान किया तरह-तरह की मनोकामनाएं देवशक्ति के आगे फैला दी पूरी छुयी तो जय राम जी की, नहीं छुयो तो दूसरे किसी देवी देवता के आगे भी वही कहानी दोहरायी यदि तर्क बुद्धि से सोचा जाय तो इसमें स्पष्ट रूप से मूर्खता नजर आती हे तब हमें कैसे देव-शक्तियों का पूजन करना चाहिए? क्या उनके गुणों का बखान करना सर्वथा अनुपयुक्त है? नहीं ऐसा नहीं है कि यदि हम श्रद्धा से समझकर भगवान  के गुणों का बखान करते हैं तो पहली बात हम उनका आदर करते हैं दूसरी बात उन गुणों को महत्ता से हमारा परियच होता है तीसरी बात उन गुणों के धारण करने में हमें सहायता मिलती है क्योंकि उसी प्रकार के भाव हमारे अन्त:करण में उत्पन्न होते हैं लेकिन यह तभी सम्भव है जब उन दिव्य गुणों के प्रति हमारा रूझान हों यदि हमारा रूझान तो घटिया स्वार्थी  जीवन की ओर है हम कुछ आरती चालीसा पढ़कर अथवा प्रसाद-भोग लगाकर सोचते हैं कि भगवान प्रसन्न होकर हमारी मनोकामना पूरी कर देगा यह सरासर नाइंसाफी है घटिया कार्य घटिया सोच हमारे जीवन में दुखों कष्टों व रोगों की उत्पत्ति करती है फिर हम भगवान से मनोकामना के रूप में अच्छे फल की आशा किस आधार पर कर सकते हैं

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